लोकतन्त्र का अपराधीकरण? - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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लोकतन्त्र का अपराधीकरण?

राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण की तरफ सर्वोच्च न्यायालय ने जो ध्यान दिलाया है उसका स्वागत तो किया जाना चाहिए परन्तु यह मूल समस्या का समाधान नहीं है।

राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण की तरफ सर्वोच्च न्यायालय ने जो ध्यान दिलाया है उसका स्वागत तो किया जाना चाहिए परन्तु यह मूल समस्या का समाधान नहीं है। मूल समस्या राजनैतिक दलों के साथ है जिनका लक्ष्य जन सेवा के स्थान पर सत्ता में आने की खातिर दल व धन सेवा बन चुका है जिसकी वजह से राजनीति लगातार व्यापार या तिजारत में तब्दील होती जा रही है। 
भारतीय लोकतन्त्र में धन शक्ति का प्रभाव अपराधियों की बढ़ती हिस्सेदारी से भी ज्यादा खतरनाक है जो चुनावी प्रक्रिया से प्रतिभाशाली व सुयोग्य नागरिकों को बाहर रखने का प्रमुख कारण बन चुकी है। समाज व देश को समर्पित साधारण आय वाले राजनैतिक कार्यकर्ताओं पर स्वयं राजनैतिक दल ही राजनैतिक चोगा ओढ़ने वाले बाहुबलि व धन्ना सेठ लोगों को वरीयता देते हैं और उन्हें अपना प्रत्याशी बना देते हैं इसके साथ अपराधीकरण बढ़ने का प्रमुख कारण जातिवादी व सम्प्रदायवादी राजनीति भी है। 
पिछले लगभग 25 सालों से इस तर्ज पर चलती राजनीति ने विभिन्न दलों को जातिवादी समूहों के कबीलों में परिवर्तित करके अपने सम्प्रदाय या समुदाय में नायकत्व प्राप्त करने के लिए मुखालिफ कबीलों को पस्त करने की रणनीति में हिंसा व अपराध को जिस तरह अपना औजार बनाया है उसके नतीजे में ऐसे लोगों को ही समाज में नायक बना कर प्रस्तुत किया जाने लगा। इसका सबसे बड़ा प्रमाण मरहूम दस्यु सुन्दरी फूलन देवी का है जो 1996 और 1999 के लोकसभा चुनावों में दो बार उत्तर प्रदेश की मिर्जापुर सीट से समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीतीं। 
राजनीति में अपराध की दुन्दभि थी जिसे बजाने का दुस्साहस श्री मुलायम सिंह यादव ने इसलिए किया था क्योंकि फूलन देवी एक विशेष वर्ग के खिलाफ इन्तकाम लेने का प्रतीक बन चुकी थीं परन्तु बिहार जैसे राज्य में बाहुबलियों ने राजनीति में अपनी धाक इससे भी पहले से जमानी शुरू कर दी थी परन्तु वह इतने ‘वीर भाव’ से नहीं थी। 
इसके साथ ही साम्प्रदायिक आधार पर भी एक-दूसरे सम्प्रदाय के खिलाफ किये गये अपराधों से भी  नायकत्व भाव को उभारा गया जिससे अपराधी प्रवृत्ति व भूमिका वाले प्रत्याशियों को राजनैतिक दलों ने अपनी विजय संभावनाएं देखते हुए उन्हें गले लगाने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई जिसकी वजह से आज की लोकसभा में 43 प्रतिशत सांसद ऐसे हैं जिनके खिलाफ विभिन्न आपराधिक मामले लम्बित हैं, सबसे ज्यादा बिहार में जनता दल के 16 में से 13 सांसद हैं जिनके खिलाफ गंभीर अपराधों में मुकदमे चल रहे हैं परन्तु यह समस्या का केवल एक पहलू है दूसरा पहलू बहुत गंभीर है जिसकी तरफ सर्वोच्च न्यायालय ने ध्यान दिलाया है और अपने फैसले में लिखा है कि इस समस्या से निजात पाने के लिए स्वयं संसद को ही ऐसा कानून बनाना चाहिए जिससे आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग राजनीति में आने से दूर रहे।
बेशक राजनीति में संभावित प्रत्याशियों के खिलाफ उनके मुखालिफ लोग फर्जी मुकदमे भी दर्ज कराते हैं जिनका निराकरण करने के लिए भी राजनैतिक दलों को आगे आकर संसद में इस तरह का कानून बनाना पड़ेगा जिससे फर्जी मुकदमों की तसदीक करने में अधिक समय न लग सके। 
सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को प्रत्याशी बनाये जाने के 48 घंटे के भीतर उसका विवरण मीडिया में प्रचारित किया जाये और 72 घंटे के भीतर चुनाव आयोग को इसकी जानकारी दी जाये। इसका प्रचार सोशल मीडिया पर भी होना चाहिए, जिसके न होने पर चुनाव आयोग सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकता है परन्तु सवाल यह है कि इससे राजनीतिक दलों पर क्या असर पड़ेगा ? सवाल तो मूलतः राजनीति का चरित्र बदलने का है, यह चरित्र तब बदलेगा जब राजनीतिक दल अपना चरित्र बदलेंगे। यह चरित्र वे तब तक नहीं बदल सकते जब तक कि समूची चुनाव प्रणाली में ही आमूल-चूल परिवर्तन न किया जाये। 
इसका बीड़ा उठाने को कोई भी पार्टी तैयार नहीं है क्योंकि ऐसा होते ही राजनीति में धन का वर्चस्व समाप्त होने का खतरा पैदा हो जायेगा। पिछले 25 वर्षों में पैदा हुई चुनाव संस्कृति ने आम आदमी को लोकतन्त्र में भागीदार बनाने के बजाय मूक दर्शक बना दिया है। 
युवा पीढ़ी के राजनीति से विमुख होने का एक बड़ा कारण यह भी है, जबकि हकीकत यह है कि उसका पूरा भविष्य राजनीति ही तय करेगी। बच्चे के जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन सम्बन्धी सभी निर्णय राजनीति से प्रेरित ही होते हैं जिनमें शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य व रोजगार तक सभी आते हैं। हैरत की बात यह होती जा रही है कि युवा पीढ़ी का भविष्य तय करने के लिए जरूरी कानून बनाने का काम आज की राजनीति उन लोगों पर छोड़ रही है जिन पर स्वयं कानून तोड़ने के आरोप लगे होते हैं। 
बेशक ये 43 प्रतिशत ही हैं मगर यह संख्या कम नहीं है। इसलिए जरूरी है कि राजनीति का चरित्र बदला जाये और चुनाव सुधारों की तरफ विशिष्ट रूप से ध्यान दिया जाये। क्योंकि राज्यों की विधानसभाओं में तो स्थिति और भी भयावह है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश केवल आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों से चुनाव से पहले पर्दा हटा सकते हैं, उन्हें चुनाव में खड़ा होने से तो नहीं रोक सकते।

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