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चुनावी माहौल में शहीद-ए-आज़म

मार्च माह का उत्तरार्द्ध शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के परिवेश और उनके जीवन एवं आदर्शों को समर्पित होता है। इस दिन लाहौर में भी ‘कैंडल मार्च’ निकलते हैं, नुक्कड़ नाटक होते हैं और शादमान चौक के इर्द-गिर्द हजारों की संख्या में शहीद-ए-आज़म के दीवाने एकत्र होकर ‘इन्कलाब जि़ंदाबाद’ और ‘शहीद-ए-आज़म अमर रहे’ के नारे लगाते हैं। अब उम्मीद की जा रही है कि वहां की न्यायपालिका के आदेश पर ‘शादमान चौक’ का नाम अधिकृत रूप से ‘भगत सिंह चौक’ रख दिया जाएगा। हमारे अपने देश में लगभग लगभग 2800 स्थानों पर शहीद-ए-आज़म की प्रतिमाएं हैं। हर स्थान पर शहीद-ए-आज़म को याद किया जाता है। बापू गांधी की प्रतिमाओं के बाद इसी शहीद की प्रतिमाएं हैं।
इन दिनों हमारे देश में चुनावों का मौसम है। शहीद-ए-आज़म के उत्तराधिकारियों एवं परिजनों द्वारा भी स्वतंत्र भारत में चुनावी-युद्ध भी लड़े गए। भगत सिंह के भाई कुलतारपुर सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) से विधायक रहे और उत्तर प्रदेश की एमडी तिवारी सरकार में मंत्री भी रहे। वर्ष 2004 में उनका भी निधन हो गया था। उनके सभी परिजन अब विदेश में रहते हैं। भगत सिंह के एक भाई कुलबीर सिंह जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में फिरोजपुर विधानसभा क्षेत्र से चुने गए थे। कुलबीर सिंह के चुनाव अभियान में शहीद-ए-आज़म की माता विद्यावती भी सक्रिय रहीं थीं। बाद में कुलबीर सिंह के बेटे अभय सिंह ने भी चुनाव लड़ा और विधायक चुने गए। उनके बेटे अभितेज सिंह ‘आम आदमी पार्टी’ में सक्रिय रहे लेकिन वर्ष 2016 में एक सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई।
शहीद-ए-आज़म की एकमात्र जीवित बहन प्रकाश कौर अपने बेटे रूपिंद्र सिंह के साथ टोरंटो (कनाडा) चली गई थी। वहीं गत 28 सितम्बर, 2014 को उनका निधन हो गया। विचित्र संयोग था कि उसी दिन शहीद-ए-आज़म का जन्म दिवस भी था।
भगत सिंह की बहन बीबी अमरकौर के बेटे जगमोहन सिंह, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में सेवारत रहे और अब सेवामुक्ति के बाद कपूरथला में रह रहे हैं। उनका आरोप था कि केंद्रीय एजेंसियां लम्बी अवधि तक उनके पीछे लगी रहीं। एजेंसियों का यह अभियान पंडित जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद ही थमा। एजेंसियों के सूत्रों के अनुसार, जगमोहन सिंह प्रधानमंत्री के सुरक्षा अधिकारियों की नज़र में हत्या के षड्यंत्र में एक संदिग्ध था। बहरहाल, अब वह सक्रिय एवं स्वतंत्र जिंदगी बसर कर रहे हैं और लुधियाना में बसे हुए हैं। शहीद-ए- आज़म की भतीजी वीरेंद्र संधू और किरणजीत सिंह अभी भी सामाजिक जीवन में सक्रियता बनाए हुए हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शहीद-ए-आज़म के चाचा अजीत सिंह, पिता और दो अन्य बुजुर्ग भी स्वाधीनता संग्राम में पूरी तरह सक्रिय रहे थे।
एक अजब स्थिति यह भी है कि पंजाब में शहीद-ए-आज़म के पुश्तैनी गांव खटकड़कलां में भगत सिंह स्मारक पर पंजाब के राजनेता भी शपथ लेकर मस्तक झुकाने आते हैं। पूर्व वित्तमंत्री मनप्रीत सिंह बादल ने तो अपनी राजनीतिक पार्टी की शुरुआत यहीं से की थी। केजरीवाल, भगवंत सिंह मान, सुनील जाखड़, बादल-परिवार और कमोबेश सभी बड़े कांग्रेसी नेता भी यहां आकर शपथ व संकल्प लेते रहे हैं। मगर यहां पर अपने आगमन की खबरें छपवाने व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर छा जाने पर उन्हें कभी शहीद-ए- आज़म की याद नहीं आती। एक नेता ने यह तक कह दिया है कि शहीद-ए-आज़म की स्मारक पर आने के बाद कई बार तो उनका बेताल कंधे से ही नहीं उतरता और आज की राजनीति में भगत सिंह के आदर्शों पर चलें तो जमानतें भी नहीं बच पातीं।
शहीद-ए-आज़म पर सर्वाधिक शोधपरक काम एक प्रख्यात विद्वान प्रो. चमन लाल ने किया है। वह जेएनयू दिल्ली यूनिवर्सिटी व पंजाब यूनिवर्सिटी में भी पढ़ाते रहे हैं। अब तक अनेक देशों में भी भगत सिंह के राजनैतिक दर्शन व चिंतन और सरोकारों पर चर्चाएं एवं शोधपरक वक्तव्य देते रहे हैं। दर्जनों कृतियां, अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू व पंजाबी में दे चुके हैं। वह अपने आप में शहीद-ए-आज़म का एक स्मारक बन चुके हैं। भगत सिंह से जुड़े सभी प्रामाणिक दस्तावेज़ों का सरमाया, यदि देश में किसी एक व्यक्ति के पास सुरक्षित है तो वह प्रो. चमन लाल के पास हैं।
पड़ौसी पाकिस्तान में भगत सिंह के नाम को सदा चर्चा में बनाए रखने में सईदा दीप व एडवोकेट कुरैशी के नाम शिखर पर हैं।
खटकड़कलां स्मारक में प्रवेश करते ही पानीपत के एक शहीद क्रांतिकारी क्रांतिकुमार की फोटो दीवार से लगी है। इस शहीद को स्वतंत्र भारत में एक आंदोलन के दौरान जीवित जला दिया गया था। उनकी मृत्यु पर अनेक सरकारी घोषणाएं हुई थी। घोषणाएं करने वालों में श्रीमती इन्दिरा गांधी भी थी, पंजाब के एक मुख्यमंत्री कामरेड रामकिशन भी थे, मगर सभी घोषणाएं हवा में उड़ गईं। अब उनके परिवार की सुध लेने न तो पंजाब से कोई आता है, न हरियाणा से, न ही दिल्ली से। ऐसे सिलसिले हमारी सरकारों की कार्य संस्कृति का एक अंग बन चुके हैं।

– चंद्रमोहन

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