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कैराना और ईवीएम मशीन!

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सोमवार को चार लोकसभा व दस विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनावों में सबसे बड़ा सवाल ईवीएम मशीनों का उभर कर आया है। यह एेसा प्रश्न है जिसका सीधा सम्बन्ध भारत की लोकतान्त्रिक प्रणाली की उस बुनियाद से जुड़ा हुआ है जिससे आम मतदाता को अपनी पसन्द की सरकार चुनने का अधिकार मिलता है। यदि इसी प्रणाली पर शक पैदा हो जाता है तो वह पूरी संवैधानिक व्यवस्था खतरे में पड़ जाती है जिससे इस समूचे देश का प्रशासन चलता है। यह बेवजह नहीं है कि जब बाबा साहेब अम्बेडकर ने भारत के लोगों की सहमति से संविधान सौंपा था तो स्पष्ट रूप से कहा था कि इस देश को चलाने वाले चार प्रमुख स्तम्भ विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और चुनाव आयोग होंगे अतः इनमें से किसी एक की विश्वसनीयता पर भी यदि संकट आता है तो पूरी व्यवस्था डगमगाने लगती है, परन्तु इन चारों में भी चुनाव आयोग वह केन्द्रीय स्तम्भ है जो बाकी तीनों स्तम्भों के लिए रास्ता बनाता है या एक प्रकार से हम कह सकते हैं कि लोकतन्त्र के पेड़ की जड़ की तरह काम करता है। यदि इस जड़ में ही दीमक लगने का अन्देशा पैदा हो जाएगा तो शेष तीन स्तम्भों का आकार स्वतः ही विद्रूप हो जायेगा क्योंकि बाकी तीनों खम्भों का निर्माण चुनाव आयोग द्वारा स्थापित मतदान प्रणाली से उपजे परिणामों के प्रभावों से ही आकार लेगा।

अतः मोटी भाषा में यह सबसे पहले समझा जाना चाहिए कि चुनाव आयोग कोई खाली जरूरत पैदा होने पर मतदान कराने का कार्यालय भर नहीं है बल्कि भारत के समूचे लोकतन्त्र को अपने कन्धों पर ढोने वाली स्वतन्त्र संवैधानिक संस्था है। उत्तर प्रदेश के ‘कैराना’ व महाराष्ट्र के ‘गोदिया ’ लोकसभा उपचुनाव में जिस तादाद में ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी या खराबी आने की खबरें मिली हैं उससे चुनाव आयोग को गंभीरता से विचार करना होगा कि अब वक्त आ गया है कि भारत पुरानी ‘बैलेट पेपर’ की मार्फत मतदान कराने की प्रणाली पर लौट जाए। ईवीएम की जिद पर अड़कर वह अपनी उस विश्वसनीयता को गंवाने की गलती कर बैठेगा जिसकी कस्में खाने में दुनिया भर के लोकतान्त्रिक देश गुरेज नहीं करते हैं। उसका यह फैसला सभी राजनैतिक दलों की शंकाओं का एक समान से निवारण करेगा क्योंकि इसमें मतदाता और मत के बीच कोई तीसरा माध्यम भौतिक रूप से नहीं आयेगा।

टैक्नोलोजी उन्नयन या इसके प्रयोग का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि हम उस विश्वास को तोड़ने का जोखिम उठाने की हिम्मत करें, जो भारत के लोकतन्त्र को विश्वसनीयता देता है। गौर से देखा जाये तो यह मसला राजनैतिक दलों और चुनाव आयोग के बीच का नहीं है बल्कि मतदाताओं और चुनाव आयोग के बीच का है। ये मतदाता ही होते हैं जिन्हें चुनाव आयोग पर पूरा भरोसा होता है कि वह उनके द्वारा दिये गये मत की गोपनीयता को सुरक्षित रखते हुए न्यायपूर्ण ढंग से परिणामों की घोषणा करेगा। यही वजह है कि चुनाव होते समय सारी सरकारी मशीनरी चुनाव आयोग के नियन्त्रण में आ जाती है जिससे प्रत्येक मतदाता को निर्भय या बिना लालच के मत देने के अधिकार का संरक्षण हो सके और प्रत्येक चुनावी प्रत्याशी के लिए एक समान अवसर पैदा किया जा सके। चुनावों से पहले आदर्श आचार संहिता लागू करके आयोग यही वातावरण बनाता है मगर बदलती सूचना टैक्नोलोजी ने इस मामले में भी नई चुनौतियां पैदा कर दी हैं। टीवी चैनलों के इस दौर में कई चरणों में पूरा होने वाले चुनावों में यह संकट पैदा हो रहा है कि किस प्रकार चुनावी प्रचार को आचार संहिता की नियमावली के अनुरूप बनाया जाए। इसका जिक्र विस्तार से फिर कभी करूंगा मगर आज असली सवाल 14 उपचुनावों को लेकर है और उनमें भी खासकर कैराना व गोदिया लोकसभा उपचुनाव को लेकर। इन दोनों ही स्थानों पर सत्तारूढ़ पार्टी व विपक्ष की साख दांव पर लगी हुई है।

बिना शक चुनाव आयोग का इससे कोई लेना-देना नहीं है मगर उसके द्वारा लागू मतदान प्रणाली का स्पष्ट रूप से लेना-देना है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि राजनैतिक दलों की विश्वसनीयता वर्तमान राजनैतिक माहौल में स्वयं भारी सन्देह के घेरे में है मगर इसमें ईवीएम मशीनें यदि और इजाफा करती हैं तो चुनाव आयोग अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग सकता। देश का राजनैतिक वातावरण कैसा बनेगा इससे चुनाव आयोग को कोई मतलब नहीं होता है मगर इस बात से गहरा मतलब होता है कि प्रत्येक राजनैतिक दल में उसकी न्यायपूर्ण व स्वतन्त्र भूमिका के प्रति अटूट विश्वास हो। इसमें अगर कहीं कमी आती है तो उसका असर भारत के मतदाता के आत्मविश्वास पर पड़े बिना नहीं रह सकता क्योंकि वह सोचता है कि उसने जिस प्रत्याशी को मत दिया है वह ‘अपरिवर्तनीय’ है और इसी बात की गारंटी तो भारत का संविधान उसे देता है और कहता है कि उसका यह अधिकार चुनाव आयोग की देखरेख में पूरी तरह संरक्षित है।

अतः ईवीएम मशीन के प्रयोग का सवाल केवल टैक्नोलोजी प्रयोग करने की शेखी बघारने का नहीं है बल्कि लोकतन्त्र की उस आत्मा को जीवन्त बनाये रखने का है जो मतदाताओं को अधिकाधिक वोट डालने के लिए भी प्रेरित करती है और सत्ता में भागीदारी करने का पैगाम देती है। कैराना और पालघर में जो हुआ है उसे आने वाले तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों और 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों की झांकी के तौर पर भी पेश करने से राजनैतिक दल नहीं चूकेंगे। भारत के लोकतन्त्र में यह फिकरा कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है कि यहां केवल प्रत्याशी ही नहीं बल्कि ईवीएम मशीन भी चुनाव लड़ती है। अतः चुनाव आयोग के लिए अभी बहुत वक्त है कि वह अपनी भूमिका को किसी भी विवाद से परे रखने के उपाय करे। इसमें बीच में न कहीं सरकार आती है और न राजनैतिक दल या न्यायालय। यह मामला तो मतदाता और आयोग के बीच का है।

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