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फिर शुरू हुआ किसान आंदोलन

भारत शोर-शराबे का लोकतन्त्र है अतः किसान आन्दोलन को लेकर समाज में जो प्रतिध्वनियां पैदा हो रही हैं वे भारत की मूल संरचना का ही प्रतिबिम्ब हैं। किसान को धरती का भगवान और अन्नदाता कहा जाता है परन्तु दुर्भाग्य यह है कि चौधरी चरण सिंह के बाद देश में किसानों का कोई सर्वमान्य अखिल भारतीय नेता पैदा नहीं हुआ जो समेकित रूप से एकमुश्त तौर पर कृषि जन्य समाज की समस्याओं को सम्यक रूप से प्रस्तुत कर सके। पिछले 75 सालों में भारत बहुत बदल चुका है इसमें ग्रामीण व कृषि मूलक समाज की बहुत बड़ी भागीदारी है क्योंकि उसकी ही मेहनत व लगन से भारत खाद्यान्न में न केवल आत्मनिर्भर हुआ बल्कि निर्यात के काबिल भी हुआ परन्तु शहरीकरण की ललक में हमने कृषि क्षेत्र की जो उपेक्षा की उसे हम गंभीर श्रेणी तक में डाल सकते हैं। कृषि क्षेत्र में आर्थिक उदारीकरण के दौर में जिस तरह लगातार सार्वजनिक निवेश में कमी आई उसने किसानों को बाजार पर इस तरह निर्भर बनाया कि उनकी फसल की कीमत को व्यापारियों ने अपने हानि-लाभ के समीकरणों से तय किया। यही वजह है कि 1966 में जब खास फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की प्रणाली को शुरू किया गया तो गांवों और कृषि क्षेत्र के लोगों के चेहरे पर रौनक आने की शुरूआत हुई।
आज किसानों की सबसे बड़ी मांग यही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली का विस्तार सभी प्रमुख फसलों तक किया जाये तथा इस प्रणाली को कानूनी रूप दिया जाये। दो वर्ष पहले तीन कृषि कानूनों को सरकार ने किसानों की एक वर्ष से भी अधिक चले आन्दोलन के बाद वापस लिया था। इसकी मूल वजह यही थी कि किसान खुद को बड़े पूंजीपतियों के रहमो-करम पर छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे और अपनी जमीन के मालिकाना हक किसी भी सूरत में हस्तान्तरित होते नहीं देखना चाहते थे। यदि हम गौर से किसानों की स्थिति का विश्लेषण करें तो आज भी यह देश में सर्वाधिक रोजगार प्रदान करने वाला क्षेत्र है। 60 प्रतिशत लोग खेती पर ही ​िनर्भर हैं। स्थानीय स्तर पर यह ग्रामीण गैर खेतीहर जनता को रोजगार मुहैया कराता है। भारत में पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह खेती में लगने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हो रही है लेकिन अमीरों के मुकाबले कमजोर वर्गों की आय और घट रही है। इस विसंगति को पाटने के लिए जरूरी है कि कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाया जाये और गांवों में पूंजी निर्माण या सृजन (कैपिटल फार्मेशन) पर जोर दिया जाये। यह काम पूरी तरह निजी क्षेत्र पर नहीं छोड़ा जा सकता। इस मामले में यदि किसानों की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहना दिया जाता है तो इसका सीधा असर सकल ग्रामीण वर्ग की क्रय क्षमता या आय वृद्धि पर पड़ेगा। चौधरी चरण सिंह का बहुत ही मोटा और सीधा- साधा फलसफा था जो वह अपनी जनसभाओं में कहते थे कि जिस देश में ज्यादा लोग खेती में लगे होंगे वह देश गरीब होगा और जिस देश में कम से कम लोग खेती में लगे होंगे वह अमीर होंगे। इस मामले में वह आंकड़े देकर भारत और अमेरिका की तुलना किया करते थे।
किसान की जब आय बढ़ती है तो इसका असर उसके बच्चों की शिक्षा व्यवस्था पर पड़ता है। यदि किसान का बेटा-बेटी डाक्टर या इंजीनियर अथवा प्रोफेसर बनेंगे तो सकल ग्रामीण क्षेत्र प्रगति के पथ पर आगे चलेगा और विकास जमीन पर आयेगा। मगर यह काम तभी होगा जबकि खेती की पैदावर को आधुनिकतम तरीकों से बढ़ाया जायेगा और फसल की अच्छी लाभप्रद कीमत तय होगी। जमीन के सीमित होने व किसानों का परिवार बढ़ने से आय के बंटवारे को रोकने का एक ही तरीका है कि पैदावार बढे़ और उसका लाभप्रद मूल्य मिले जिससे खेती में लगने वाले लोगों की संख्या घटे और वे अन्य काम-धंधों की तरफ जायें। यह कार्य सरकार की मदद के बिना नहीं हो सकता। इसलिए कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश की हमेशा जरूरत रहेगी। किसानों की आज मांग है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली को कानूनी रूप से लागू किया जाये और फसल की कीमत एम.एस. स्वामीनाथन फार्मूले पर तय हो। किसानों और मजदूरों पर जो भी कर्जा है उसे माफ किया जाये। किसानों की जमीन अधिग्रहित करने से पहले उनकी 2013 के कानून के मुताबिक सहमति ली जाये और मुआवजा सरकारी जमीन मूल्य आंकलन का चार गुणा दिया जाये।
2021 में लखीमपुर खीरी में जिस तरह कार चला कर किसानों की हत्या की गई थी, उसके गुनहगारों को सजा दी जाये। भारत विश्व व्यापार संगठन से हटे और सभी मुक्त व्यापार समझौतों से अलग हो। किसानों व मजदूरों की पेंशन बांधी जाये। पिछले किसान आन्दोलन के दौरान जिन किसानों की मृत्यु हुई थी उनके परिवारों को मुआवजा दिया जाये और प्रत्येक परिवार से एक नौकरी दी जाये। 2020 के बिजली कानून को रद्द किया जाये। मनरेगा के तहत कम से कम 200 दिन का रोजगार दिया जाये और न्यूनतम मजदूरी 700 रु. प्रतिदिन की जाये। नकली या फर्जी बीज, उर्वरक खाद व कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों पर सख्त कानून लागू हों और उन पर बड़ा जुर्माना लगाया जाये। मिर्ची और हल्दी जैसे मसालों पर राष्ट्रीय आयोग गठित किया जाये। जल, जंगल और जमीन पर देशज लोगों अर्थात आदिवासियों का अधिकार हो। हालांकि सरकार की तरफ से कृषि मन्त्री अर्जुन मुंडा और पीयूष गोयल ने किसानों के प्रतिनिधियों से इन मांगों पर चर्चा की मगर कोई हल नहीं निकल सका और किसानों ने अपने दिल्ली कूच को जारी रखा। किसान आन्दोलन को देखते हुए दिल्ली की सभी सीमाओं पर सशस्त्र बलों का कड़ा पहरा है। लोकतन्त्र में अन्तिम समाधान केवल बातचीत से ही निकलता है। उम्मीद है ​िक कोई स्वीकार्य समाधान निकल आएगा।

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