भारत की राजनीति का यह निश्चित रूप से एेसा संक्रमणकाल है जिसमें भविष्य का वह चेहरा छुपा हुआ है जो आने वाली पीढि़यों की पहचान बनेगा। यह कोई साधारण रूपान्तरण का दौर नहीं है बल्कि हिन्दोस्तान की हकीकत के उस मिजाज को परखने का दौर है जो हजारों साल से इसकी अजमत रही है। कांग्रेस पार्टी आजादी के पहले से इसी अजमत की खातिर कुर्बानियों पर कुर्बानियां देती रही है जिसमें आजादी के बाद पहली शहादत ‘राष्ट्रपिता’ महात्मा गांधी की हुई थी। गांधी को राष्ट्रपिता के नाम से सबसे पहले सम्बोधित करने वाले वह नेता जी सुभाष चन्द्र बोस थे जिन्होंने गांधी से ही मतभेदों के चलते आजादी की लड़ाई के लिए अलग रास्ता चुना था। अतः हमें समझ लेना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी के प्रेम व अहिंसा के उन सिद्धान्तों में कितनी ताकत होगी जिसने नेता जी को महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहने के लिए प्रेरित किया था। महात्मा गांधी की शारीरिक हत्या से उनके विचारों का तेज कम नहीं हुआ और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दबे-कुचले लोगों की आजादी के संघर्ष के वह प्रेरणा स्रोत बन गये। कांग्रेस की एकमात्र यही ताकत भारत की राजनीति में उसे प्रासंगिक बनाये रखने की अपार क्षमता रखती है।
अतः कांग्रेस के विचार को खत्म करना किसी भी राजनैतिक दल के बूते से बाहर है क्योंकि हिन्दोस्तान की यही पहचान है। परन्तु देखने वाली बात सिर्फ इतनी सी है कि वर्तमान में कांग्रेस का नेतृत्व अपनी पुरानी गल्तियों से सबक लेते हुए किस तरह आम हिन्दोस्तानियों को नफरत के गर्म होते बाजार से निकाल कर महफूज रखने मंे कामयाब होता है क्योंकि विभिन्न राज्यों में एेसे क्षेत्रीय दलों का खासा दबदबा हो चुका है जो भारत की विविधता में मौजूद स्थानीय अपेक्षाओं को अपना हथियार बना कर राष्ट्रीय पार्टियों के सामने जन अपेक्षाओं पर पूरा उतरने की चुनौती फेंक रही हैं। एेसे माहोल में कांग्रेस कार्य समिति द्वारा आज लिये गये इस फैसले को दूरगामी माना जाएगा कि वह समान विचार वाले दलों के साथ राज्य स्तर से लेकर राष्ट्र स्तर तक गठबन्धन करेगी और इसका अधिकार इसके अध्यक्ष श्री राहुल गांधी के पास होगा। विपक्षी एकता के लिए यह रणनीति इसलिए आवश्यक है क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का सशक्त विकल्प प्रस्तुत करने की प्राथमिक जिम्मेदारी कांग्रेस पार्टी की ही है कांग्रेस व भाजपा की लड़ाई व्यक्तियों की लड़ाई नहीं है बल्कि यह मूलभूत रूप से विचारों की लड़ाई है।
यह लड़ाई इतिहास की कब्र से गड़े मुर्दे उखाड़ कर राजनैतिक नारेबाजी की नहीं है बल्कि उस भविष्य के लिए है जिसमंे हर भारतवासी गर्व से सीना तान कर कह सके कि उसका मुल्क प्रेम व भाईचारे की वह तस्वीर है जिसमें सातों रंग मिल कर प्रकाश का आकार लेते हैं और रोशनी बिखेरते हैं। अतः कांग्रेस पार्टी यदि इस प्रकार के इन्द्रधनुषी राजनैतिक गठबन्धन की पहल करती है तो निश्चित रूप से यह सियासत में एेसी जंग की शुरूआत होगी जो हर हिन्दोस्तानी को सोचने के लिए मजबूर करेगी कि वह कौन सी राह पकड़े। एेसे माहोल में यह सोचना फिजूल है कि इस गठबन्धन का चेहरा कौन होगा? अतः कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में