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मणिपुर में शान्ति बहुत जरूरी

मणिपुर में हिंसा रुकने का नाम ही नहीं ले रही है जिससे पता चलता है कि राज्य में दो जन जातियों ‘मैतेई व कुकी-जोमी’ के बीच किस हद तक रंजिश व दुश्मनी बढ़ चुकी है।

मणिपुर में हिंसा रुकने का नाम ही नहीं ले रही है जिससे पता चलता है कि राज्य में दो जन जातियों ‘मैतेई व कुकी-जोमी’ के बीच किस हद तक रंजिश व दुश्मनी बढ़ चुकी है। विगत रात्रि को तीन कुकी समुदाय के लोगों की हत्या उस गांव में हुई है जो अभी तक पिछले तीन महीने से चल रही हिंसा के दौरान शान्त था व कुकी और मैतेई बहुल जिलों से दूर था। ये तीनों लोग अपने गांव की सुरक्षा के लिए पहरा दे रहे थे। मगर इस ताजा हिंसा से जो ‘तुरन्त निष्कर्ष’ निकाला जा सकता है वह यह है कि राज्य में भारी पुलिस बल व सुरक्षा बलों की मौजूदगी होने के बावजूद समूह गत हिंसा रुक नहीं पा रही है औऱ एक ही राज्य के दो समुदायों के लोग एक-दूसरे की जान के दुश्मन बने हुए हैं। अतः प्रशासन को एेसे कदम उठाने की सख्त जरूरत है जिससे राज्य में अमन-चैन का माहौल स्थापित हो सके। इस बारे में एक सुझाव यह है कि राज्य में भारतीय सेना को पूरे अख्तियार देकर शान्ति स्थापित करने की जिम्मेदारी सौंपी जाये। 
यह सर्व विदित तथ्य है कि भारतीय सेनाएं विदेशों में बेकाबू वर्गगत हिंसा ग्रस्त क्षेत्रों में राष्ट्रसंघ के शान्ति स्थापित करने के प्रयासों में शामिल होकर अपनी भूमिका बहुत ही कारगर तरीके से निभाने के लिए मशहूर हैं। इसके साथ ही भारत के आन्तरिक क्षेत्रों में भी जब-जब हालात बेकाबू होते हैं तो सेना का प्रयोग किया जाता है और इसके रणबाकुरे वीर जवान हमारे नागरिकों की बिना किसी भेदभाव के सुरक्षा करते हैं। मणिपुर में हालत यदि यह है कि यहां की पुलिस ‘असम राइफल्स’ के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट दर्ज करा रही है तो स्थिति की गंभीरता और भयावहता का अन्दाजा कोई भी सुविज्ञ नागरिक आसानी से लगा सकता है। एक ही राज्य में यदि पुलिस और सुरक्षा बलों की पहचान भी वर्गगत हिसाब से होने लगे तो दोनों वर्गों के बीच रंजिश की खाई को कैसे पाटा जा सकता है? उत्तर पूर्वी पहाड़ी राज्यों को भारत माता का माथा (जेनिथ) कहा जाता है। इन राज्यों को भारतीय संघ का भाग बनाये रखने के लिए हमारे पूर्वज राजनेताओं ने कड़ी मेहनत व मशक्कत की है, खास कर नगालैंड को जहां अंग्रेजों के शासनकाल से ही विद्रोही गतिविधियां जारी थीं। मणिपुर से लगे मिजोरम राज्य को भी भारत का हिस्सा बनाये रखने के लिए हमारी सेना के जांबाज जवानों ने कुर्बानियां दी हैं वरना इस राज्य का एक जमाने का विद्रोही नेता ललदेंगा करांची में बैठ कर इसे स्वतन्त्र देश बनाने के सपने देखा करता था और उसके सिर पर पाकिस्तान व चीन दोनों का हाथ था। 
यह इतिहास लिखने का अब कोई औचित्य नहीं है क्योंकि 1966 के बाद से असम के सैद्धान्तिक रूप से छह राज्यों में विभाजित होने के बाद इन राज्यों के लोग सच्चे मन व कर्म से स्वयं को भारत का उतना ही हिस्सा मानते हैं जितने कि अन्य राज्य व वहां के नागरिक। इन राज्यों के लोगों की भारत की प्रशासनिक व्यवस्था से लेकर सेना व अन्य नागरिक सेवा के क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपस्थिति देखी जा सकती है। अतः मणिपुर का प्रश्न समूचे भारत की एकात्मता का भी है। इस राज्य की जातीय हिंसा को हमें जल्द से जल्द समाप्त करना ही होगा और भारत की ‘विविधता में एकता’ की छवि को अक्षुण्ण रखना होगा। कुकी व नगा भी भारत के उतने ही सम्मानित नागरिक हैं जितने कि मैतेई। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत जी-20 देशों के सम्मेलन का मेजबान है और मणिपुर की घटनाएं विश्व के अन्य देशों में भारत की छवि को गलत तरीके से पेश कर सकती हैं। यदि यूरोपीय संसद से लेकर ब्रिटेन की संसद व अन्य सभ्य देशों में मणिपुर की शर्मनाक व अमानवीय घटनाओं की चर्चा होती है तो भारत के सम्मान पर आंच आती है। हमें सावधान होना होगा कि आर्थिक जगत में भी मणिपुर व नूंह हिंसा की स्थिति भारत के लिए विपरीत असर डाल सकती है।
 विश्व की प्रतिष्ठित आर्थिक श्रेणी( रेटिंग) एजेंसी ‘मूडी’ यदि यह कहती है कि भारत की विकास वृद्धि दर बहुत अच्छी रहेगी बशर्ते इस देश में मणिपुर जैसी वर्गगत हिंसा की परिस्थितियां न बनने पायें। यह तो सर्वमान्य सत्य है कि कोई भी देश तभी आर्थिक प्रगति कर सकता है जब इसके समाज के सभी अंगों में आपसी प्रेम व भाईचारा हो। आखिरकार विकास तो लोगों की सहभागिता से ही होता है। अगर वे लोग आपस में ही लड़ते रहेंगे और एक-दूसरे को ही अपना दुश्मन मानते रहेंगे तो विकास किस प्रकार होगा? जब मूडी भी यह मान रही है कि भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी बिना सामाजिक शान्ति व सौहार्द के  संभव नहीं है तो हमें मणिपुर में शान्ति स्थापित करने के सभी संभव उपाय करने होंगे। यह प्रश्न राजनीति से ऊपर का है। राष्ट्रीय एकता व शान्ति बनाये रखने के लिए दल-गत राजनीति का कोई अर्थ नहीं होता। वैसे भी स्वतन्त्रता के बाद से भारत की यह परंपरा रही है कि राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने के लिए दलगत राजनीति को एक तरफ कर दिया जाता है क्योंकि देश के सभी राजनैतिक दल भारत के संविधान के प्रति अपनी निष्ठा जता कर ही देश प्रेम की सौगंध खाते हैं। हमारी राजनैतिक व्यवस्था  भी ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ के सिद्धान्त से ‘पागी’ हुई है। हालांकि सभी राजनैतिक दलों के इसे सर्वोच्च बनाये रखने के लिए विचार व रास्ते अलग-अलग होते हैं मगर मंजिल ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ ही होती है क्योंकि बाबा साहेब अम्बेडकर का लिखा  भारत का संविधान इसी लक्ष्य का प्रतिपादन करता है।

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