सुप्रीम कोर्ट द्वारा समान नागरिक संहिता को लेकर की गई टिप्पणी के बाद देश में एक बार फिर इसे लेकर बहस छिड़ गई है। फिलहाल देश के हर धर्म के लोग शादी, तलाक और जमीन-जायदाद जैसे मामलों का निपटारा अपने-अपने पर्सनल लॉ के मुताबिक करते हैं। मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय के अपने पर्सनल लॉ हैं, जबकि हिन्दू सिविल लॉ के तहत हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं। हैरानी की बात तो यह है कि समान नागरिक संहिता गोवा में 1956 से ही लागू है लेकिन देश के किसी और राज्य में इसे लागू करने का प्रयास ही नहीं किया गया।
अब जबकि ट्रिपल तलाक को खत्म किया जा चुका है, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35-ए को खत्म किया जा चुका है तो देश में समान नागरिक संहिता लागू क्यों नहीं हाे सकती। इतिहास बताता है कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने 1951 में प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से कहा था कि हिन्दू लॉ को कानून में पिरोने का अर्थ सिर्फ एक समुदाय को ही कानूनी दखलंदाजी के लिए चुनना होगा। अगर मौजूदा कानून अपर्याप्त और आपत्तिजनक है तो सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता क्यों नहीं लागू की जाती।
हिन्दू लॉ को लेकर उस समय राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू के बीच काफी टकराव हुआ था, दोनों में पत्राचार भी हुआ था। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल ही में दिए एक फैसले में कहा है कि संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति-निर्देशक तत्व में इस उम्मीद से अनुच्छेद 44 जोड़ा था कि सरकार देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करेगी लेकिन आज तक इस दिशा में कोई प्रयास नहीं हुआ। डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने तो बिल को मेरिट पर परखने की बात कह डाली थी। तब पंडित नेहरू ने उनकी बात को गम्भीर मुद्दा बताते हुए कहा था कि संसद द्वारा पारित बिल के खिलाफ जाने का राष्ट्रपति के पास कोई अधिकार नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता बनाने के संबंध में अप्रैल 1985 में पहली बार सुझाव दिया था। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश वाई.बी. चन्द्रचूड की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने तलाक और गुजारा भत्ता जैसे महिलाओं से जुड़े मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में देश में समान नागरिक संहिता बनाने पर विचार करने को कहा था। समान नागरिक संहिता भाजपा का शुरू से ही चुनावी मुद्दा रहा है। उम्मीद है कि नरेन्द्र मोदी सरकार जल्द ही इस संबंध में कदम उठाएगी। धर्म और आजादी को लेकर हर किसी का अपना-अपना एक अलग मंतव्य होता है, चाहे वो किसी भी तरह का मुद्दा हो- शादी, तलाक या जायदाद, हर विषय में धर्म के ठेकेदारों ने अपने हिसाब से कानून बना रखे हैं। हर धर्म व जाति के लोगों ने पर्सनल लॉ बना रखे हैं, जिनका दुरुपयोग भी जमकर हो रहा है। वोट बैंक की राजनीति के चलते कांग्रेस ने तो शुरू से ही इस कानून को लागू करने से अपने हाथ खींच लिए थे।
मुस्लिम समुदाय समान नागरिक संहिता बनाने का विरोधी रहा है। उन्हें डर है कि इस कानून के जरिये सभी धर्मों पर हिन्दू धर्म के कानून को जबरन लागू करने का प्रयास किया जाएगा। यह समझ से परे है कि मुस्लिम समुदाय को ऐसा क्यों लगता है, जबकि उनको धर्मनिरपेक्ष राज्य में रहने व खुली आजादी देने की सरकार हर सम्भव कोशिश कर रही है। कई देशों में समान नागरिक संहिता लागू है। इस कानून के जरिये एक देश में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक कानून होगा। इसके तहत बनाए गए नियमों का पालन हर नागरिक को करना होगा चाहे वह किसी समुदाय या जाति का हो। समान नागरिक संहिता लागू होने से कई बदलाव होंगे। इसके लागू होने पर अत्याचार होना कम होगा और एकता की भावना बढ़ेगी। धर्म के ठेकेदारों की मनमानी नहीं चलेगी। इस कानून के लागू हो जाने से न्यायपालिकाओं पर दबाव कम होगा जो कि अलग-अलग पर्सनल लॉ होने से काफी बढ़ा हुआ है। न्यायालयों में पड़े सालों पुराने मामलों का निपटारा हो जाएगा।
जहां तक विरोध का सवाल है, जब 1956 में हिन्दू लॉ बनाया गया था तो हिन्दुत्ववादी संगठनों ने उसका विरोध किया था। अब जैसे ही एक राष्ट्र, एक कानून की बात शुरू होती है तो मुस्लिम, पारसी विरोध करने लगते हैं। यहां हर किसी को धार्मिक स्वतंत्रता है लेकिन हजारों वर्ष पुराने नियमों को आँख मींचकर मानना उचित नहीं। हिन्दू धर्म में भी कई कुरीतियां रहीं, जैसे बाल विवाह, सती प्रथा आदि। वह आज देखने को नहीं मिलती। आज के दौर में अनैतिक और अव्यावहारिक कुप्रथाओं का बोझ लेकर नहीं चला जा सकता है। इसलिए जरूरी है कि समान नागरिक संहिता को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए और इस पर सर्वसम्मति बनाकर संसद में पारित कर देना चाहिए। सभी धर्मों के लोगों को विश्वास दिलाया जाए कि इससे उनके धर्म की मूल भावना को कोई चोट नहीं पहुंचेगी।