श्रीमती सोनिया गांधी का यह कहना बहुत मायने रखता है कि देश के आगे प्रधानमन्त्री पद के कोई मायने नहीं है। यह कांग्रेस की एेतिहासिक जिम्मेदारी भी है क्योंकि मजबूत लोकतन्त्र के लिए मजबूत विपक्ष का होना जरूरी शर्त होती है तभी तो मतदाता के सामने मजबूत विकल्प की छूट रहती है। यह देश कभी भी इकतरफा वैचारिक ध्रुवीकरण से नहीं चला है। यदि एेसा होता तो आज भाजपा किस प्रकार सत्ता में बैठी होती? विचारों का परीक्षण स्थल भारत प्राचीनकाल से रहा है और इसका सबसे प्रमाण हमें तब मिला जब जिन्ना की जिद पर 70 साल पहले भारत के दो टुकड़े हुए और यह देश धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बना।
इतना ही नहीं पाकिस्तान से टूट कर जब 25 साल बाद बांग्लादेश का उदय हुआ तो वह भी धर्म निरपेक्ष राष्ट्र ही बना ( बाद में सैनिक सत्ता पलट होने पर इसे इस्लामी देश बनाया गया ) इसलिए भारत की गांधीवाद वैचारिक सोच की ताकत को पहचानने मंे हमें गफलत नहीं करनी चाहिए। 2019 के चुनाव किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच नहीं होने जा रहे हैं बल्कि ये उस भारत की खोज करने जा रहे हैं जिसमें इंसानियत को मजहबी रवायतों से भी ऊपर का दर्जा दिया जाता रहा है। राहुल गांधी कोई छोटी-मोटी जिम्मेदारी उठाने के लिए अधिकृत नहीं किये गये हैं बल्कि उस हिन्दोस्तान की अजमत को फिर से चमकाने के लिए अख्तियार किये गये हैं जो आज हिन्दू-मुसलमान की पहचान में ठोकरों में आ चुकी है। सबसे पहले जिन तीन प्रमुख राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होंगे और इन राज्यों में उन सभी विपक्षी दलों की ईमानदारी की आजमाइश भी होगी जो मिल कर 2019 में केन्द्र की भाजपा सरकार को उखाड़ फेंक देना चाहते हैं। जनता सभी पार्टियों को अपने निशाने पर रखने को मजबूर होगी क्योंकि उसे एेसे चक्रव्यूह में फंसाया जा रहा है कि वह अपनी धार्मिक पहचान को ही सियासत समझने लगे और उसके सारे दुख-दर्द इसी पहचान में छुप जायें।
मगर यह देश उस नेहरू और डा. लोहिया का है जिनमें इस मुद्दे को लेकर लोकसभा मंे 1963 में जम कर तर्क-वितर्क हुआ था कि औसत हिन्दोस्तानी की रोजाना की आमदनी तीन आने है या 15 आने जो लोग खैरात बांट कर रोजे खुलवाना चाहते हैं वे पसीने से तर-बतर इंसान के ईमान को नहीं खरीद सकते। कांग्रेस पार्टी ने आजादी के बाद जब इस देश को लोकतन्त्र दिया था और अंग्रजों ने कहा था कि भारत ने अन्धे कुएं में छलांग लगा दी है तो आजादी के दीवानों ने कहा था कि एेसा वे ही सोच सकते हैं जिन्हें भारत के लोगों की बुद्धिमत्ता और मेहनत पर यकीन न हो। इसलिए कोई भी पार्टी यह न सोचे कि हिन्दोस्तान के मतदाता जमीनी हकीकत समझने में कोई भूल कर सकते हैं। मेरी व्यक्तिगत राय में यदि विपक्ष को मोदी जैसी शक्तिशाली हस्ती से टक्कर लेनी है तो सभी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियों को अपने अह्म को नीचे करके ही इक्कठा होना पड़ेगा। मोदी के समक्ष गठबन्धन तैयार करना अगर नामुमकिन है तो इसको मुमकिन बनाने के लिए सभी विपक्षी दलों को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। क्योंकि मोदी वह शह है जो अकेले पूरे विपक्ष के मुकाबले भारी पड़ते हैं।