मियां-बीवी राजी तो क्या करेगा काजी और चट मंगनी पट ब्याह। यह मुहावरे सैकड़ों वर्षों से समाज में प्रचलित हैं यानि लड़का-लड़की शादी को तैयार हैं तो फिर किसी तीसरे पक्ष की जरूरत नहीं लेकिन बदलते दौर में बहुत कुछ बदला है। वैसे तो भारत का नाम दुनिया में सबसे कम तलाक वाले देशों में शुमार है। यहां हर 100 में से कोई एक जोड़ा ही तलाक लेता है। अधिकतर मामलों में आपसी सहमति से तलाक होता है। जिनमें पेच फंसता है वह अदालतों के दरवाजे पर पहुंचते हैं। देश की अदालतों ने समय-समय पर तलाक से जुड़े अहम फैसले और व्यवस्थाएं दी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को जल्द तलाक का फैसला सुनाकर अदालतों को एक नया रास्ता दिखाया है। शीर्ष अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने अहम फैसले में कहा है कि अगर किसी विवाह को बचाना संभव नहीं है और सुलह की कोई गुंजाइश नहीं बची तो वह आर्टिकल 142 के तहत अपने अधिकार का प्रयोग कर के दोनों पक्षों की सहमति से सीधे तलाक की अनुमति दे सकता है। इसके लिए संबंधित पक्षों के परिवारिक अदालतों में 6 से 18 महीने तक सहमति से तलाक लेने के लिए इंतजार करने की आवश्यकता नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह फैसला 2014 के एक मामले में सुनाया। इसमें शिल्पा शैलेष बनाम अरुण श्रीनिवासन की ओर से भारतीय संविधान की धारा 142 के तहत सर्वोच्च अदालत से तलाक का आदेश मांगा गया था। पिछली सुनवाई में न्यायालय ने फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा था कि सामाजिक बदलाव होने में थोड़ा समय लगता है। कभी-कभी कानून लाना आसान होता है लेकिन इसके साथ बदलने के लिए समाज को मनाना मुश्किल होता है। सुप्रीम कोर्ट ने भारत में विवाह में परिवार की बड़ी भूमिका निभाने की बात स्वीकार की थी। संविधान का अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय के समक्ष लंबित किसी विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए शीर्ष न्यायालय के आदेशों को लागू किये जाने से संबद्ध है। शीर्ष अदालत इस विषय पर भी विचार कर रही थी कि अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त उसकी असीम शक्तियां क्या किसी भी तरह से एक ऐसी परिस्थिति में बाधित होती हैं जब अदालत के अनुसार विवाह विच्छेद तो हो जाता है लेकिन एक पक्ष तलाक का प्रतिरोध करता है। यहां दो सवाल उठते हैं जो पूर्व में संविधान पीठ के पास भेजे गए थे। इसमें यह शामिल है कि क्या अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस तरह के अधिकार क्षेत्र का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए या इस तरह के कार्य को प्रत्येक मामले में तथ्यों के आधार पर निर्धारित करने के लिए छोड़ देना चाहिये।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि जब पति-पत्नी दोनों ही तलाक के लिए राजी हैं तो फिर दोनों पक्षों को तकलीफ में छोड़ना व्यर्थ है। इस के साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के लिए गाइड लाइन्स भी तय कर दी है। बदलते दौर में यह बदलाव जरूरी भी है। व्यभिचार, धर्मांतरण, परित्याग और पागलपन जैसे कारणों के लिए तलाक लेने के लिए आखिर लम्बा इंतजार क्यों किया जाए। किसी भी पक्ष से करूरता नहीं होनी चाहिए। ऐसे में विवाह या तलाक से जुड़े कानूनों को उदार बनाया जाना जरूरी है। अक्सर देखा जाता है कि तलाक के लिए दोनों पक्षों को प्रताड़ना और मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। तलाक के लिए 6 से 18 महीने के इंतजार के दौरान एक-एक पल दोनों पक्षों को बोझ के समान लगता है। समाज में अक्सर देखने को मिलता है कि प्रभावशाली परिवार चाहे वह वर पक्ष से हो या वधू पक्ष से एक-दूसरे को प्रताड़ित करने, धमकियां देने या दबाव डालने से परहेज नहीं करते। आर्थिक रूप से कमजोर परिवार जटिल कानूनी प्रक्रिया के चलते घुटने टेकने को मजबूर हो जाते हैं। अदालत ने फैसला सुनाकर तलाक लेने की प्रक्रिया को सरल बनाने का काम किया है ताकि किसी भी पक्ष को मानसिक रूप से पीड़ा से न गुजरना पड़े।
शीर्ष अदालत ने यह भी साफ कर दिया है कि वह अनुच्छेद 142 के तहत ऐसे मामले में भी विवाह को भंग कर सकती है जहां एक पक्ष तलाक के लिए सहमत नहीं है। किसी भी हालत में तलाक देने के लिए अदालत अपने विवेक से फैसला ले सकती है। यह वास्तविकता है कि हिन्दू धर्म में विवाह को पवित्र, संस्कार का स्वरूप माना गया है और तलाक की कोई व्यवस्था ही नहीं है लेकिन ऐसे मामले भी देखे गए जिसमें दो दशक से पति-पत्नी तलाक की कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे। शादी को 15 दिन भी नहीं बीते थे कि दोनों तरफ से मुकद्दमेबाजी शुरू हो गई। तलाक के लिए दो दशक तक कानूनी लड़ाई एक क्रूरता है। शादी की शुरुआत में ही जब आपसी संबंध खत्म हो गए और टेक ऑफ के समय ही क्रैश लैंडिंग हो गई तो दो दशक तक मुकद्दमे का कोई औचित्य नहीं था। ऐसे ही केस में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक की अनुमति दे दी थी। अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के आधार तय कर दिए हैं इससे उन सभी पक्षों को राहत मिलेगी जो केसों में उलझे हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के एक मामले पर टिप्पणी की थी कि भारत में शादी कोई आकस्मिक घटना नहीं है। हम आज शादी और कल तलाक के पश्चिमी मानकों तक नहीं पहुंचे हैं। समाज को भी शादी को बचाने के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे साथ ही अगर कोई संभावना नहीं बची तो फिर उदार कानून का सहारा लेना चाहिए।