भारत के रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह का ‘साहस’ प्रशंसनीय है कि उन्होंने भारत-चीन सीमा पर सैनिक स्थिति का देशवासियों के सामने खुलासा करके चीनी सेना के ‘दुस्साहस’ का पर्दाफाश करते हुए स्पष्ट कर दिया है कि दोनों सेनाओं के उच्च कमांडरों के बीच तनाव को कम करने के लिए आगामी शनिवार को पुनः बातचीत होगी। श्री सिंह ने बेशक यह स्वीकार किया है कि लद्दाख के पूर्वी इलाके में चीनी सेना का जमावड़ा बढ़ा है मगर यह भी साफ कर दिया है कि भारत के आत्मसम्मान पर कोई आंच नहीं आने दी जायेगी और सैनिक स्तर पर इस समस्या का द्विपक्षीय सहयोग से हल ढूंढने की कोशिश की जायेगी।
बिना कोई समय गंवाए राष्ट्रीय सुरक्षा के इस संवेदनशील मामले पर राजनैतिक राष्ट्रीय सहमति बनाई जानी चाहिए। लद्दाख में ‘गलवान’ नदी के घाटी क्षेत्र और ‘पेंगाग-सो’ झील के निकट भारतीय इलाके में चीनी सेनाओं की उपस्थिति से निश्चित रूप से उसकी सीनाजोरी ही जाहिर होती है। मगर यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि चीन की यह कार्रवाई भारत पर कूटनीतिक दबाव बढ़ाने की गरज से की जा रही है जो कि दो पड़ौसी देशों के बीच शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व के सिद्धान्त के पूरी तरह खिलाफ है। मगर इससे भारत को जरा भी घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि चीन सिद्धान्ततः यह स्वीकार कर चुका है कि नियन्त्रण रेखा पर जो इलाका जिस देश के प्रशासनिक नियन्त्रण में है वह उसी का माना जायेगा। यह घोषणा संसद में खड़े होकर 2005 में तत्कालीन रक्षामन्त्री श्री प्रणव मुखर्जी ने तब की थी जब अरुणाचल प्रदेश पर चीन ने पुनः विवाद खड़ा किया था। इसके बाद ही 2006 में अपनी चीन यात्रा के दौरान बीजिंग की धरती पर प्रणव दा यह मूल मन्त्र देकर आये थे कि ‘आज का भारत 1962 का भारत नहीं है’ यह भारत का आत्मविश्वास बोल रहा था कि चीन की धमकियों के आगे किसी भी भारतवासी को जरा भी घबराने की जरूरत नहीं है अतः आज के रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह के आत्मविश्वास पर पूरा भारत पूरा भरोसा रखता है कि यह अपनी ताकत और बुद्धि के बूते पर इस विवाद को हल करने का सामर्थ्य रखता है।
तिब्बत से लगती तवांग घाटी में सूबेदार जोगिन्दर सिंह की छावनी में लगी प्रतिमा गवाही दे रही है कि किस तरह 1962 के युद्ध में भारत के एक सैनिक ने सैकड़ों चीनी सैनिकों को घराशायी किया था। अतः भारत-चीन के विवाद में किसी तीसरे देश की मदद की जरूरत भारत को न पहले थी और न आज है हमें अपनी शक्ति और चातुर्य पर पूरा भरोसा है। 1962 में भी तो चीनी सेनाएं भारत के असम के इलाके ‘तेजपुर’ तक आ गई थीं मगर बाद में वह पं. नेहरू जैसे विश्व शान्ति के प्रवाहक प्रधानमन्त्री की शख्सियत के आगे सर नवां कर खुद ही अपनी सीमा पर लौट गईं। हालांकि उन्होंने भारत के 40 हजार वर्ग किलोमीटर पहाड़ी क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया जिसमें ‘अक्साई चीन’ भी शामिल है। चीन ने तब नेहरू के साथ पंचशील समझौता करके पीठ में छुरा घोपा था अतः राष्ट्र संघ ने भारत के समर्थन में चीन को शर्मसार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति स्व. जान एफ केनेडी थे और उन्होंने चीन के मुद्दे पर भारत का साथ इसलिए दिया था कि पं. नेहरू पूरी दुनिया में निःशस्त्रीकरण और आपसी भाईचारे के शान्ति दूत थे और कमजोर पर बलवान की पहरेदारी का पुरजोर विरोध किया करते थे। केनेडी भी अपने देश में श्वेत व अश्वेत रंग भेद के खिलाफ उपजे आन्दोलन को सहिष्णुता और सह्रदयता के साथ देख रहे थे और नस्लभेद के विरुद्ध नेतृत्व देने वाले अश्वेत नेता ‘मर्टिन लूथर किंग’ के विचारों से सहमत थे।
