राजधानी दिल्ली की जहांगीर पुरी कालोनी साम्प्रदायिक विद्वेष के चलते जिस तरह पुलिस छावनी में बदल गई है उससे भारत की उदार और सर्वग्राही छवि पर असर पड़ना लाजिमी है। विगत शनिवार को हनुमान जयन्ती शोभायात्रा के दौरान जो कुछ भी इस कालोनी में हुआ उससे हर भारतवासी को दुखी होना चाहिए और सोचना चाहिए कि जिस भारत में हर धर्म को पनपने व फलने-फूलने का सदियों से अवसर दिया वहां दो सम्प्रदायों के लोग इस हद तक कैसे जा सकते हैं कि एक-दूसरे की धार्मिक भावनाओं को हिंसक तरीके से दबाने की कोशिश करें। इस मामले में हमें यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि मुस्लिम धर्म के अनुयायियों के साथ ही ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं? दरअसल मजहबी जुनून किसी भी सम्प्रदाय के विकास में रोड़ा होता है क्योंकि इससे उस समाज के लोगों की मानसिकता संकुचित हो जाती है और वे अपने परिवेश में ही मौजूद अलग धार्मिक तरीके से जीवन जीने वाले या पृथक ईश्वरीय मान्यता रखने वाले लोगों के प्रति असहिष्णु हो जाते हैं। हि मजहब की यह भौतिक आसक्ति अन्त में मनुष्य को उसी इंसानियत से कफा कर देती है जिसके लिए किसी मजहब की उत्पत्ति होती है। भारतीय संस्कृति में धर्म की परिभाषा मजहब (रिलीजन) नहीं है बल्कि व्यक्ति का वह मानवीय बोध है जो उसे विभिन्न परिस्थितियों में यथोचित कर्म करने को प्रेरित करता है। अतः भारत में ‘धारयति सः धर्मः’ ही धर्म है। अर्थात जो धारण करने योग्य हो वही धर्म है। इसके साथ ही इस धरती में साकार ब्रह्म की उपासना से लेकर निराकार ब्रह्म की उपासना का भी बराबर का महात्म्य रहा है। सनातन परंपरा में दोनों ही उपासना पद्धतियों की प्रतिष्ठा है। मगर इस पूरे सनातन दर्शन में कट्टरता की कहीं कोई गुंजाइश नहीं रही है। श्रीमद्भागवत गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं और ईश्वर की सत्ता की स्थापना में सकल ब्रह्मांड की रचना की विवेचना भी प्रस्तुत करते हैं परन्तु अन्त में वही श्री कृष्ण कहते हैं कि ‘हे अर्जुन मैंने तुम्हें सब प्रकार से सुपरिचित करा दिया है अब तुम्हारी इच्छा है कि उस पर मनचाहे तरीके से आचरण करो।’ यह सच है कि गीता में एक बार भी मूर्ति पूजा की बात नहीं आती है मगर साथ ही यह भी सच है कि श्रीकृष्ण स्वयं अपने विराट स्वरूप का दर्शन करा कर अर्जुन को ‘जग माया’ से साक्षात्कार कराते हैं।
बेशक इस्लाम में भी निराकार ईश्वर अर्थात अल्लाह की परिकल्पना है मगर इसमें मजहब को दुनियावी अखलाख में उतारने की ताईद की गई है। अर्थात उससे हट कर कर्म करना निषिद्ध है। जाहिर है इसका लाभ मुस्लिम आलिमों और उलेमाओं ने जमकर उठाया और मुसलमानों को धर्मांध बनाने में उन्होंने कोई कोर-कसर कभी नहीं छोड़ी लेकिन भारत में इस्लाम के पदार्पण के बाद इस पर भारतीय रस्मो-रिवाजों और परंपराओं का असर पड़ा और सूफी सम्प्रदाय ने ‘कण-कण में भगवान’ के दर्शन को विस्तार देने का प्रयास अपने तरीके से