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न्यायपालिका की ‘न्यायप्रियता’

भारत की न्यायप्रणाली की पूरे विश्व में ऊंची प्रतिष्ठा इसकी निष्पक्ष कार्यप्रणाली से जोड़ कर देखी जाती है। लोकतन्त्र की राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्था में स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना करके हमारे संविधान निर्माताओं ने आजाद भारत को वह तोहफा दिया था

भारत की न्यायप्रणाली की पूरे विश्व में ऊंची प्रतिष्ठा इसकी निष्पक्ष कार्यप्रणाली से जोड़ कर देखी जाती है। लोकतन्त्र की राजनैतिक प्रशासनिक व्यवस्था में स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना करके हमारे संविधान निर्माताओं ने आजाद भारत को वह तोहफा दिया था जिसकी जड़ें बहुत भीतर तक जाकर भारत की उस प्राचीन संस्कृति से जुड़ती थीं जिसमें ‘पंचों को परमेश्वर’ स्वरूप में मान्यता प्राप्त थी। यही वजह रही कि स्वतन्त्र भारत में न्यायपालिका शुरू से ही मजबूत लोकतन्त्र की गारंटी देने वाली संस्था के रूप में प्रतिष्ठित हुई और इसने पूरी निष्ठा के साथ नागरिकों के उन अधिकारों की रक्षा की जिन्हें संविधान में आवंटित किया गया है। भारत की विविधतापूर्ण संस्कृति में जीने वाले लोगों को एक राष्ट्र के तार से जोड़ने में हमारे संविधान की महत्वपूर्ण भूमिका है और न्यायपालिका ने सर्वदा इसी संवेदना को सर्वोच्च रखते हुए भारत के विभिन्न धर्मावलम्बियों के मध्य के विवादों का हल संविधान की परिधि में न्याय की कसौटी पर खरा उतरते हुए खोजने का प्रयास किया। इनमें मानवाधिकारों की व्याख्या धर्मगत, समुदायगत व सम्प्रदायगत आग्रहों से निरपेक्ष रहते हुए ‘न्याय’ को सर्वोच्च रखने में न्यायपालिका ने बहुत बेबाकी के साथ अपने निर्णय देते हुए राजनैतिक व्यवस्था को संयमित व अनुशासित रहने के सन्देश भी दिये। काशी की ज्ञानवापी मस्जिद के मामले में वाराणसी के सत्र न्यायालय ने हिन्दू पक्ष की इस दलील को अस्वीकार कर दिया कि इसके परिसर में मिले शिवलिंग की ‘कार्बन डेटिंग’ कराई जाये तो वहीं सर बम्बई उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ ने दिल्ली विश्वविद्यालय के बर्खास्त प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा को गढ़चिरौली अदालत द्वारा दी गई उम्र कैद की सजा को अवैध करार देते हुए उन्हें जेल से तुरन्त रिहा करने के आदेश जारी किये। साईबाबा को माओवादी हिंसक विचारों को फैलाने के आरोप में सत्ता के विरुद्ध विद्रोह करने के षड्यन्त्र रचने के आरोपों में गैरकानूनी गतिविधि करने से रोकने के ​िलए बने  कानून यूएपीए के तहत उम्र कैद की सजा गढ़चिरौली की निचली अदालत ने सुनाई थी। इसमें उनके साथ अन्य पांच लोगों को भी दोषी पाया गया था। उच्च न्यायालय ने उन सभी को भी रिहा करने के आदेश दिये। उच्च न्यायालय ने यूपीपीए कानून के तहत साईबाबा के खिलाफ गढ़चिरौली अदालत में चले मुकदमे की सारी कार्यवाही को ही निषिद्ध व रद्द करते हुए कहा कि इसमें यूएपीए कानून का ही वैध तरीके से उपयोग नहीं किया गया। न्यायपालिका के इन दोनों फैसलों से स्पष्ट होता है कि भारत की न्यायप्रणाली कितनी सक्षम, स्वतन्त्र व निष्पक्ष है। ज्ञानवापी मामले में मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं कि इस मसले को हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही पक्षों को आपसी सहमति से सुलझा लेना चाहिए क्योंकि हिन्दुओं के लिए ‘काशी’ का वही स्थान है जो मुसलमानों के लिए ‘काबा’ का। ज्ञानवापी मस्जिद का काशी विश्वनाथ महादेव के पूजा परिक्षेत्र में स्थित होने का कोई औचित्य इसलिए नहीं बनता है क्योंकि इस मस्जिद की बाहरी स्थापत्य कला से लेकर भीतरी बनावट तक पर हिन्दू धर्म के चिन्हों व मूर्तियों के अवशेषों के स्पष्ट निशान हैं। मस्जिद के जिस कथित वजूखाने इलाके में भगवान शंकर की लिंग प्रतिमा निकली है वह भी हिन्दू शास्त्रों में दिये गये आदिविश्वेश्वर लिंग की मौजूदगी को बताती है जबकि मुस्लिम पक्ष उसे फव्वारा बताने की भूल कर रहा है। यह शिवलिंग वाराणसी अदालत द्वारा इस स्थान का सर्वेक्षण कराये जाने का फैसला दिये जाने के बाद ही पाया गया है जिसके चारों ओर पानी इकट्ठा करके मुस्लिम नमाजी वजू किया करते थे। 
प्राकृतिक न्याय कहता है कि यदि हिन्दू धर्म शास्त्र स्कन्द पुराण में ज्ञानवापी क्षेत्र की महिमा का वर्णन है और वहां आदिविश्वेश्वर शंकर का लिंग होने का प्रमाण है तो मुस्लिम जनता को भारत की मिली-जुली संस्कृति का सम्मान करते हुए यह स्थान स्वयं ही हिन्दुओं को सौंप देना चाहिए क्योंकि यहां बनी मस्जिद का अस्तित्व मुगल बादशाह औरंगजेब के समय में तब वजूद में आया जब उसने काशी विश्वनाथ मन्दिर का विध्वंस किया और इसके साथ मथुरा के श्रीकृष्ण जन्म स्थान पर बने मन्दिर को भी नष्ट किया। यह बात औरंगजेब का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने भी स्वीकार की और उस समय औरंगजेब द्वारा जारी शाही फरमान में भी अंकित है। इस हकीकत को कौन झुठला सकता है। स्वयं इतिहासकार इरफान हबीब भी यह स्वीकार करते हैं कि औरंगजेब ने विश्वनाथ मन्दिर को तोड़ा था। मगर जहां तक वाराणसी के सत्र न्यायाधीश के फैसले का सवाल है तो उन्होंने शिवलिंग की कार्बन डेटिंग कराने से इस वजह से इन्कार किया क्योंकि एेसा आदेश देने से सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का उल्लंघन होता।
 विगत 17 मई को यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जाने पर इसने आदेश दिया था कि जिस स्थान पर शिवलिंग निकला है और मुस्लिम पक्ष जिसे वजूखाना बता रहा है उसे पूरी तरह संरक्षित (सील) कर दिया जाये। इसका मतलब यही है कि इस क्षेत्र में किसी प्रकार की भी छेड़छाड़ न की जाये। दूसरे वाराणसी अदालत में ही हिन्दू पक्ष की एक महिला ने भी कार्बन डेटिंग न कराये जाने के लिए अपील की हुई थी, जबकि चार महिलाओं ने इसके पक्ष में अपील की थी। कार्बन डेटिंग न कराये जाने के हक में खड़ी महिला का कहना था कि एेसा करने से शिवलिंग को नुकसान पहुंच सकता है। सत्र न्यायाधीश ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के आलोक में ही फैसला देते हुए यह भी कहा है कि कार्बनडेटिंग परीक्षण से शिवलिंग को क्षति पहुंचने का खतरा भी  है। साफ जाहिर है कि सत्र न्यायाधीश के समक्ष हिन्दू और मुसलमान का सवाल नहीं था, बल्कि न्याय का सवाल था और उन्होंने वही फैसला दिया जो उन्हें न्यायसंगत लगा। भारत की न्यायपालिका की यही वह ताकत है जिसका लोहा सारी दुनिया मानती है। बेशक प्रोफेसर साईबाबा का मामला  और ज्ञानवापी का मामला भी अब सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है, मगर वहां से भी फैसला बेबाक तरीके से न्याय के हक में ही होगा फिर चाहे उस फैसले की आलोचना चाहे कोई भी करे। गौर से देखें तो यह भारत की भी ताकत है। 

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