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नेताजी, गणतन्त्र और एक वोट

भारत की स्वतन्त्रता के महानायकों में से एक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म दिवस 23 जनवरी हल्के से निकल गया और गणतन्त्र दिवस 26 जनवरी दो दिन बाद ही आने वाला है। इन दोनों दिनों का आम भारतीयों के जीवन में बहुत महत्व है। 26 जनवरी तो हमारा राष्ट्रीय पर्व है जो यह बताता है कि इस देश की बागडोर अन्ततः इसके सामान्य नागरिक (गण) के हाथ में ही रहेगी। इस बागडोर को हमें कस कर पकड़े रहना है और उस अधिकार का सदुपयोग करके गणतन्त्र को मजबूत करना है जो हमें गांधी बाबा देकर गये हैं। यह अधिकार एक वोट का है। यह अपरिवर्तनीय अधिकार है और गणतन्त्र का सबसे बड़ा हथियार है। यह वह हथियार है जिसके आगे सारी सत्ता नतमस्तक होती है। इस देश के नागरिक हिन्दू या मुसलमान हो सकते हैं परन्तु सबसे पहले और ऊपर वे एक नागरिक होते हैं। गांधी ने स्वतन्त्रता के बाद जो शासन प्रणाली भारत को सौंपी वह नागरिक प्रशासन प्रणाली ही है जिसका कर्णधार भारत का संविधान होता है। यह संविधान भी इस देश के लोगों ने ही बनाया और इसे अपने ऊपर लागू करने की कसम 26 जनवरी, 1950 को खाई।
पिछले 76 सालों में हमने जो कुछ भी प्राप्त किया है वह इसी गणतन्त्र प्रणाली के अन्तर्गत प्राप्त किया है अतः चांद- सूरज तक पहुंचने वाले भारत की असल शक्ति यही गणतन्त्र है। नेताजी ने भी इसी गणतन्त्र की मजबूती के लिए 1940 तक महात्मा गांधी की कांग्रेस पार्टी में रहते हुए भारत के लोगों की मजबूती के लिए कई मन्त्र दिये। कांग्रेस पार्टी छोड़ने से पहले नेताजी अपनी पार्टी की समाजवादी सोच के नेताओं के बीच खासे लोकप्रिय थे, खासकर पं. जवाहर लाल नेहरू के वह बहुत निकट समझे जाते थे परन्तु सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू हो जाने पर वह गांधी जी को इस बात के लिए मनाना चाहते थे कि अंग्रेजों को इस मौके पर भारत से निकाल दिया जाये। गांधी जी ने भारत के लोगों से इस विश्व युद्ध में अंग्रेजों का साथ न देने का खुला आह्वान किया। उन्होंने भारत के लोगों से कहा कि वे ब्रिटिश सेना में भर्ती न हों। अंग्रजों को युद्ध लड़ने के लिए अपनी फौज में भारी संख्या में सैनिकों की जरूरत थी। कांग्रेस पार्टी ने युवाओं से भर्ती न होने की अपील की मगर एेसे समय में मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों से सौदा कर लिया। दूसरी तरफ हिन्दू महासभा व राजे-रजवाड़ाें ने भी यही काम किया। जिन्ना ने मुसलमानों से फौज में भर्ती होने की अपील की और हिन्दू महासभा ने हिन्दुओं से। असल में भारत को हिन्दू- मुसलमान के आधार पर बांटने की नींव अंग्रेजों ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ही रख दी जिसमें मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा उसकी मदद कर रहे थे।
नेताजी ऐसे ही अवसर पर भारत से अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी पहुंचे हालांकि वह रूस जाना चाहते थे मगर उस समय ऐसा बानक ही नहीं बन पाया। जर्मनी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहा था अतः नेताजी ने उसकी मदद लेना उचित समझा और उन्होंने जर्मनी व उसके मित्र देशों द्वारा बन्दी बनाये गये भारतीय फौजियों की पहले से ही गठित आजाद हिन्द फौज को मजबूत बनाते हुए उसकी कमान संभाली और उसमें गांधी ब्रिगेड से लेकर नेहरू ब्रिगेड तक का गठन किया। इसका मतलब सीधा था कि नेताजी भारत में कांग्रेस द्वारा अंग्रजों के खिलाफ चलाये जा रहे अहिंसक आन्दोलन के खिलाफ नहीं थे मगर वह सैनिक मोर्चे पर भी अंग्रेजों को कमजोर करना चाहते थे। इसका दूसरा सबूत यह भी है कि महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ सम्बोधित करने वाले पहले व्यक्ति वही थे। यह सम्बोधन उन्होंने भारतीयों के नाम अपने एक रेडियो सन्देश में किया था। इसके बाद ही गांधी जी पूरे देश के राष्ट्रपिता कहलाने लगे लेकिन कांग्रेस में ही रहते हुए नेताजी ने 1938 के कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए भारत के आम लोगों की आर्थिक स्थिति को सुधारने व समग्र भारतीय विकास के लिए पांच साला ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ गठित करने का प्रस्ताव किया। उनके इस प्रस्ताव से उस समय कांग्रेस के भीतर का रूढ़ीवादी या दक्षिण पंथी गुट बुरी तरह बौखला गया था और गांधी जी पर दबाव डालने लगा था कि वह सुभाष की तेज रफ्तार रोकने के लिए कुछ करें। मगर स्वतन्त्रता के बाद पं. नेहरू ने नेताजी के इस सुझाव को राष्ट्रीय योजना आयोग बना कर लागू किया। कहने का आशय यह है कि आजादी की लड़ाई लड़ने वाले हमारे राष्ट्रीय नेताओं में वैचारिक भिन्नता जरूर हो सकती है मगर एक-दूसरे के लिए उनमें गजब का सम्मान भाव था।
गणतन्त्र में मिला एक वोट का अधिकार लोगों में यही भावना भरता है। ये लोग अलग-अलग पार्टियों के समर्थक हो सकते हैं और अलग- अलग पार्टियों को वोट भी दे सकते हैं मगर वैचारिक स्वतन्त्रता के लिए एक-दूसरे का सम्मान करना उनका दायित्व होता है क्योंकि उनके एक वोट की ताकत पर जो भी सरकार बनेगी वह सभी की सरकार होगी। अतः गणतन्त्र हमें पहला सबक यही देता है कि पूरे भारत में आपसी प्रेम व सौहार्द का होना एक वोट के अधिकार का अन्तर्निहित गुण है। यह एक वोट ही किसी टाटा या बिड़ला को स्वतन्त्र भारत में किसी मजदूर या रिक्शा चालक के बराबर लाकर बैठाता है क्योंकि दोनों के वोट की कीमत एक है। गांधी इस देश के सबसे गरीब आदमी को यही बादशाहत देकर गये हैं जिसकी कद्र करना और रक्षा करना हर नागरिक का पहला धर्म बनता है। जो लोग इसका सौदा करते हैं या सौदा करने का ठेका लेते हैं वे भारत में फिर से राजतन्त्र का सपना साकार करना चाहते हैं। वोटों के व्यापारी जो नेता पैदा होते हैं वे लोकतन्त्र में खुद को राजा ही समझते हैं। जबकि ऐसे राजा के वोट और एक मजदूर-किसान के वोट की कीमत भी बराबर होती है।

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