संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ देश के विभिन्न इलाकों में जिस तरह प्रदर्शन हो रहे हैं उससे यह सन्देश तो मिलता है कि आम जनता विशेषकर युवा छात्र वर्ग सरकार से सहमत नहीं है और वह अपनी आवाज को सड़कों पर बुलन्द करना चाहता है। पिछले दिनों दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में कानून के खिलाफ छात्राें के प्रदर्शन में जिस तरह की हिंसा हुई थी उस पर भी देश के कई विश्वविद्यालयों के छात्रों ने रोष प्रकट किया है परन्तु आज जो लखनऊ में हुआ और दिल्ली के कुछ भागों में हो रहा है वह हर सूरत में निन्दनीय है।
आन्दोलन में हिंसा का प्रैशर ही लोकतन्त्र में मतभेद के अधिकार को हल्का कर देता है क्योंकि हिंसा केवल मतभेद या विचार विविधता को ही निगलने का काम करती है। लोकतन्त्र मतभेद की पूरी इजाजत इस तरह देता है कि उसमें लोकशक्ति की धुन सुनाई दे। जाहिर है कि इस धुन को हिंसा तुरन्त समाप्त कर देती है अतः हिंसा का प्रतिकार लोकतान्त्रिक मतभेद स्वतन्त्रता का पहला नियम होता है। भारत के लोगों को अहिंसात्मक आन्दोलन की ताकत का पता न हो यह नहीं माना जा सकता क्योंकि इस देश ने अंग्रेजों की दो सौ वर्षों की गुलामी से इसी रास्ते से मुक्ति पाई थी। जिसके महानायक महात्मा गांधी थे।
संशोधित कानून विधेयक संसद के दोनों सदनों की स्वीकृति से बना है अतः इसके पक्ष के जनमत को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। संसद में बहुमत के बल पर ही सरकार यह कानून बना पाई है। बेशक इसकी संवैधानिकता पर सवालिया निशान संवैधानिक रास्ते से ही लगाया जा सकता है और संसद में हारे विपक्ष ने यह काम सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करके पूरा कर दिया है। कमाल तो यह हुआ है कि संसद के भीतर असम की जिस क्षेत्रीय पार्टी असम गण परिषद ने विधेयक के पक्ष में मत दिया था, वह भी देश की सबसे बड़ी अदालत में इसे चुनौती देने वालों में खड़ी हो गई है।
अतः इस पर उस अदालत का फैसला निश्चित रूप से आयेगा जिसके पास संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को भी अवैध या असंवैधानिक घोषित करने का हथियार है। सर्वोच्च न्यायालय तो संविधान संशोधन विधेयक तक को भी अवैध करार देने का हक रखता है जैसा कि बड़ी अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में न्यायिक नियुक्ति आयोग को निरस्त करके इसने किया था। वजह साफ थी कि संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड़ करने वाला कोई भी कानून संसद नहीं बना सकती। उसे भारतीय संविधान की रूह को मारने वाले किसी कानून काे बनाने का हक नहीं है।
अतः हमें संवैधानिक रास्ते से आने वाले फैसले का भी इंतजार करना चाहिए और अपने मतभेद पूरी तरह शान्ति के साथ प्रकट करने चाहिए। एक हैरत यह भी है कि आज देश में विपक्ष के मुरदार होने का यह जिम्मा युवा पीढ़ी के छात्र-छात्राओं ने ले लिया है। भारत के उज्ज्वल लोकतान्त्रिक भविष्य के लिए इसे शुभ लक्षण माना जायेगा क्योंकि जिस देश की जवानी सोई रहती है उसे कोई नहीं जगा सकता परन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं है कि जवानी बेहोश होकर जोश में कुछ भी कर डाले।
