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दिल्ली सरकार के अधिकार

सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायमूर्तियों की संवैधानिक पीठ ने आज राजधानी की सरकार के अधिकारों के बारे में जो ऐतिहासिक फैसला दिया है उससे दिल्ली के मतदाताओं में यह आस बंधनी लाजिमी है कि अब उनकी समस्याओं काे हल करने को लेकर उच्च प्रशासनिक स्तर पर राजनीति नहीं होगी

सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायमूर्तियों की संवैधानिक पीठ ने आज राजधानी की सरकार के अधिकारों के बारे में जो ऐतिहासिक फैसला दिया है उससे दिल्ली के मतदाताओं में यह आस बंधनी लाजिमी है कि अब उनकी समस्याओं काे हल करने को लेकर उच्च प्रशासनिक स्तर पर राजनीति नहीं होगी और दिल्ली के मुख्यमन्त्री व उपराज्यपाल के बीच चलने वाली ‘लाग-डांट’ बन्द होगी। मुख्य न्यायाधीश श्री वाई.वी. चन्द्रचूड़ ने पूरी पीठ के सर्वसम्मत फैसले को सुनाते हुए स्पष्ट आदेश दिया कि केवल तीन मामलों -पुलिस, कानून-व्यवस्था व जमीन को छोड़ कर शेष सभी प्रशासनिक व सेवा मामले सीधे दिल्ली सरकार के नियन्त्रण में इस प्रकार रहेंगे कि इनमें काम करने वाले सभी ऊपर से लेकर नीचे तक अफसर व कर्मचारी राजधानी की चुनी हुई सरकार के प्रति जवाबदेह होंगे, चाहे उनकी नियुक्ति की संस्था कोई हो। इसका मतलब यह हुआ कि दिल्ली में केवल तीन मामलों को छोड़ कर शेष सभी विभाग सीधे दिल्ली सरकार के अधीन काम करेंगे और मुख्यमन्त्री के नेतृत्व में बने मन्त्रिमंडल के सदस्यों के निर्देशों पर काम करेंगे।
लोकतन्त्र में चुनावों के जरिये जो सरकार गठित की जाती है उसका मतलब भी यही होता है कि वह लोगों की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखने की गरज से एेसी नीतियों का निर्माण करेगी जिनसे उनकी समस्याएं सुलझे। यह काम सरकार कार्यपालिका अर्थात विभिन्न विभागों के अफसरों व कर्मचारियों की मार्फत ही करती है। अगर कार्यपालिका के इस अमले को यह पता हो कि जो सरकार विधानसभा में बैठकर नीतियां बनाती है और उन पर अमल करने के लिए उनसे कहती है मगर वह उन्हें जवाब तलब नहीं कर सकती तो वे उसकी बात क्यों सुनेंगे? लोकतान्त्रिक व्यवस्था में प्रशासन की अंतिम जिम्मेदारी उस विभाग के प्रभारी की ही होती है क्योंकि तत्संबंधी पूरा प्रशासन उसके अधीन ही काम करता है परन्तु दिल्ली के मामले में गजब की व्यवस्था थी कि फैसले तो दिल्ली सरकार लेगी मगर प्रशासनिक मामले में राज्यपाल के निर्देशों का ताबेदार होगा। दिल्ली सरकार इस व्यवस्था के खिलाफ पिछले आठ साल से लड़ रही थी और अदालतों के दरवाजे खटखटा रही थी। दरअसल 22 मई 2015 को केन्द्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी करके निर्देश दिये थे कि दिल्ली का प्रशासन उपराज्यपाल के अधीन काम करेगा। इससे दिल्ली में अजीब कशमकश की स्थिति पैदा हो गई। दिल्ली सरकार विधानसभा में अपना बहुमत होने की वजह से दिल्ली की व्यवस्था के बारे में कोई भी फैसला कर सकती थी और बजट भी पारित करा सकती थी मगर उसे लागू करने वाली कार्यपालिका उपराज्यपाल के आदेश के बिना अपनी कुर्सी से नहीं हिलती थी। इसकी शिकायत लेकर मुख्यमन्त्री उपराज्यपाल के दफ्तर की दौड़ लगाते रहते थे और कभी-कभी बात धरना-प्रदर्शन तक की आ जाती थी। इससे जनता में यह सन्देश जाता था कि उन्होंने अपना वोट देकर जो सरकार राजधानी में गठित की है वह उपराज्यपाल से अपने फैसलों को लागू कराने के लिए ही उलझती रहती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस अन्तर्विरोधी स्थिति को न पनपने देने की गरज से भी महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है और साफ कहा है कि उपराज्यपाल दिल्ली सरकार या मन्त्रिमंडल की सलाह से ही बंधे रहेंगे और वही फैसला करेंगे जो जिसकी सिफारिश सरकार करेगी। बेशक दिल्ली एक पूर्ण राज्य नहीं हैं और केन्द्र में नरसिम्हा राव सरकार के रहते संसद में विशेष कानून बना कर इसे ऐसा केन्द्र प्रशासित राज्य बनाया गया जिसमें विधानसभा भी होगी। इसके साथ ही सरकार के अधिकार भी निर्धारित किये गये मगर पुलिस, जमीन, कानून-व्यवस्था (पब्लिक आर्डर) को छोड़ कर सामान्य प्रशासन की जिम्मेदारी इसे दी गई और इसकी विधानसभा को राज्य सूची में शामिल कानूनों को बनाने की जिम्मेदारी भी दी गई। साथ ही कुछ विशेषाधिकार केन्द्र सरकार को दिये गये परन्तु मुख्यमन्त्री श्री केजरीवाल के अनुसार मई 2015 में केन्द्र ने एक अधिसूचना जारी करके उनकी स्थिति उस तैराक की तरह बना दी जिसके दोनों हाथ पीछे बांध कर उसे नदी में तैरने के लिए छोड़ दिया गया हो। हालांकि 2019 में न्यायालय ने फैसला दिया था कि प्रशासन पर उपराज्यपाल का ही अधिकार रहना चाहिए मगर सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने इस फैसले को उचित नहीं माना और अपना नया फैसला दिया।
दिल्ली के सामान्य मतदाता के मन में यह सवाल उठता रहता था कि जब उसके द्वारा चुनी गई सरकार के पास कोई अधिकार ही नहीं है तो फिर उसके मत देने का क्या मतलब है? लोकतन्त्र में मतदाता के मन में इस विचार का जन्म लेना ही पूरी व्यवस्था की सार्थकता पर सवालिया निशान जड़ने के समान देखा जाता है। अतः सर्वोच्च न्यायालय का फैसला समग्र रूप से लोकतन्त्र को मजबूत करने की निगाह से भी देखा जा रहा है। इस फैसले को केवल इकतरफा भी नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि इसके आने के बाद दिल्ली की सरकार की जवाबदेही में भी बढ़ाैतरी होगी और उसे दिल्ली के प्रशासन में चुस्ती-फुर्ती लाते हुए उसे आम जनता के प्रति सीधे जिम्मेदार बनाना होगा। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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