उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को स्थानीय निकाय चुनावों में ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर राहत मिल ही गई। सुप्रीम कोर्ट ने योगी सरकार के हक में फैसला देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए तीन महीने तक निकाय चुनावों को टाल दिया है। इन तीन महीनों में पिछड़ा वर्ग आयोग आरक्षण की रिपोर्ट पेश करेगा और तब जाकर चुनाव होंगे। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ओबीसी आरक्षण रद्द करते हुए योगी सरकार से कहा था कि वह आरक्षण के बिना तत्काल शहरी निकाय चुनाव कराएं। उत्तर प्रदेश में विपक्षी दल इस मुद्दे पर योगी सरकार को घेरने का हरसम्भव प्रयास कर रहे थे और आरोप लगा रहे थे कि सरकार ओबीसी को आरक्षण देना ही नहीं चाहती। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा ने विपक्ष से हथियार छीन लिया है। निकाय चुनावों में ओबीसी आरक्षण पर न केवल उत्तर प्रदेश में बल्कि बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में भी पेच फंस चुका है। आरक्षण का प्याला एक ऐसा अमृत प्याला बन चुका है जिसे हर राजनीतिक दल पी लेना चाहता है। कोई भी राजनीतिक दल इस मुद्दे को छोड़ना नहीं चाहता।
उत्तर प्रदेश के नगर निकायों का कार्यकाल 19 जनवरी तक समाप्त हो रहा है और राज्य में 760 निकायों में चुनाव होना है। गत 5 दिसम्बर को योगी सरकार ने चुनाव को लेकर आरक्षण की अधिसूचना जारी की थी लेकिन कुछ लोग इसके िखलाफ हाईकोर्ट पहुंच गए। हाईकोर्ट में याचिकाकर्ताओं की तरफ से दलील दी गई िक योगी सरकार ने आरक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट के ट्रिपल टैस्ट फार्मूले का इस्तेमाल नहीं किया है। ट्रिपल टैस्ट दरअसल आरक्षण का त्रिस्तरीय मूल्यांकन है। दो वर्ष पहले महाराष्ट्र में नगर निकाय चुनावों को लेकर जब पेच फंसा था तब सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि अगर कोई राज्य सरकार, नगर निकाय चुनाव में ओबीसी वर्ग के लिए सीटें आरक्षित करना चाहती हैं, तो उससे पहले उसे एक डेडिकेटेड ओबीसी कमीशन का गठन करना पड़ेगा, ताकि राज्य में पिछड़ेपन को लेकर जानकारी जुटाई जा सके। आरक्षण की व्यवस्था इस तरीके से की जाए कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी को मिलाकर 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण की सीमा का उल्लंघन ना हो। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में साफ तौर पर कहा है कि स्थानीय निकाय चुनाव में पिछड़े वर्ग को आरक्षण तभी दिया जा सकता है जब सरकार ट्रिपल टैस्ट कराए। सरकार को यह पता लगाना चाहिए कि किस वर्ग को पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है।
महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में भी ऐसे ही चुनाव की घोषणा करने के बाद रोक लगा दी गई थी, जिसके बाद मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने ओबीसी के आंकड़े को पेश किया था, इसके बाद शहरी चुनाव हो सके थे। इसी संबंध में पटना हाईकोर्ट का मानना था कि बिहार में नगर निकाय चुनाव में ओबीसी और ईबीसी वर्ग को आरक्षण देने की जो व्यवस्था बनाई गई थी, वह सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण के ट्रिपल टैस्ट से जुड़े दिशा-निर्देशों के खिलाफ था। ऐसे में पटना हाईकोर्ट ने राज्य निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया था कि वह नगर निकाय चुनाव पर रोक लगाए और ओबीसी वर्ग के लिए जो सीटें आरक्षित की गई थीं, उन्हें सामान्य वर्ग की सीटें घोषित करें। इसके बाद राज्य सरकार ने 19 अक्तूबर, 2022 को अति पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। इसका उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अनुसार आरक्षण की अनुशंसा करना था। दरअसल ट्रिपल टैस्ट आधारित आरक्षण में पहले चरण में सरकार को एक समर्पित आयोग का गठन करना होता है जो यह तय करना है कि आरक्षण देने से लाभार्थियों पर क्या असर पड़ेगा जिसके लिए आरक्षण का दायरा बढ़ाया जाएगा। क्या उसे इसकी जरूरत है भी या नहीं? आरक्षण को लेकर कानूनी दांव पेच चलते रहते हैं। निकाय चुनावों का सीधा संबंध आम जनता से होता है क्योंकि जन्म प्रमाण पत्र से लेकर मृत्यु प्रमाण पत्र तक बनाने का काम स्थानीय निकाय ही करते हैं। इसके अलावा पानी, गलियां, खड़ंजे और आम जनता को जीने लायक बुनियादी सुविधाएं देने का काम भी निकाय ही करते हैं। दरअसल राज्य सरकारें मनमाने ढंग से आरक्षण का इस्तेमाल करती रही हैं और ऐसे मनमाने आरक्षण को ही अदालतें रद्द करती रही है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को फिर से सही ढंग से लागू करने का रास्ता खोल दिया है। अब उत्तर प्रदेश में सही तरीके से ओबीसी आरक्षण तय होने के बाद चुनाव हो सकेंगे। फिलहाल योगी सरकार ने एक बड़ी कानूनी लड़ाई जीत ली है।