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कोरोना पर राजनीति कबूल नहीं

कोरोना संक्रमण से निपटने और इससे निजात पाने की राह में राजनीति किसी कीमत पर नहीं आनी चाहिए। भारत की विविधता केवल सामाजिक ही नहीं बल्कि राजनीतिक व आर्थिक भी है जो सांस्कृतिक मान्यताओं और परंपराओं में विविध रूपी छटा बिखेरती है।

कोरोना संक्रमण से निपटने और इससे निजात पाने की राह में राजनीति किसी कीमत पर नहीं आनी चाहिए। भारत की विविधता केवल सामाजिक ही नहीं बल्कि राजनीतिक व आर्थिक भी है जो सांस्कृतिक मान्यताओं और परंपराओं में विविध रूपी छटा बिखेरती है। यही मनोरम भारत है जिसका वर्णन विभिन्न भाषा-भाषी लोग अपने-अपने अन्दाज में करते रहे हैं। अचानक कोरोना ने पूरे देश की चिन्ताओं का एकल चित्र खींच कर विविधता का समुच्यीकरण एक लक्ष्य में कर दिया है जो इस संक्रमण को  भगाने का है किन्तु यह सवाल केवल स्वास्थ्य से नहीं जुड़ा है बल्कि इसमें आर्थिक चुनौतियां भी जुड़ी हुई हैं। पूर्व  से लेकर पश्चिम और दक्षिण से लेकर उत्तर तक के भारत के विभिन्न प्रदेशों में कोरोना को परास्त करने की रणनीति भी एक है और रास्ता भी एक है। इसमें किसी प्रकार की मतभिन्नता के लिए कोई स्थान कैसे हो सकता है? इस सिद्धान्त का अक्स हमें जमीन पर भी नजर आ रहा है जहां पूरी तरह विपरीत विचारधाराओं से चलने वाली राज्य सरकारें एक समान रास्ता अपना कर एक-दूसरे के लिए नई नजीरें पेश कर रही हैं।
 उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जो हिन्दुत्व की विचारधारा के समर्थक कहे जाते हैं, कोरोना का मुकाबला करने के लिए केवल मानवीय उपक्रमों के जरिये इस छिपे हुए दुश्मन पर  विजय प्राप्त करने के लिए केरल की मार्क्सवादी पार्टी की सरकार के मुख्यमन्त्री पी. विजयन के तौर-तरीकों को लागू करने से नहीं चूकते और विजयन उत्तर प्रदेश के माडल को सही मानते हैं। ठीक तीसरी तरफ प. बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी कोरोना का मुकाबला करने के लिए शुरू से ही एक तरफ सख्त कदम उठा कर संदिग्ध रोगियों को कड़े एकान्तवास में भेजती हैं और दूसरी तरफ लाॅकडाऊन का मानवीय रुख बनाये रखने का प्रयास करती हैं जिससे उनके प्रदेश में प्रवासी कामगार व मजदूर आराम से जीवन जी सकें। हालांकि उनकी सरकार पर कम कोरोना परीक्षण करने के आरोप लगते हैं मगर उनका जवाब होता है कि परीक्षण उपकरण या किट देना केन्द्र के जिम्मे है और जब ये पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हो जायेंगे तो जांच का काम भी तेज हो जायेगा परन्तु अभी तक इस राज्य में कोरोना नियन्त्रण में है। वैसे एक बात स्वीकार करनी पड़ेगी कि सबसे पहले ममता दीदी ने ही कोरोना को महामारी घोषित करने की मांग की थी। खुशी की बात यह है कि चाहे केरल हो या उत्तर प्रदेश अथवा प. बंगाल तीनों ही राज्यों ने निरपेक्ष भाव से प्रत्येक नागरिक को आश्वस्त किया कि इस युद्ध में वह केवल आदमी है हिन्दू या मुसलमान नहीं, इसके साथ ही तीनों ही राज्यों ने लाॅकडाऊन से बुरी तरह प्रभावित होने वाली गरीब जनता के सुख की सुध