भारत की जिस समूची लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बाबा साहेब अम्बेडकर जिन चार पायों पर खड़ा करके गये थे उनमें बेशक सबसे महत्वपूर्ण पाया स्वतन्त्र न्यायपालिका ही थी क्योंकि इसकी जिम्मेदारी सीधे संविधान से ही शक्तियां लेकर पूरे देश में संविधान का शासन देखने की थीं। न्यायपालिका को बाबा साहेब ने सरकार का अंग नहीं बनाया था और इसे स्वतन्त्र व निष्पक्ष और निर्भीक रहने का दर्जा बख्शते हुए भारत की शासन प्रणाली का निगेहबान इन अर्थों में बनाया था जिससे कार्यपालिका सदैव संविधान के प्रति उत्तरदायी बनी रहे। बेशक विधायिका को ही देश की शासन प्रणाली के लिए अन्तिम तौर पर जिम्मेदार बनाया गया मगर इसे अपना कार्य कार्यपालिका की मार्फत चलाना था। चौथा पाया चुनाव आयोग था जिसके सिर पर आम जनता के चुने हुए नुमाइन्दों का चुनाव कराने की जिम्मेदारी इस प्रकार थी कि देश के सभी राजनैतिक दलों को चुनावों के समय जनता के बीच जाने पर एक समान अवसर उपलब्ध हो सकें। परन्तु इन चारों पायों के बीच न्यायपालिका की भूमिका पूर्णतः विशिष्ट रही क्योंकि इसके पास विधायिका के भी संविधान के अनुसार काम करने को देखने के अधिकार थे जबकि यह सरकार का अंग नहीं थी। परन्तु वर्तमान समय में हम देख रहे हैं कि विभिन्न सरकारी कामकाज के तरीकों को न्यायालय में ले जाया जा रहा है। इसके पीछे चुनी हुई सरकारों द्वारा किये जा रहे फैसलों के विवादित बिन्दु बताये जा रहे हैं। ये बिन्दु राजनैतिक रूप से भी विवादित हो सकते हैं और प्रशासनिक रूप से भी।
हमने पिछले दिनों ही देखा है कि किस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायमूर्तियों की एक पीठ ने निर्देशित किया था कि राजनीति में मजहब को न घसीटा जाये क्योंकि इसके घसीटने से ही नफरती बयानबाजी को बढ़ावा मिलता है। यह सर्वविदित नियम है कि घृणा या नफरत से ही हिंसा की शुरूआत होती है और इससे ही सामाजिक शान्ति को खतरा पैदा होता है। देश के विकास की पहली शर्त यही होती है कि उस देश के समाज में सर्वथा शान्ति व सौहार्द का माहौल बना रहे। देश का विकास कोई अदृश्य शक्तियां नहीं करतीं बल्कि देश के लोग ही यह काम करते हैं। भारत का अभी तक जो भी विकास हुआ है उसमें इस देश के हर नागरिक का किसी न किसी रूप में योगदान रहा है। इसी वजह से कहा जाता है कि देश का निर्माण उसके लोगों से ही होता है और वह देश उतना ही अधिक मजबूत होता है जितने उसके लोग होते हैं। मगर यह सारा काम तभी हो सकता है जबकि विधायिका से लेकर कार्यपालिका तक अपना काम इस प्रकार करें कि उसमें न्यायालय को कम से कम दखल देने की जरूरत पड़े। परन्तु आजकल जो हालत विभिन्न राज्यों में बन रहे हैं उन्हें देख कर एेसा वातावरण बनता जा रहा है कि अधिकाधिक लोग या संगठन न्यायालय की शरण में जा रहे हैं। न्यायालयों का कार्य शासन चलाना नहीं है इसके िलए भारत के संविधान में त्रिस्तरीय स्थानीय निकाय, प्रादेशिक व राष्ट्र स्तर की शासन व्यवस्था मौजूद है। इनका काम आम जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों से ही चलता है। तीनों स्तरों पर ही चुने गये लोगों के हाथ में ही शासन की बागडोर रहती है और संविधान में इन सभी के अधिकार भी तय किये हुए हैं। मसलन कानून- व्यवस्था पूर्णतः राज्य सरकारों का विषय है ।
मगर हम जानते हैं कि राज्य सरकारों का गठन राजनैतिक आधार पर ही होता है और किसी भी राज्य की पुलिस वहां की सरकार के नियन्त्रण में ही काम करती है। हालांकि अखिल भारतीय स्तर पर पुलिस सेवा का जो ढांचा देश के प्रथम उपप्रधानमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल खड़ा करके गये थे उसमें भारत के हर जिले के पुलिस कप्तान की सेवा शर्तें केन्द्र सरकार ही तय करती है। इसी प्रकार जिला कलेक्टर की भी स्थिति होती है परन्तु किसी भी राज्य में नियुक्त होने वाले पुलिस कप्तान की जवाबदेही उस राज्य के मुख्यमन्त्री के प्रति ही होती है। मगर पिछले तीस वर्ष से राजनीति में जो बदलाव आया है उसकी वजह से राज्यों के प्रशासन खास तौर पर पुलिस का राजनीतिकरण भी बढ़ रहा है। किसी भी राज्य में गठित विशिष्ट राजनैतिक दल की सरकार की पुलिस उसका निजी बल नहीं होती बल्कि वह संविधान की शपथ लेकर कानून-व्यवस्था कायम करने के प्रति समर्पित बल होती है। पुलिस का प्रयोग किसी भी पार्टी की सरकार अपने दलगत हित साधने के लिए नहीं कर सकती। इस बारे में उत्तर प्रदेश में एक किस्सा बहुत चर्चित रहा है। 1969 में जब स्व. चौधरी चरण सिंह कुछ महीनों के िलए पुनः मुख्यमन्त्री बने थे तो हापुड़ में उन्हीं की पार्टी भारतीय क्रान्ति दल के कुछ जिला स्तर के नेता उनसे मिलने आये। उन्होंने चौधरी साहब से शिकायत की कि जिले का कलेक्टर उनकी बात ही नहीं मानता और अपने हिसाब से काम करता है। चौधरी साहब जिस विश्राम गृह में ठहरे थे वहां जिला कलेक्टर भी मौजूद थे। चौधरी साहब ने जिला कलेक्टर को बुलाया और सम्मान के साथ बैठाया। उनकी पार्टी के लोगों ने पुनः जिलाधीश की शिकायत करनी शुरू कर दी तो चौधरी साहब ने जो कहा उसे ध्यान से सुनिये ‘‘सुनो भी तुम लोगों, क्या समझते हो तुम कलेक्टर को? तुम क्या इसे मेरा नौकर समझते हो। कान खोल कर सुन लो ये कानून का नौकर है और जैसा कानून कहेगा ये वैसा ही करेगा’’। इसके बाद चौधरी साहब ने कलेक्टर महोदय को ससम्मान वहां से जाने के लिए कहा। दरअसल आज सबसे बड़ा संकट राजनीतिज्ञों की विश्वसनीयता का ही पैदा हो रहा है जिसकी वजह से विसंगतियां बढ़ रही हैं। मगर विरोधाभास देखिये कि इस स्थित तक पहुंचाने वाले राजनीतिज्ञ ही प्रयागराज में अतीक व अशरफ की पुलिस के साये में की गई सरेआम हत्या का संज्ञान सर्वोच्च न्यायालय से लेने को कह रहे हैं। सवाल तो असल में यह है कि इस स्थिति तक हम तभी पहुंचे हैं जब राजनीति में माफियाओं को इज्जत बख्शने की रवायत शुरू की गई।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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