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कोरोना का दूसरा हमला

कोरोना संक्रमण का दूसरा हमला जिस तरह कहर बरपाने की मुद्रा में दिखाई पड़ रहा है उससे बचाव के लिए सभी मोर्चों पर अभी से सन्नद्ध होना पड़ेगा।

कोरोना संक्रमण का दूसरा हमला जिस तरह कहर बरपाने की मुद्रा में दिखाई पड़ रहा है उससे बचाव के लिए सभी मोर्चों पर अभी से सन्नद्ध होना पड़ेगा। विशेष रूप से आर्थिक मोर्चे पर भारत की अर्थव्यवस्था अभी तक पटरी पर नहीं आयी है और इसमे लाकडाऊन के दौरान जो भारी गिरावट दर्ज हुई थी उससे उबरने का हल्का सा उभार ही दर्ज हो पाया है, जो समूचे अर्थ तन्त्र की सेहत में हल्के सुधार का परिचय ही कहा जा सकता है। भारत में कोरोना के मामले जिस तरह बढ़ते जा रहे हैं उन्हें देखते हुए पुनः लाकडाऊन लगने की संभावना से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं क्योंकि समाप्त वित्त वर्ष की पहली तिमाही में आर्थिक वृद्धि की दर  न केवल नकारात्मक हो गई थी बल्कि यह पूरी तरह उल्टी घूम कर 24 प्रतिशत के करीब नीचे चली गई थी। इसलिए हमें 1 अप्रैल से शुरू नये वित्त वर्ष में बहुत ही सावधानी के साथ कदम उठाने होंगे और प्रत्येक देशवासी को कोरोना लोकाचार का पालन करना होगा। 
हलकी कोरोना का टीका विगत 1 अप्रैल से ही 45 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को लगना शुरू हो चुका है परन्तु इसके बावजूद इससे कम आयु के लोगों में यह संक्रमण फैलने का खतरा लगातार बना हुआ है। संयोग से 45 वर्ष से कम वय के युवा ही अधिसंख्य मामलों में अपने परिवारों के लिए रोटी का जुगाड़ करने में लगे होते हैं और इन्हें यह सब करने के लिए घर से बाहर जाना पड़ता है। लाकडाऊन ने इसी आयु वर्ग के लोगों पर सबसे बुरा असर डाला था और करोड़ों की संख्या में रोजगार खत्म हो गये थे। हकीकत यह है कि लाकडाऊन के दौरान जो लोग बेरोजगार हुए थे उनमें से आधों को भी अभी तक पुनः रोजगार नहीं मिल पाया है और बड़े-बड़े शहरों में कार्यरत प्रवासी मजदूरों में फिर से डर का माहौल बनने लगा है। इसका प्रमाण यह है कि गांवों में मनरेगा के तहत पंजीकृत होने वाले मजदूरों की संख्या फिर से बढ़ने लगी है। ये सब खतरे की घंटी है जिसकी तरफ हमें ध्यान देना होगा और पुनः वैसी परिस्थितियां नहीं बनने देनी होंगी जैसी पिछले साल अप्रैल के महीने से लेकर जून तक बनी थीं। मगर इसमे आम नागरिकों के सहयोग के बिना कुछ नहीं हो सकता है। इसके लिए सर्वप्रथम पात्र व्यक्तियों को स्वयं को टीका लगवना होगा और इस बारे में फैली सभी अफवाहों को हवा में उड़ा देना होगा। वैसे गौर से देखा जाये तो जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां से कोरोना मामलों की कोई खास रिपोर्ट नहीं आ रही है। 
सबसे बुरी हालत पुनः महाराष्ट्र राज्य की है जहां एक लाख तक पहुंचे नये मामलों में साठ प्रतिशत के लगभग माले रिपोर्ट हुए हैं। इसे वास्तव में रहस्य ही कहा जा सकता है कि चुनावी राज्यों में कोरोना लोकाचार का पालन न होने के बावजूद नये मामले बहुत कम आ रहे हैं। फिर भी इसे संयोग कहना गलत नहीं होगा क्योंकि कोरोना किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता है। परन्तु सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक मोर्चे पर है क्योंकि लाकडाऊन ने लघु व मध्यम दर्जे की औद्योगिक इकाइयों पर कहर बरपाया था और 33 प्रतिशत के लगभग एेसी इकाइयां या तो बन्द हो गई थीं अथवा बीमारी की हालत में चली गई थीं।  इन इकाइयों के पास अपने बिजली बिलों का भुगतान करने तक की दिक्कत हो रही थी। इसके बावजूद बीते साल की तीसरी तिमाही से अर्थव्यवस्था में उठान शुरू हुआ और बाजार में मांग बढ़ने लगी। बढ़ती मांग की इस रफ्तार को कायम रखने के लिए जरूरी है कि मुद्रा स्फीति को काबू में रखा जाये और बैंक ब्याज दरों को स्थिर रखा जाये। आगामी सात अप्रैल को रिजर्व बैंक अपनी अगली छमाही मौद्रिक नीति की घोषणा करेगा। मर्चेंट बैंकरों व वित्तीय फर्मों को उम्मीद है कि रिजर्व बैंक अपनी ब्याज नीति में कोई परिवर्तन नहीं करेगा। यह ब्याज नीति बैंकों को दिये जाने वाले कर्ज की होती है। इसका सीधा सम्बन्ध मुद्रा स्फीति की दर या महंगाई से होता है। महंगाई के काबू में रहने से बाजार में माल की जो मांग बढ़ रही है उसमें शालीनता के साथ इजाफा किया जा सकता है। मगर हाल ही में खाद्य तेलों में जिस तरह की उछाल आया है उससे आम जनता की चिन्ताएं बढ़ी हैं और इसका असर अन्य उपभोक्ता सामग्री पर भी पड़ा है। अतः बहुत जरूरी है कि महंगाई को हर कीमत पर काबू में रखा जाये। दूसरे हमें यह देखना होगा कि कोरोना संक्रमण पहले ही आम आदमी की क्रय शक्ति का क्षरण पूरी निर्दयता के साथ कर चुका है। इसका प्रमाण यह है कि जिन निजी कम्पनियों या फर्मों ने लाकडाऊन के बाद अपने कर्मचारियों की तनख्वाहें आधी तक कर दी थीं उन्हें अभी तक पुराने स्तर पर नहीं लाया गया है। और सितम देखिये कि जब यह लगने लगा कि कोरोना अब लगभग समाप्त होने को है तो इसकी दूसरी लहर चलने लगी।
भारत के पड़ोसी देश बंगलादेश में तो एक सप्ताह का लाकडाऊन लगाने की योजना बना ली गई है। परन्तु लाकडाऊन समस्या का हल भी नहीं है। इससे आर्थिक व सामाजिक गतिविधियों को जाम तो लग जाता है मगर व्यक्ति की कार्यक्षमता भी दम तोड़ने लगती है। भारत का सौभाग्य यह है कि इसके ग्रामीण इलाकों में कोरोना के घुसने की हिम्मत नहीं हुई। इसे भी क्या हम संयोग कहेंगे या असली भारत के लोगों की प्रतिरोधक क्षमता !
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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