केनेडी काले अफ्रीकी अमेरिकी नागरिकों को बराबर के नागरिक अधिकार दिये जाने के प्रबल समर्थक थे और रंगभेद के जुल्म को समाप्त किये जाने के पक्के पक्षधर थे। परन्तु आज का अमेरिका एेसे राष्ट्रपति के नेतृत्व में चल रहा है जो अमेरिका को सीधे 18वीं सदी में ले जाना चाहता है और अपना चुनाव जीतने के लिए अमेरिकी जनता को पुनः ‘काले और गोरे’ में बांट देना चाहता है। जिस मार्टिन लूथर किंग ने महात्मा गांधी को अपना आदर्श मान कर अमेरिका में 1964 में रंगभेद को समाप्त कराने में सफलता प्राप्त की थी उसकी हत्या भी 1968 में गांधी की तरह ही गोली मार कर की गई थी और 1963 में रंगभेद समाप्त करने के हिमायती राष्ट्रपति केनेडी को भी गोली मार कर ही इस दुनिया से बिदा किया गया था।
आज अमेरिका में एक अश्वेत नागरिक ‘जार्ज फ्लायड’ की पुलिस द्वारा की गई हत्या के खिलाफ जो जन आन्दोलन चल रहा है उस पर राष्ट्रपति ट्रम्प की संवेदनहीनता पूरी दुनिया का ध्यान खींच रही है और देख रही है कि किस प्रकार वह इस मुद्दे पर अपने देशवासियों को काले और गोरे में बांटने की राजनीति कर रहे हैं। पूरा अफ्रीकी अमेरिकी समाज ही नहीं बल्कि एशियाई अमेरिकी समाज भी हैरान है कि दुनिया का अग्रणी राष्ट्र समझा जाने वाला देश अमेरिका किस हद तक दकियानूसपन की हदें पार कर रहा है और मानवीय सिद्धान्तों को राजनीति का खिलौना मान रहा है। अतः राष्ट्रपति ट्रम्प के छलावे में भारत कभी भी फंसने का जोखिम मोल नहीं ले सकता क्योंकि उनका इरादा अब सिर्फ येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने का है और अपने इस खेल में वह भारत को मोहरा बनाना चाहते हैं चाहे वह भारत-चीन के बीच मध्यस्थता की पेशकश हो या ‘जी-7’ देशों के सम्मेलन में भारत को न्यौता देने का सवाल हो? यदि राष्ट्रपति ट्रम्प को भारत की इतनी ही फिक्र है तो अमेरिका ने भारत को अभी तक उस न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) देशों के समूह का सदस्य बनाने में कोई दिलचस्पी क्यों नहीं ली जिसका वादा अमेरिका ने 2008 में ही भारत के साथ परमाणु करार करते समय लिखित रूप से किया था?
भारत के सम्बन्ध अमेरिका के साथ हैं किसी विशेष राष्ट्रपति के साथ नहीं। हमें इन्हीं राजनयिक सम्बन्धों की पवित्रता और सत्यता के साथ किसी भी राष्ट्रपति के साथ सम्बन्ध निभाने पड़ते हैं। जी-7 देशों के सम्मेलन में तो भारत ने पिछले वर्ष भी भाग लिया था जो फ्रांस में हुआ था और वहीं प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को कहना पड़ा था कि ‘कश्मीर मुद्दे पर श्रीमान ट्रम्प से मध्यस्थता करने के लिए मैंने कभी नहीं कहा’ अतः चीन जैसे अपने ऐतिहासिक पड़ौसी को शान्ति और सह अस्तित्व का पाठ हमें खुद ही उसे इस तरह पढ़ाना होगा कि वह अपनी हदों को पहचाने। रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह पर हमें भरोसा रखना चाहिए और अपनी खुद्दारी का एहतराम करना चाहिए कि हमारी भौगोलिक अखंडता जांबाज सेना के रहते हुए पूरी तरह सुरक्षित रहेगी। सवाल बस कूटनीतिक मोर्चे पर एेसी बिसात बिछाने का है कि चीन सैनिक कार्रवाइयों को कूटनीतिक अस्त्र न बना सके।