जिस किसी ने भी मानव योनि में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है। जब तक सांस तब तक आस पुरानी कहावत है। कहते हैं जीवन और मृत्यु का दिन निश्चित होता है। भौतिक संसार को हर किसी ने एक दिन अलविदा कहना है लेकिन असाध्य बीमारियों से पीड़ित ऐसे लोग भी हैं जो जिन्दा होकर भी निर्जीव हैं, उनके लिए यातना भरी जिन्दगी से निजात पाना आसान नहीं है। इच्छा मृत्यु को लेकर देशभर में लम्बी बहस हुई। इच्छा मृत्यु के पक्ष में तर्क देने वाले तो महाभारत काल में भीष्म पितामह, माता सीता, राम आैर लक्ष्मण, आचार्य विनोबा भावे द्वारा इच्छा मृत्यु के वरण का उदाहरण देते रहे हैं।
जैन मुनियों और जैन धर्मावलम्बियों में संथारा की प्रथा भी इच्छा मृत्यु का ही एक प्रकार है। लम्बी कशमकश के बाद सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथनेसिया की इजाजत दे दी है और खास परिस्थितियों में लिविंग विल यानी इच्छा मृत्यु को भी कानूनी मान्यता मिल गई है। इसका मतलब यह नहीं कि कोई भी व्यक्ति इच्छा मृत्यु की मांग कर सकता है लेकिन शीर्ष अदालत ने विशेष परिस्थिति में सम्मानजनक मौत को व्यक्ति का अधिकार माना है। इस फैसले ने चिकित्सा विज्ञान, धर्म, नैतिकता और समाज विज्ञान के दृष्टिकोण से बड़े सवालों को जन्म दे दिया है। इच्छा मृत्यु का मुद्दा अरुणा शानबाग के मामले में उठा था।
यौन उत्पीड़न के बाद जिन्दा लाश में बदली अरुणा शानबाग मुम्बई के किंग एडवर्ड मैमोरियल अस्पताल के कमरे में बरसों पड़ी रही। अस्पताल के स्टाफ ने अरुणा शानबाग की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी। वहां किसी भी कर्मचारी की नियुक्ति की जाती तो उसे सबसे पहले अरुणा के कमरे में ले जाया जाता और उसे बताया जाता कि यही वो अरुणा है, जो इस अस्पताल की संस्कार है। शारीरिक रूप से निष्क्रिय अरुणा शानबाग के लिए इच्छा मृत्यु की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए ऐतिहासिक फैसले में न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने दुनियाभर की कानूनी अवधारणाओं के साथ गीता, कुरान अैर उपनिषदों की शिक्षाओं को पेश किया जिसमें जिन्दगी आैर मौत काे परिभाषित करने की कोशिश की गई थी।
उन्होंने गालिब की मशहूर गजल का भी जिक्र किया जिसमें मौत की चर्चा की गई है-मौत का दिन मुअय्यन है, नींद रात भर क्यों नहीं आती। सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा शानबाग की इच्छा मृत्यु की याचिका तो ठुकरा दी थी परन्तु चुनिंदा मामले में कोर्ट ने पैसिव यूथनेसिया (कानूनी तौर पर लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाए जाने) की इजाजत दी थी। कोर्ट ने यहां तक कहा था कि 37 वर्षों से कोमा में पड़ी अरुणा शानबाग को यह अधिकार मिलना चाहिए था क्योंकि इच्छा मृत्यु की याचिका अरुणा के परिवार वालों ने नहीं बल्कि उसकी दोस्त पिंकी वीरानी ने दी थी, लिहाजा उसे यह अधिकार नहीं दिया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से असाध्य बीमारियों से पीड़ित लोगों को यातना भरी जिन्दगी से निजात पाना आसान हो जाएगा। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि जब कोई मरीज स्वयं होश में हो, मृत्यु की इच्छा जताए आैैर लाइफ स्पोर्ट सिस्टम हटवाने के लिए तैयार हो, ऐसी स्थिति में डाक्टर और परिजन उसका फैसला मान सकते हैं। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि मरीज होश में न हो लेकिन उसने पहले ही ऐसी परिस्थिति के लिए इच्छा मृत्यु की वसीयत कर रखी हो। तीसरी स्थिति यह हो सकती है कि मरीज न तो स्वयं होश में हो और न ही उसने इच्छा मृत्यु की वसीयत कर रखी हो। तब डाक्टर आैर परिजन तय प्रक्रिया के तहत उसके लिए पैसिव यूथनेसिया की मांग कर सकते हैं। स्थिति कोई भी हो सिर्फ पैसिव यूथनेसिया यानि लाइफ स्पोर्ट हटाने की इजाजत होगी, एक्टिव यूथनेसिया यानि मृत्यु को संभव बनाने के लिए किसी तरह की दवा या उपकरण का प्रयोग करने की इजाजत नहीं होगी।
यद्यपि यह फैसला उन लोगों आैैर उनके परिजनों के लिए बड़ी राहत के तौर पर देखा जा रहा है, जो जिन्दा लाश की तरह महीनों अस्पताल में पड़े मौत का इंतजार करते रहते हैं। अस्पतालों का बिल बढ़ता रहता है और बचने की कोई संभावना नहीं रहती। इस फैसले के बाद इच्छा मृत्यु पर नए सिरे से बहस शुरू हो गई है। लोग तरह-तरह की परिस्थितियों का हवाला दे रहे हैं। ऐसे फैसलों पर समाज और संसद में मंथन होना ही चाहिए। समाज शािस्त्रयों को आशंका है कि अगर ऐसा कोई कानून बनता है तो इसका दुरुपयोग भी निश्चित है। जब एक बेटा अपनी मां को फ्लैट की छत पर ले जाकर धक्का देकर मार सकता है तो फिर समाज में ऐसे कानून के दुरुपयोग को कैसे रोका जा सकता है। सवाल तो बनते ही हैं, कोई इच्छा मृत्यु का पात्र है या नहीं यह तय करने का तरीका कितना वैज्ञानिक होगा।
130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश के बड़े हिस्से में स्वास्थ्य की सुविधाएं अब भी नहीं मिल पाईं, लोग उपचार के अभाव में एड़ियां रगड़-रगड़ कर थक जाते हैं। एम्स जैसे अस्पतालों में आप्रेशन की तारीख मिलना भी दूभर है, नामीगिरामी अस्पताल लूट का अड्डा बन चुके हैं। क्या इच्छा मृत्यु की अर्जियां निपटाने के लिए सरकार कोई कारगर सिस्टम बना पाएगी? इस फैसले के गलत इस्तेमाल को रोकना आसान होगा क्या? जिस समाज में इंसानी रिश्ते लगभग खत्म होने के कगार पर हों, मानवीय संवेदनाएं समाप्त हो चुकी हों, दया और सहिष्णुता के अभाव में मानवता कहीं नज़र नहीं आ रही हो, ऐसे में रिश्तों की परवाह कौन करेगा। इस फैसले पर सामाजिक चिन्तन होना ही चाहिए।