राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष श्री शरद पवार ने जिस तरह भारतीय लोकतंत्र में राजनीति के लगातार लालच से भरे सत्ता मूलक चेहरे को बेनकाब करने की कोशिश की है, उसके पीछे उनका लम्बा सियासी व प्रशासनिक अनुभव बोल रहा है। वर्तमान माहौल में उन जैसे कद्दावर नेता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राजनीतिक क्षितिज में फैली हुई उस गर्त को साफ करेंगे जिसने हिन्दोस्तान की सियासत को नफरत और हिंसा के जरिये अमन की तलाश करने के मुकाम पर लाकर पटक दिया है। श्री शरद पवार के बारे में यह प्रसिद्ध है कि उनकी पार्टी छोटी है मगर वह खुद बहुत बड़े नेता हैं। इसकी वजह यही है कि वह राष्ट्रीय समस्याओं पर दलगत सीमाएं तोड़कर अपनी बेबाक राय पेश करते हैं।
महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में छह महीने पहले हुई हिंसा के सिलसिले में पुणे पुलिस ने जिस तरह निपटने की कोशिश की थी उसे श्री पवार ने उसी समय गैर-वाजिब बताते हुए स्पष्ट किया था कि दलित आन्दोलन को पुलिस बल द्वारा कुचलने का कोई भी प्रयास जन विरोधी ही कहा जाएगा। लोकतन्त्र में कोई भी सरकार समाज के दो समुदायों के बीच भ्रम पैदा करके किसी एक पक्ष को दबाने या कुचलने का रास्ता नहीं ढूंढ सकती है मगर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस की राज्य पुलिस ने जिस तरह भीमा कोरेगांव हिंसा के तारों को कुछ लोगों को माओवादी घोषित करके जोड़ने की कोशिश की है उसको उन्हीं की सरकार में शामिल शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’ ने अपने निशाने पर लेकर साफ कर दिया है कि सरकार के इरादे अपनी ‘बेइकबाली’ को बचाने से ज्यादा कुछ नहीं हैं। सामना के सम्पादकीय में प्रधानमंत्री की हत्या करने के षड्यंत्र करने की नीयत से लिखे गये पत्र को सामना ने किसी ‘मुम्बइया फिल्म की पटकथा’ के रूप में बताया है।
सामना अखबार का यह निष्कर्ष इसी तथ्य की ओर संकेत करता है कि फड़नवीस अपने निरंकुश शासन की बदअमनी से लोगों का ध्यान हटाने के लिए स्वयं ऐसे जुगाड़ कर रहे हैं जिससे राज्य के दलितों और आदिवासियों की समस्याओं से लोगों का ध्यान हट जाये। श्री शरद पवार ने आज यह कहकर कि प्रधानमन्त्री की हत्या का षड्यन्त्र रचने सम्बन्धी पत्र फर्जी है और उसमें कोई दम नहीं है, साफ कर दिया है कि राजनीति में उन मर्यादाओं का हमेशा पालन किया जाना जरूरी है जिनसे आम आदमी के मन में सरकार की विश्वसनीयता हर कीमत पर बनी रहती है। फड़नवीस की पुलिस को यह पत्र मिला है जिसकी भनक भारत की गुप्तचर एजेंसियों को नहीं मिल पाई। अतः इस सन्दर्भ में महाराष्ट्र रिपब्लिकन पार्टी के नेता श्री रामदास अठावले का वह वक्तव्य भी बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने कहा था कि भीमा कोरेगांव में पकड़े गये पांच बुद्धिजीवियों का माओवाद से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है और उनकी भीमा कोरेगांव हिंसा में कोई भूमिका नहीं है। श्री अठावले दलितों के ही नेता हैं और प्रधानमन्त्री की केन्द्र सरकार में ही कैबिनेट मन्त्री हैं।
प्रधानमन्त्री की हत्या करने के षड्यन्त्रकारियों के लिए क्या कोई कैबिनेट मन्त्री इस प्रकार का वक्तव्य दे सकता है? मगर श्री अठावले ने डंके की चोट पर एेलान किया कि पांचों गिरफ्तार लोग निरपराध हैं। फड़नवीस को ध्यान रखना चाहिए कि भारत के प्रधानमन्त्री की जान इतनी सस्ती नहीं है कि उसकी हत्या करने का षड्यन्त्र साल भर पहले कुछ लोग रचने की तैयारी करने लगें और देश की गुप्तचर एजेंसियां सोती रहें? अब खुफिया एजैंसियों को सच को साबित करना होगा। यही वजह है कि शरद पवार जैसे अनुभवी नेता ने राज्य सरकार को आड़े हाथों लिया है और साफ किया है कि लोकतन्त्र में सरकारें साजिशों का तिलिस्म पैदा करके नहीं बल्कि सच्चाई का ‘सामना’ करके चला करती हैं।
शरद पवार तो वह नेता हैं जिन्होंने केवल इस मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी को छोड़ दिया था कि प्रधानमन्त्री पद पर किसी विदेशी मूल (सोनिया गांधी) के व्यक्ति को बैठा देखना यह देश गवारा नहीं कर सकता है। जब उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपनी अलग पार्टी बनाई थी तो वह लोकसभा में विपक्ष के नेता थे। उनका कहना था कि कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद पर तो एेसा व्यक्ति बैठ सकता है मगर प्रधानमन्त्री पद पर नहीं। उनकी यह खूबी रही है कि उन्होंने अपना मत व्यक्त करने में कभी भी संकोच नहीं किया। उनकी स्व. इंदिरा गांधी तक से नहीं पटती थी। इसकी वजह यही थी कि इन्दिरा जी की कथित अधिनायकवादी नीतियां उन्हें रास नहीं आती थीं जिसकी वजह से वह 1978 में कांग्रेस का दूसरा विघटन होने के बाद इंदिरा विरोधी धड़े की कांग्रेस में शामिल हो गये थे और महाराष्ट्र में जनता पार्टी के समर्थन से प्रगतिशील मोर्चा नाम देकर उन्होंने सफलतापूर्वक सरकार तब तक चलाई जब तक कि 1980 में इन्दिरा जी पुनः जीतकर प्रधानमंत्री नहीं बन गईं मगर श्री पवार कांग्रेस संस्कृति की लोकतान्त्रिक प्रणाली पर शिवसेना द्वारा कड़ा प्रहार होते देख कर पुनः कांग्रेस में आ गये थे। तब उन्होंने कहा था कि महाराष्ट्र जैसे राज्य में लोकतन्त्र की खुली राजनीतिक कांग्रेस संस्कृति को बचाना बहुत जरूरी है। अतः आजकल के माहौल में श्री पवार ने जो पहल की है उसे संकीर्ण राजनीति के दायरे में नहीं बल्कि भारतीय लोकतन्त्र के समग्र पारदर्शी व शुचितापूर्ण आइने में देखा जाना चाहिए।