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इंडिया गठबंधन की दिक्कतें

देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस की अगुवाई में बने भाजपा विरोधी राष्ट्रीय गठजोड़ ‘इंडिया गठबंधन’ के ‘तार’ क्या ढीले हो रहे हैं विशेषकर बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार के पाला बदल कर सत्तारूढ़ गठबंधन ‘एनडीए’ में जाने के बाद? इसका उत्तर इतना आसान नहीं है जितना ऊपर से दिखाई पड़ रहा है क्योंकि आगामी लोकसभा चुनाव मुख्य रूप से दो राष्ट्रीय विचारधाराओं की लड़ाई होगी जिसमें एक के सिरे को राहुल गांधी ने थाम रखा है और दूसरे के सिरे को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पकड़े हुए हैं। लोकसभा चुनावों की जो भी रणनीतिक बिसात इन दोनों गठबन्धनों द्वारा बिछाई जाएगी वह विचारों के विमर्शों पर ही आधारित होगी। अतः महत्वपूर्ण यह नहीं होगा कि कितने दल और नेता किस गठबन्धन के साथ रहते हैं बल्कि महत्वपूर्ण यह होगा कि जितने दल और नेता जिस भी गठबन्धन के साथ रहते हैं वे विचारधारा के मोर्चे पर प्रतिबद्ध रहते हैं कि नहीं। सत्ताधारी एनडीए गठबन्धन में भारतीय जनता पार्टी केन्द्रीय आकर्षण है और यह गठबन्धन को अपेक्षाकृत कस कर आपस में मजबूती से इसमें शामिल सभी दलों को बांधे हुए हैं परन्तु इंडिया गठबन्धन बहुत खुला ढीलमढाला सा गठबन्धन है जिसमें कांग्रेस पार्टी की प्रमुख भूमिका है क्योंकि यह इस गठबन्धन की एकमात्र एेसी राष्ट्रीय पार्टी है जिसके पास 60 वर्ष से अधिक का देश पर शासन करने का अनुभव है। अतः इसकी देश की आन्तरिक नीतियों से लेकर विदेश नीति तक की समझ बहुत स्पष्ट और पारदर्शी है। इसकी राष्ट्रीय वरीयताओं में सबसे पहले भारत की वह उदार विश्व ताकत ( साफ्ट पावर) आती है जिसका अविभाज्य अंग धर्म निरपेक्षता व सत्ता का विकेन्द्रीकरण, पंचशील विदेश नीति और उदात्त लोकतन्त्र माने जाते हैं जबकि भाजपा सुगठित लोकतन्त्र के ढांचे में राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से ताकतवर भारत को हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद के सांचे में विकसित होते देखना चाहती है। कांग्रेस की विचारधारा भारत के लोगों को मजबूत बनाकर देश की मजबूती की पैरोकार है जबकि भाजपा की विचारधारा राष्ट्र को मजबूत बना कर लोगों के मजबूत होने की पैरोकारी करती है। असल में लोकसभा चुनावों में इन दोनों विचारधाराओं की ही टकराहट होगी। यह टकराहट असाधारण भी हो सकती है क्योंकि दोनों गठबन्धनों के स्रोतों में जमीन- आसमान का अंतर है परन्तु विचारधाराओं की लड़ाई जब होती है तो स्रोतों की अल्प उपलब्धता के कोई मायने नहीं रहते हैं क्योंकि विचारधारा मतदाताओं को दिमागी रूप से बहुत सशक्त बनाने की क्षमता रखती है लेकिन मौजूदा दौर में इंडिया गठबंधन के घटक दलों को आपस में ही लड़ता देखकर हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि इसमें कलह का वास हो चुका है जिसका परिणाम इसके कमजोर होने में हो सकता है परन्तु राजनीति को विज्ञान भी कहा जाता है। इसका अर्थ यही होता है कि ऊपर से दिखने वाली चीजें अन्दर से अलग होती हैं। इंडिया गठबन्धन की शक्ति भाजपा के समक्ष बहुत कम मानी जा रही है क्योंकि एनडीए के पास जनता में लोकप्रिय नेता श्री नरेन्द्र मोदी हैं जिनके नाम पर ही भारत के मतदाता वोट डालना पसन्द करते हैं। उनकी निजी लोकप्रियता कई प्रकार के वैचारिक विमर्शों को परे धकेलकर विजयी मुद्रा में रहने का प्रमाण भी प्रस्तुत करती है जैसा कि हमने छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश व राजस्थान में हाल में ही विधानसभा चुनावों में देखा। इन चुनाव परिणामों से भी भाजपा के पक्ष में माहौल बना है जिसे राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो न्याय यात्रा निकाल कर निष्प्रभावी करना चाहते हैं। वह जो विमर्श लेकर चल रहे हैं वह कांग्रेस का वही विमर्श है जिसके आधार पर भारत का संविधान लिखा गया। भाजपा का विकास व उदय भी इसी संविधान के आधार पर ही हुआ है जिसके मूल में संसदीय चुनावी लोकतान्त्रिक व्यवस्था है। अतः बहुत आवश्यक है हम इस व्यवस्था की वस्तुगत समीक्षा वर्तमान सन्दर्भों में करें और फिर किसी निष्कर्ष पर पहुंचे। भाजपा के उद्गम काल जनसंघ से लेकर ही हिन्दुत्व इसकी विचारधारा का मूल रहा है और इसी के बूते पर यह आज सत्ता पर भी काबिज हुई है अतः वह अपनी विचारधारा को कैसे छोड़ सकती है। सवाल यह नहीं है कि ममता दीदी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के विरुद्ध ही इंडिया गठबन्धन में रहते हुए लड़ रही हैं और अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पंजाब व हरियाणा में इसी गठबंधन का सदस्य रहते कांग्रेस के खिलाफ लड़ने की बात कर रही है, बल्कि असली सवाल यह है कि इसका असर सत्ताधारी भाजपा गठबन्धन पर चुनावी हानि-लाभ के समीकरणों के तहत किस प्रकार पड़ेगा? उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष श्री अखिलेश यादव ने राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस को केवल 11 सीटें देने का जो इकतरफा ऐलान किया है उसका असर गठबन्धन की हार-जीत के समीकरणों पर कैसा पड़ेगा? जाहिर है कि समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है और वह चुनाव हारने के लिए नहीं बल्कि जीतने के लिए ही लड़ रही है अतः उसने जो सीटों का बंटवारा किया है वह अपनी स्थिति को मजबूत रखने की गरज से गठबंधन के हित में ही किया है क्योंकि गठबंधन से बाहर आते ही उसकी शक्ति बहुत कम हो जाएगी। राष्ट्रीय चुनाव उसे अन्ततः कांग्रेस के वैचारिक विमर्श पर ही लड़ना है। विडम्बना यह है कि इंडिया गठबंधन को अपना वैचारिक विमर्श इन्हीं विरोधाभासी परिस्थितियों के बीच जनता तक पहुंचाना होगा जबकि भाजपा का गठबंधन एनडीए अन्दर और बाहर से एक निष्ठ है।

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