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खानदानी सियासती ‘परचूनिये’

संविधान दिवस ( 26 नवम्बर) के अवसर पर संसद के केन्द्रीय सभागार में आयोजित समारोह में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का यह कथन किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है कि भारत के लोकतन्त्र में राजनीतिक पार्टियों का चरित्र परिवारवादी होने से सबसे बड़ा खतरा लोकतन्त्र को ही है।

संविधान दिवस ( 26 नवम्बर) के अवसर पर संसद के केन्द्रीय सभागार में आयोजित समारोह में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का यह कथन किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है कि भारत के लोकतन्त्र में राजनीतिक पार्टियों का चरित्र परिवारवादी होने से सबसे बड़ा खतरा लोकतन्त्र को ही है। भारत का लोकतन्त्र राजनीतिक पार्टियों पर ही टिका हुआ है जो इस देश के लोगों के बीच जन कल्याण व राष्ट्रीय विकास के विविध सपनों को बेच कर उनका समर्थन प्राप्त करके सरकारों का गठन करती हैं और फिर संविधान सम्मत रास्तों से अपनी-अपनी पार्टी के सिद्धान्तों के अनुरूप जन कल्याण व राष्ट्रीय विकास में लगती हैं। राजनीतिक पार्टियों की ताकत जनता द्वारा दिया गया उन्हें समर्थन ही होता है। इन्हीं राजनीतिक दलों के माध्यम से भारत का आम आदमी सत्ता में भागीदारी का हकदार बनता है, इसी वजह से हम लोकतन्त्र को ‘लोगों द्वारा लोगों के लिए लोगों की सरकार’  के रूप में जानते हैं। मगर इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रत्येक राजनीतिक दल को भी आन्तरिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था कायम करनी होती है जिससे वह दल आम जनता की लोकतान्त्रिक अपेक्षाओं की पूर्ति कर सके। राजनीतिक दलों की इस व्यवस्था को देखने की जिम्मेदारी संविधान ने चुनाव आयोग को दी है। 
चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी है कि वह राजनीतिक दलों के आन्तरिक लोकतन्त्र की निगरानी करे। हमारे संविधान निर्माताओं ने यह व्यवस्था इसीलिए की थी जिससे समूचे देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली की जिम्मेदारी पड़ने पर कोई भी दल इसका निर्वाह करने में खरा उतर सके और सत्ता में आम जनता की भागीदारी तय कर सके परन्तु देश का दुर्भाग्य यह है कि आज क्षेत्रीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के विभिन्न राजनीतिक दलों की बनावट और चरित्र किसी ‘कदीमी परचून की दुकान’ की तरह बन चुका है जिसमें पिता की गद्दी पुत्र या पुत्री संभालती है। मगर भारत की राजनीति में यह बदलाव रातों-रात नहीं आया है बल्कि यह राजनीतिक स्तर में गिरावट की लम्बी प्रक्रिया का नतीजा है। राजनीति में जातिवाद समेत अपराधी प्रवृत्तियों के समावेश से जिस प्रकार की गिरोह बन्दी का दौर चला उसने राजनीतिज्ञों को किन्ही कबीलों के सरदार के रूप में महिमामंडित करना शुरू किया जिससे राजनीतिक पटल पर पारिवारिक यशोगान की शुरूआत हुई अतः आज हालत यह हो गई है कि उत्तर से लेकर दक्षिण तक हर प्रभावशाली पार्टी किसी ‘खानदानी शफाखाने’ के रूप में चल रही है। 
