चारों तरफ से भारत की सीमाओं को घेरे हुए चीन यदि नेपाल को भी अपने कन्धे पर बैठा कर लद्दाख व सिक्किम के सीमावर्ती इलाकों में भारत के नियन्त्रित क्षेत्रों में अपने तम्बू गाड़ कर काराकोरम दर्रे तक जाने वाली ‘दारबुक-श्योक- दौलतबेग ओल्डी’ भारतीय रणनीतिक सड़क के निकट तक अपनी सड़क बनाने की हिमाकत करता है तो इसका जवाब केवल कूटनीतिक माध्यमों से ढूंढने की कोशिशें नाकाफी मानी जायेंगी। चीन के कब्जे में भारत का 40 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का भू-भाग 1962 के युद्ध के बाद से ही है और 2020 में भी वह अपनी विस्तारवादी भूख को कम नहीं कर पा रहा है, साथ ही दूसरी तरफ उसने नेपाल को भी अपनी गोद में बैठा कर ‘लिपुलेक-कालापानी- लिम्पियाधारा’ इलाके को भारत-नेपाल के बीच विवादास्पद बनाने की ठान ली है। नेपाल को नहीं भूलना चाहिए कि कभी उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा का जिम्मेदार भारत ही रहा है और यह इलाका भारत- नेपाल व चीन तीनों का त्रिकोणीय सीमा क्षेत्र है और भारत के भू-भाग में रहा है। नेपाल यदि कहता है कि 1960 तक वह इस क्षेत्र से राजस्व वसूली करता रहा है और 1962 में प. जवाहर लाल नेहरू के कहने पर उसके तत्कालीन शासक महाराजाधिराज महेन्द्र वीर विक्रम शाहदेव ने यह भारत के हवाले किया था तो वह भ्रम में रह रहा है क्योंकि ब्रिटिश इंडिया काल से ही यह क्षेत्र भारत के इलाके में माना जाता है। हकीकत यह है कि नेपाल ने 1990 में ही इस मुद्दे पर पहली बार तब आपत्ति दर्ज की थी जब भारत में खिचड़ी और कमजोर सरकारों का दौर शुरू हुआ था। इसके बाद से ही नेपाल में कम्युनिस्टों का प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ था और कालान्तर में समूचे राज परिवार की हत्या करके वहां जनविरोधी समझे जाने वाले राजपुरुष ने सत्ता कब्जाई और उसके बाद इस देश में जन आन्दोलन के जरिये लोकतन्त्र स्थापित हुआ और माओवादी विचारधारा से प्रेरित कम्युनिस्ट प्रभावी होते गये और चीन का नेपाल में प्रभाव इस तरह बढ़ा कि इसके पहले कम्युनिस्ट प्रधानमन्त्री पुष्प कुमार दहल ने पद संभालने के बाद अपनी पहली विदेश यात्रा चीन की की और बाद में वह भारत आये जबकि इससे पहले तक परंपरा यह थी कि नेपाल का कोई भी नया प्रधानमन्त्री सबसे पहली विदेश यात्रा भारत की करता था। नेपाल में अब भी कम्युनिस्टों का राज है और इसके वर्तमान प्रधानमन्त्री पीके शर्मा औली ने अपने देश की संसद में ही पिछले दिनों भारत के शुभंकर नीति सूत्र ‘सत्यमेव जयते’ का ‘सिंह मेव जयते’ कह कर अपमान करने की जुर्रत कर डाली। अतः अब इसमें किसी तरह के शक की गुंजाइश नहीं बचती है कि नेपाल एेसी कार्रवाई चीन के उकसाने या उसकी शह पर ही कर रहा है क्योंकि श्री औली ने भारतीय क्षेत्र को नेपाली भू-भाग में दिखाने वाले नक्शे को अपने देश की संसद में पेश कर दिया है जहां वह संविधान में संशोधन करके इसे पारित करायेंगे। भारत की समर्थक मानी जाने वाली विपक्षी पार्टी नेपाली कांग्रेस ने भी इस मुद्दे पर उनका समर्थन करने का फैसला कर लिया है। नेपाल को मूल आपत्ति इस बात