अतः युवा लोगों को ही अपने बीच से एेसे तत्वों का सफाया करना होगा जो विरोध-प्रदर्शन को हिंसक कृत्य में बदल देना चाहते हैं। इसके साथ होश भी रखना होगा कि वे सरकार की बात को भी सावधानी से सुनें क्योंकि सरकार भी आम जनता की ही चुनी हुई है। यह आंकलन सरकार को बेबाक तरीके से करना होगा कि उसके काम से कहीं उसका जनमत बिखर तो नहीं रहा है। लोकतन्त्र जिद से कभी नहीं चला करता बल्कि वह सहमत व सहयोग से ही चलता है। यह सहयोग भी दुतरफा होता है। विपक्ष को भी अपनी नाजायज मांग को छोड़ना पड़ता है। मैंने पहले भी लिखा था कि संशोधित नागरिकता अधिनियम पर देश में अवधारणा की लड़ाई शुरू हो चुकी है।
भाजपा मानती है कि वह पाकिस्तान, बंगलादेश व अफगानिस्तान में वहां सताये गये हिन्दू नागरिकों को अपनी नागरिकता देकर न्याय और मानवीयता का काम कर रही है जबकि विपक्षी दलों की राय से सहमत लोग मानते हैं कि सरकार भारत के भीतर वही काम कर रही है जो धार्मिक आधार पर ये तीन देश अपने यहां करते हैं। अर्थात प्रताड़ित लोगों में मुसलमानों को शामिल न करके उसने मानवीय पक्ष को हल्का कर दिया है जिसकी इजाजत भारत का संविधान नहीं देता है। यदि एेसा है तो सर्वोच्च न्यायालय दूध का दूध और पानी का पानी कर देगा।
संविधान का मूल ढांचा बदलने की इजाजत तो किसी भी सरकार को नहीं मिल सकती क्योंकि इसी संविधान की शपथ लेकर सरकार गठित होती है और उसके संरक्षण के दायित्व से भारत के राष्ट्रपति बन्धे हुए हैं परन्तु इसे भी उचित नहीं कहा जा सकता कि शान्तिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन के डर से पूरे राज्य में ही धारा 144 लगा दी जाये जिससे चार से ज्यादा लोग इकट्ठा होकर अपना मतभेद प्रकट ही न कर सकें। मत भिन्नता तो लोकतन्त्र की आत्मा का हिस्सा ही होती है। सरकार का दायित्व होता है कि वह शान्तिपूर्ण आन्दोलन में विघ्न डालने वाले तत्वों के साथ सख्ती से निपटे और उनके विरुद्ध यथोचित कानूनी कार्रवाई करे।
पुलिस का कार्य लोकतन्त्र में कानून व्यवस्था कायम करने का होता है और शान्तिपूर्ण आन्दोलन का हक भी व्यवस्था का ही एक अंग होता है। इस व्यवस्था में विघ्न डाल कर जो लोग अराजकता पैदा करने की कोशिश करते हैं उनसे निपटने में पुलिस के हाथ कानून ने नहीं बांध रखे हैं परन्तु यह भी इंसाफ नहीं है कि पुलिस पर पत्थरबाजी या अन्य हिंसा की पहल करके उससे फूल देने की अपेक्षा की जाये। पुलिस भी लोकतन्त्र में आम जनता का प्रतिनिधित्व ही करती है क्योंकि वह लोगों द्वारा चुनी गई सरकार के मातहत काम करते हुए संविधान का शासन लागू करने से बन्धी होती है। अव्यवस्था तभी होती है जब इसमें सन्तुलन बिगड़ जाता है। अतः शान्तिपूर्ण प्रदर्शन लोकतन्त्र का ही प्रदर्शन होता है इनसे सरकारों को सावधान होकर चलने का हौंसला मिलता है।
इसके समानान्तर सत्तापक्ष की राय से सहमत लोगों को भी तो शान्तिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार मिला होता है। दरअसल रैलियों की परंपरा ही कम्युनिस्ट देशों में शुरू हुई थी जहां शासकों के पक्ष में हवा बांधने के लिए लोग प्रयोजन करके लाये जाते थे। बाद में यह परिपाटी लोकतान्त्रिक देशों में भी शुरू हो गई। भारत में तो इसकी शुरूआत 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से ही हुई थी।