अपना चैन गंवा कर भी ली। इस मामले में योगी आदित्यनाथ ने तो कमाल कर दिया जिन्होंने एक रेहड़ी-पटरी वाले या खोमचे वाले से लेकर लुहार, सुनार, बढ़ई, तेली, गडरिये, कमलिये  और कुम्हार, कहार तक को आर्थिक मदद स्कीमों में शामिल कर लिया और गरीब किसानों को सम्मान निधि की किश्त पेशगी ही दे दी। उत्तर प्रदेश में चूंकि जाति-बिरादरी का बोलबोला है। अतः इस राज्य में गरीबी की पहचान कहीं जाति से तो कहीं पेशे से होती है जबकि केरल व प. बंगाल में सामाजिक स्थिति दूसरी है। प. बंगाल में गरीबों के लिए चिकित्सा का ढांचा अपेक्षाकृत बहुत मजबूत है जिसमें ममतादी ने पिछले पांच सालों में क्रान्तिकारी बदलाव भी किया है। इस हकीकत को स्वीकार किया जाना चाहिए और राजनीति इसमें आड़े नहीं आनी चाहिए। इसी प्रकार योगी आदित्यनाथ ने कोरोना की आहट होने के साथ ही राज्य के चिकित्सा ढांचे को बदल कर रख दिया है और इस वायरस से निपटने के लिए त्रिस्तरीय अस्पताल तन्त्र खड़ा कर दिया है।  इस राज्य में तबलीगी जमातियों ने हालांकि समस्या को बहुत पेचीदा बनाने का प्रयास किया मगर योगी जी के सख्त रवैये ने इसे भी सुलझाने में समय नहीं लगाया। दरअसल योगी जी जिस गोरखनाथ मठ के महन्त हैं उसका लक्ष्य भी मानवता की सेवा ही रहा है और समाज के दबे-कुचले लोगों को आत्मनिर्भर बनाना इसका मन्त्र रहा है। इसी प्रकार केरल की कम्युनिस्ट पार्टी की विजयन सरकार का सिद्धान्त भी लोगों को स्वावलम्बी बनाने का है जिससे वे आत्म सम्मान के साथ किसी भी क्षेत्र में जीविकोपार्जन कर सकें। इस राज्य में कोरोना को रोकने के लिए सख्ती भी की गई और लोगों का सहयोग भी लिया गया। किसी रोगी के पाये जाने पर आसपास के क्षेत्र को अलग-थलग करके वायरस पर नियन्त्रण पाना इसका गुर रहा। उत्तर प्रदेश में योगी जी ने भी इसी फार्मूले पर काम किया और प. बगाल में ममतादी ने तो अपने राज्य में इसे पहले ही अनिष्टकारी संक्रमण घोषित कर दिया।
 बेशक पंजाब और राजस्थान में भी यही नीति अपनाई गई।  अतः साफ तौर पर नजर आ रहा है कि कोरोना का मुकाबला करने में कहीं कोई राजनीति नहीं है मगर अचानक महाराष्ट्र में क्या हुआ कि लाॅकडाऊन बढ़ने के अगले दिन ही हजारों प्रवासी मजदूर अपने राज्यों में जाने के लिए रेलवे स्टेशनों की तरफ निकल पड़े और एक मस्जिद के सामने मुम्बई में भीड़ लग गई? ऐसा क्यों हुआ जबकि पिछले 21 दिन से ये कामगार शान्त थे। ध्यान रखा जाना चाहिए कि कानून-व्यवस्था राज्यों का विशिष्ट विषय है। राज्य सरकार को अपनी जिम्मेदारी का अहसास इस सिलसिले में पूरी तरह होना चाहिए। जब महाराष्ट्र सरकार नवी मुम्बई में दिल्ली की तरह होने वाले तबलीगी जमात के इज्तमा को रद्द करने का श्रेय ले सकती है तो सड़कों पर निकले हजारों कामगारों का अपयश भी उसे लेना होगा बर्ना स्वीकार करना होगा कि उसकी तरफ से कामगारों की देखभाल में कोई कमी रह गई है?  हमें केवल यही तो बताना है कि हम हिन्दोस्तान के एक राज्य की जिम्मेदार सरकार हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com­

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