अफसोस यह है कि इस व्यवस्था को 1990 में लागू हुए मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने पंख दिये जिसकी वजह से जाति से लेकर वर्ग समूहों की पार्टियों की बाढ़ आ गई। एेसे सभी दलों का लक्ष्य अपने वर्ग समूहों या जातियों का वोट बैंक हो गया और मतदाता की पहचान उसका यही आवरण दे दिया गया जिसकी वजह से ऐसी पार्टियों के नेता किसी महन्त या मठाधीश की तरह आम जनता के बीच प्रतिष्ठित होते गये और लोकतन्त्र के नये ‘रजवाड़ों’ की तरह व्यवहार करने लगे और अपनी पार्टियों में सिर्फ कानूनी प्रक्रिया पूरी करने के लिए लोकतन्त्र का ढोंग रचने लगे। यदि भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को ही लिया जाये तो आज यहां की प्रमुख विपक्षी पार्टियों समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी की क्या हालत है? श्री मुलायम सिंह द्वारा स्थापित की गई इस पार्टी में सभी सत्ता भागीदारी के पद केवल परिवार के लोगों के लिए जैसे आरक्षित कर दिये गये हैं। आज लोकसभा में इस पार्टी के जितने भी सांसद हैं वे सभी माननीय मुलायम सिंह के वृहद परिवार के सदस्य हैं। दूसरी तरफ बहुजन समाज पार्टी में वही नेता है जिसके सिर पर बहिन मायावती हाथ रख दें। आम जनता के बीच उस व्यक्ति की क्या प्रतिष्ठा या छवि है उससे पार्टी को कोई खास मतलब नहीं। इसी प्रकार पड़ोसी राज्य बिहार में माननीय लालू प्रसाद यादव का परिवार ही राष्ट्रीय जनता दल है। उनके दोनों पुत्र पहली बार चुनाव जीत कर ही राज्य सरकार में मन्त्री बन जाते हैं और अवसर आने पर उन्हें अपनी पूरी पार्टी में अपनी पत्नी के अलावा कोई ऐसा दूसरा सुयोग्य व्यक्ति नहीं मिलता जिसे मुख्यमन्त्री के पद पर बैठाया जा सके। 
सवाल पूछा जा सकता है कि ऐसे दलों की जनता की सेवा करने की परिभाषा क्या है ? क्या उनका पैमाना यही है कि जब भी जनता उन पर विश्वास करें तो वह उस पर यकीन करने के बजाये अपने परिवार पर ही यकीन करें।  इसी प्रकार ओ​डिसा में स्व. बीजू पटनायक के पुत्र नवीन पटनायक को अपनी पार्टी बीजू जनता दल में कोई ऐसा दूसरा नेता नहीं मिल रहा है जो उनका विकल्प बन सके। इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर में इस राज्य की सियासत क्या केवल दो अब्दुल्ला व मुफ्ती परिवारों के नाम लिख दी गई है। जहां तक दक्षिण भारत का सवाल है तो तमिलनाडु में क्या केवल स्व. करुणानिधि के परिवार के लोग ही इस राज्य को चला सकते हैं। दूसरी तरफ प. बंगाल में भी क्या ममता दी को अपने भतीजे के अलावा कोई और दूसरा होनहार नेता नहीं मिल रहा है जिसे वह अपना उत्तराधिकारी बना सकें। वास्तव में स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक पद्धति में यह पारिवारिक राज्याभिषक राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता को रसातल में पहुंचा रहा है और जनता के बीच यह भाव जगा रहा है कि इस देश में शासन करने के अधिकार के साथ ही कुछ लोग पैदा होते हैं। चाहे अखिलेश यादव हों या तेजस्वी यादव, उनकी काबलियत यही है कि वे मुलायम सिंह यादव और लालू यादव के पुत्र हैं। जबकि भारत के संविधान के तहत लागू लोकतन्त्र में यह पुख्ता व्यवस्था की गई है कि किसी चपरासी का बेटा भी देश का प्रधानमन्त्री बन सकता है, बशर्ते उसमें योग्यता हाे। इसका उदाहरण स्वयं वर्तमान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी हैं जो एक साधारण चाय की दुकान करने वाले पिता के पुत्र हैं। मगर ऐसा तभी हो सका जब उनकी पार्टी भाजपा ने सत्ता के शिखर पर एक साधारण कार्यकर्ता को पहुंचाने का पक्का फैसला किया। लोकतन्त्र में कोई भी व्यक्ति किसी सेठ के बेटे की तरह सरमाये का मालिक बनने का अधिकार लेकर पैदा नहीं होता बल्कि वह सेठ के बेटे के समान ही सत्ता पर काबिज होने का अधिकार लेकर पैदा होता है। अतः इस व्यवस्था का यह उद्घोष शाश्वत है ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ क्योंकि खानदानी परचूनिये सियासतदानों को ताज जनता ही पहनाती है।

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