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वोट की कोई कीमत नहीं !

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के लिए अब चुनाव प्रचार बन्द हो चुका है। 17 नवम्बर को छत्तीसगढ़ की शेष 70 सीटों व मध्य प्रदेश की सभी 230 सीटों के लिए इन राज्यों के मतदाता अपने वोट के अधिकार का इस्तेमाल करके अपनी मनमाफिक राजनैतिक दल की सरकार का गठन करेंगे। दोनों ही राज्यों में असली मुकाबला कांग्रेस व भाजपा के बीच हो रहा है और शेष सभी छोटी-मोटी पार्टियों को ‘वोट कटुआ’ माना जा रहा है। चुनावों में मतदाता जिस वोट के अधिकार का प्रयोग करते हैं वह स्वतन्त्रता संग्राम के महानायक महात्मा गांधी द्वारा उन्हें दिया गया बेशकीमती अहिंसक हथियार है जिस पर भारत का पूरा लोकतन्त्र टिका हुआ है। मगर वोट का अधिकार इस देश के लोगों को अपनी पुरानी पीढि़यों की कुर्बानी देने के बाद मिला है क्योंकि उन्होंने न केवल भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी थी बल्कि आम भारतीय के स्वाभिमान और नागरिक सम्मान की लड़ाई भी लड़ी थी। महात्मा गांधी ने 1934 में ही घोषणा कर दी थी कि स्वतन्त्र भारत में इसके प्रत्येक वयस्क स्त्री-पुरुष नागरिक को एक वोट का अधिकार देकर संसदीय प्रणाली का लोकतन्त्र अपनाया जायेगा। इससे पहले पं. मोती लाल नेहरू की सदारत में कांग्रेस पार्टी की गठित संविधान समिति ने अपनी रिपोर्ट में साफ कर दिया था कि भारत में राज्यों के संघीय ढांचे के तहत प्रदेशों व केन्द्र के अधिकार अलग-अलग होंगे और इनकी सरकारों का गठन हर पांच साल के लिए प्रत्येक अमीर-गरीब, हिन्दू-मुसलमान, मजदूर-पूंजीपति, शिक्षित-अनपढ़ वयस्क को एक वोट का अधिकार देकर चुनावों के जरिये किया जायेगा। इस मोतीलाल कमेटी में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस व मौलाना आजाद भी शामिल थे।
मगर 1935 में जब हिन्दोस्तान की हुकूमत पर काबिज ब्रिटिश सरकार ने नया भारत सरकार कानून बनाया और 11 एसेम्बलियों के चुनाव कराने की बात कही तो उसमें वोट का अधिकार केवल जमींदारों, साहूकारों, आयकरदाताओं व उच्च शिक्षित लोगों को दिया गया। यह संख्या उस समय बामुश्किल दस प्रतिशत से कुछ अधिक बैठती थी। परन्तु जब 1946 में भारत का संविधान लिखा जाना शुरू हुआ तो इसमें मोती लाल कमेटी की लगभग सभी प्रमुख सिफारिशों का समावेश हुआ। संविधान लिखने वाले डा. बाबा साहेब अम्बेडकर ने गांधी का आशीर्वाद लेकर ही संविधान लिखा, हालांकि उनके कुछ वैचारिक मतभेद अपनी जगह पर थे, मगर बाबा साहेब गांधी जी के इस सिद्धान्त से पूरी तरह सहमत थे कि भारतीय लोकतन्त्र में एक राजा-महाराजा को जो राजनैतिक अधिकार मिले वह किसी रिक्शा खींचने वाले और खेत में मजदूरी करने वाले व्यक्ति के बराबर ही हो। अतः भारतीय संविधान में एक समान मताधिकार का कानून बनाया गया और सदियों से साहूकारों व महाजनों और राजा-महाराजाओं के शासन में गुलामों की तरह जीवन जीने वाले लोगों को नये भारत का ‘राजा’ वोट के अधिकार के माध्यम से बनाया गया। अतः भारत के लोगों को मिले इस एक वोट की कोई कीमत नहीं आंकी जा सकती। मगर भारत चूंकि विभिन्न धर्मों को मानने वालों व विभिन्न जातियों व संस्कृतियों और क्षेत्रों में बंटा देश है अतः चुनाव लड़ रहे विभिन्न राजनैतिक दल मतदाताओं की धार्मिक व जातिगत आदि की सामाजिक पहचान को आगे रख कर वोटों की गोलबन्दी करने के प्रयास करते हैं जबकि सजग लोकतन्त्र व्यक्तिगत रूप से मतदाता के सशक्तिकरण की बात करते हुए राष्ट्र को मजबूत बनाने की बात करता है और यह काम हर चुनाव में मतदाता अपनी स्थिति में आये बदलाव का जायजा लेकर कर सकता है। इसके लिए उसे सत्ता पर पिछले पांच साल से काबिज रही पार्टी की सरकार के कामों का आकलन करके करना पड़ता है। इसका मूलभूत पैमाना शिक्षा, गरीबी का स्तर, महंगाई, रोजगार, स्वास्थ्य व उसकी आमदनी में अानुपातिक इजाफा होता है। हम देख रहे हैं कि पिछले एक महीने से इन दो राज्यों समेत कुल पांच राज्यों में राजनैतिक घमासान चल रहा है और भाजपा व कांग्रेस के नेता अपना-अपना विमर्श खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। मगर अब चुनाव प्रचार बन्द हो चुका है और जनता मन बना चुकी है कि उसे किस पार्टी को जिताना है और किस को हराना है।
चुनावों में हार-जीत का भी सिद्धान्त होता है कि जिस पार्टी का भी चुनावी विमर्श लोगों को पसन्द आता है वही पार्टी जीत जाती है। मगर ऐसा करने के लिए जरूरी होता है कि अधिक से अधिक संख्या में लोग अपने वोट का इस्तेमाल करने के लिए मतदान केन्द्र तक जायें। अतः हम इन राज्यों की जनता से केवल यही अपील कर सकते हैं कि वे अधिक से अधिक संख्या में मतदान करें। इस मामले में भी हमारे देश के गांव बहुत आगे रहते हैं जहां मतदान का प्रतिशत शुरू से ही शहरों के मुकाबले अधिक रहता आया है।

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