किया। इसके साथ ही इस्लाम के अनुयायी भारत की विविध संस्कृति के विभिन्न इलाकों में जब धर्मान्तरित हुए तो उन्होंने अपने क्षेत्र की संस्कृति को नहीं छोड़ा। इससे भारत में हिन्दू-मुसलमानों के बीच पूजा पद्धति अलग होने के बावजूद सौहार्द भी बना रहा हालांकि सात सौ वर्षों तक मुस्लिम शासकों की निगेहबानी में रहने की वजह से हिन्दू समाज पर कुछ न कुछ दबाव भी बना रहा मगर औरंगजेब ने सत्तारूढ़ होते ही इसे पूरी तरह पलट दिया, इस्लामी निजाम को क्रूरता के साथ भारतीयों पर गालिब करना चाहा।
मुस्लिम मुल्ला-मौलवियों ने औरंगजेब को, निजाम को हमेशा महिमा मंडित करने का प्रयास किया और भारत के मुसलमानों के लिए उन आक्रान्ताओं को उनका नायक या हीरो बनाया जिन्होंने हिन्दुओं पर या तो जुल्म ढहाये थे अथवा हिन्दू धर्म के प्रतीकों को नष्ट किया था। यही वजह है कि मुस्लिम मुल्ला-मौलवी उस मुगल शहजादे दारा शिकोह का नाम कभी जुबान पर नहीं लाते जो हिन्दू व मुस्लिम संस्कृतियों की एकजुटता चाहता था। इतना ही नहीं पूरे भारतीय उपमहाद्वीप (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश) के उलेमा तुर्की के राष्ट्रवादी नेता मुस्तफा कमाल अतातुर्क का नाम लेते हुए भी घबराते हैं। 1936 में कमाल अतातुर्क ने तुर्की में कठमुल्लावादी सोच को समाप्त करने के लिए और मस्जिदें बनाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था तथा स्कूल व कालेज खोलने पर जोर दिया था और हर जुम्मे के दिन मस्जिदों से दिये जाने वाले खुतबे तक का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। खुतबे सरकार लिख कर देती थी जिसमें मुसलमान नागरिकों की शिक्षा पर व आधुनिक विचार अपनाने पर जोर होता था। मगर भारत के आजाद होने पर यहां उल्ट ही हुआ। मुसलमानों को मजहब की चारदीवारी में ही घूमने के इंतजाम किये गये और उनका ‘मुस्लिम पर्नल लाॅ’ लागू रहा। जिस वजह से भारत में उस मनसिकता को जड़ से नहीं उखाड़ा जा सका जिसकी वजह से 1947 में भारत के दो टुकड़े हुए थे और मुसलमानों के लिए पृथक पाकिस्तान बना था। जहांगीर पुरी में जिस तरह के दृश्य सामने आ रहे हैं उससे यही लगता है कि एक धर्म के किसी स्थल के सामने से दूसरे धर्म के मानने वालों को अपनी परंपराओं को निभाने का अधिकार नहीं है। मगर साथ ही यह भी हमें ध्यान रखना होगा कि किसी भी धर्म के मानने वाले लोगों के लिए कानून का पालन करना भी बहुत जरूरी है। जहांगीर पुरी में यदि कोई शोभा यात्रा तीन बार भी गुजरी तो उससे किसी को क्या फर्क पड़ सकता है मगर किसी दूसरे धर्म के लोगों को उकसाने के लिए किया गया कोई भी कार्य न्यायसंगत या कानून संगत भी नहीं हो सकता। हिसक वारदातों की जांच करने का पुलिस को पूरा अधिकार है मगर उसकी जांच में खलल डालने वालों के लिए भी कानून को अपना रास्ता तो अख्तियार करना पड़ेगा। पुलिस को किसी भी महिला या पुरुष की तफशीश करने का भी पूरा हक है। इस पर किसी भी समुदाय के लोगों को भड़कना नहीं चाहिए।