से लगती है कि लिपुलेख के रास्ते भारत ने मानसरोवर यात्रा के लिए जो सड़क बनाई है उसमें उसकी मर्जी शामिल नहीं है क्योंकि 2015 में भारत-चीन के बीच इस सड़क को बनाने पर समझौता हुआ था और नेपाल को इसमें कोई पक्ष नहीं बनाया गया था। मानसरोवर झील उस ‘तिब्बत’ में है जिसे भारत ने वाजपेयी शासनकाल में चीन का स्वायत्तशासी इलाका स्वीकार किया था। वस्तुतः यह ऐतिहासिक गलती थी जो भारत ने 2003 में कर डाली थी। इसके बदले चीन ने उस सिक्किम को भारत का अंग स्वीकार किया था जिसका भारत में विलय इन्दिरा गांधी के शासनकाल में 1972 में ही हो गया था। कूटनीतिक रूप से तिब्बत का मसला चीन की दुखती रग थी जिसे भारत ने 2003 में बिना सीमा विवाद को हल किये या उसके कब्जे से अपनी 40 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि लिये ही समाप्त कर डाला। इस फैसले ने भारत की स्थिति को चीन के मुकाबले बहुत ढीला कर दिया और इसके बाद चीन कभी अरुणाचल को अपना हिस्सा बताने लगा तो कभी नियन्त्रण रेखा के पार आने लगा लेकिन अब हद पार होती दिखाई पड़ रही है क्योंकि चीन यदि लद्दाख के ‘गलवान नदी’ की घाटी में और ‘पेंगाग सो’ झील के क्षेत्र में नियन्त्रण रेखा को तोड़ कर हमारे इलाकों में सड़क बना लेता है और उसके हजारों सैनिक वहां तम्बू गाड़ लेते हैं तो यह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और भौगोलिक अखंडता के लिए प्रत्यक्ष खतरा है। यह कूटनीतिक दबाव की सीमा से बाहर जाकर सैनिक दबाव के घेरे में आता है जिसे भारत के देशभक्त लोग कभी स्वीकार नहीं कर सकते। रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह ने अभी हाल ही में आर भारत से कहा था कि भारत के आत्म सम्मान पर किसी तरह की कोई आंच नहीं आने दी जायेगी मगर चीन चुनौती दे रहा है कि उसे भारतीय अखंडता की कोई परवाह नहीं है और वह नियन्त्रण रेखा को स्वीकार नहीं करता है तथा नेपाल भारतीय भू-भाग वाले अपने नक्शे को अपनी संसद में पारित करा रहा है। बेशक भारत कभी भी किसी देश में न तो अतिक्रमण करता है और न ही वह युद्ध चाहता है मगर अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए इसके वीर सैनिक अपने प्राणों की बलि देने से पीछे कभी नहीं रहे हैं। यह भारत की कूटनीतिक असफलता मानी जायेगी यदि चीन हमारे इलाके में घुस कर ही हमारे सैनिकों की मौजूदगी में अतिक्रमण करने की हिम्मत करता है। इस मामले में देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने जो बयान जारी किया है उसका संज्ञान भी लिये जाने की जरूरत है कि चीनी सीमा की स्थिति के बारे में सरकार को देशवासियों को अवगत कराना चाहिए और इसका हल ढूंढने के लिए राष्ट्रीय सर्वानुमति तैयार की जानी चाहिए। भारत की कोई भी सरकार केवल इसके भीतर ही किसी एक पार्टी या नेता की सरकार होती है मगर विदेशों में वह ‘भारत’ की सरकार होती है। अतः चीन व नेपाल के मुद्दे पर देश के राजनैतिक जगत को एक साथ खड़े होकर सरकार का साथ देना चाहिए। राजनैतिक मतभेद भारत की आन्तरिक व्यवस्था को लेकर हो सकते हैं मगर विदेशियों के लिए पूरा भारत एक है-जय हिन्द।