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प्रचार बन्द, विचार-मंथन चालू !

राजस्थान में आज चुनाव प्रचार थम गया है। 25 नवम्बर को मतदान होगा और प्रदेश की जनता अपनी मन माफिक सरकार चुनेगी। राजस्थान बहुत ही शान्त प्रदेश माना जाता है जिसमें साम्प्रदायिक सौहार्द हमेशा चरम पर रहता आया है। बेशक कुछ मामलों में पूर्व में यहां कुछ एेसी शक्तियां समाज को तोड़ने में सीमित रूप से सफल भी रही हैं जिन्हें इस राज्य की रंग-रंगीली संस्कृति के चलते अपने मंसूबे पूरे करने में दिक्कत महसूस होती थी परन्तु इसके बावजूद यहां के लोग धार्मिक होने के बावजूद कभी भी कट्टरपंथी नहीं रहे हैं। इसकी असली वजह यही है कि यहां की संस्कृति में महाराणा प्रताप के साथ ही उनके प्रधान सेनापति ‘हकीम खान सूर’ का भी बराबर का सम्मान होता रहा है जिन्होंने एेतिहासिक हल्दी घाटी के युद्ध में मुगल बादशाह अकबर की फौजों का डट कर मुकाबला करते हुए वीरगति को प्राप्त किया था। आधुनिक समय में इस राज्य की राजनीति में ‘बरकतुल्लाह खान’ भी 1972 से 1974 तक मुख्य मन्त्री रहे जिन्होंने राजस्थान की राजपूती शान में ही चार चांद लगाने का काम किया। मगर इस बार राजस्थान में जो चुनावी माहौल बना हुआ है वह अद्भुत इस मायने में है कि इसकी राजनीति की चर्चा आज पूरे देश के विभिन्न राज्यों में पिछले पांच साल से चल रहे इसके शासन करने के तरीके को लेकर हो रही है।
मुक्त या खुली बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में क्या कोई राज्य सरकार जन कल्याणकारी राज के संवैधानिक मानक को स्थापित करने में सफल हो सकती है? और इसी पर राज्य की दो प्रमुख पार्टियां कांग्रेस व भाजपा आपस में उलझ रही हैं। बेशक भाजपा इस मुद्दे को अलग तरीके से उठा रही है और कांग्रेस अलग तरीके से परन्तु चुनावी विमर्श के केन्द्र में यही विषय बना हुआ है। दोनों पार्टियों के घोषणा पत्रों में आम जनता को सुविधाएं देने का वादा किया जा रहा है परन्तु भारत गांधी का देश है जिनका मानना था कि लोकतन्त्र में आम जनता को सुविधा या राहत शासन की कृपा से नहीं मिलती बल्कि उसके कानूनी अधिकार के रूप में दी जाती है क्योंकि जनता को आर्थिक रूप से ताकतवर बनाते हुए सामाजिक रूप से उसे वैज्ञानिक सोच की तरफ आगे बढ़ाना सरकारों का दायित्व होता है। यह बात केवल गांधी ने ही कही हो एेसा भी नहीं है बल्कि उनसे पहले भारत मनीषी स्वामी विवेकान्नद ने भी इस बात को इस तरह कहा कि ‘किसी भी देश की प्रगति या विकास का अन्दाजा उसके लोगों की स्थिति को देख कर ही किया जाता है’। अतः आसानी से समझा जा सकता है कि महात्मा गांधी ने लोकतन्त्र में लोगों के अधिकार को इसकी शर्त क्यों बताया। इसका एक कारण औऱ भी है कि लोकतन्त्र में हर पांच साल बाद जो चुनाव होते हैं वे राजनीतिज्ञों द्वारा की गई सेवा की ‘मजदूरी’ देने के लिए होते हैं। इस प्रणाली में जो भी सरकार बनती है वह लोगों की पांच साल के लिए नौकर होती है क्योंकि उसे तनख्वाह सरकार द्वारा लोगों से विभिन्न शुल्कों व करों की मार्फत इकट्ठा किये गये धन से ही मिलती है।
पांच साल के लिए जिस भी राजनैतिक दल की सरकार बनती है वह लोगों की सम्पत्ति की अभिभावक (केयर टेकर) मात्र होती है अतः हर पांच साल बाद लोकतन्त्र की असली मालिक जनता सरकार से हिसाब मांगने का अधिकार रखती है और सवाल कर सकती है कि पिछले पांच सालों में उसने उनके कल्याण के लिए और उनकी सम्पत्ति की सुरक्षा व उसमें इजाफा करने के लिए क्या-क्या कदम उठाये। कल्याणकारी राज का यही मन्त्र होता है जिसे भारतीय संविधान में स्थापित किया गया है। यह प्रशन्नता की बात है कि राजस्थान के चुनावों में इस बार इसी कोण पर राजनैतिक विमर्श टिका हुआ है और उन कानूनों व योजनाओं या स्कीमों की चर्चा हो रही है जो पिछले पांच सालों में कांग्रेस की अशोक गहलौत सरकार ने लागू की हैं।
हालांकि राज्य की विपक्षी पार्टी भाजपा इन मुद्दों से इतर भी कुछ सवाल उठा रही है और जनता का ध्यान उनकी तरफ खींचने की भी कोशिश कर रही है परन्तु जन विमर्श में जनता के असली मुद्दे ही समाये हुए लगते हैं। असली मुद्दे वे होते हैं जिनका सीधा सम्बन्ध आम आदमी की जिन्दगी से होता है जिनमें महंगाई से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार आदि सभी आ जाते हैं और राज्य के खेती पर निर्भर अधिसंख्य लोगों की आमदनी व आजीविका का सवाल भी जाकर जुड़ता है। वास्तव में चुनाव प्रचार होता भी इसलिए है कि राजनैतिक दल लोगों को उनके मूलभूत मुद्दों के बारे में शिक्षित कर सकें और बताये कि उनकी राजनीति का उद्देश्य हर नागरिक के जीवन मंे बेहतर सुधार लाने का है और उसे मजबूत बनाते हुए समाज को आगे ले जाने का है जिससे देश आगे बढ़ सके और मजबूत हो सके। चुनावों के अवसर को लोकतन्त्र में राजनैतिक पाठशाला इसीलिए कहा जाता है जिससे लोग अधिकाधिक रूप से अपने अधिकारों के प्रति सजग होते हुए खुद को सरकारी नीतियों से सशक्त बनाते हुए राष्ट्र को मजबूत कर सकें।

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