दोहा में अफगानिस्तान सरकार और तालिबान वार्ता का दौर प्रगति पर है। भारत के लिए स्थिति असहज भी है और चुनौतीपूर्ण भी। तालिबान और अफगानिस्तान वार्ता को लेकर दिल्ली ने अपने स्टैंड में बड़ा बदलाव किया है। भारत ने कभी भी तालिबान को मान्यता नहीं दी और न ही उससे कोई सम्पर्क रखा लेकिन अफगान-तालिबान शांति वार्ता में विदेश मंत्री एस. जयशंकर वर्चुअल तरीके से मौजूद रहे। इस अवसर पर भारत सरकार के पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान मामलों के संयुक्त सचिव जे.पी. सिंह भी मौजूद रहे। इस बातचीत में वैसे तो 30 देशों के प्रतिनिधि मौजूद रहे। अफगानिस्तान ने इसमें ईरान, पाकिस्तान और कई मध्य एशियाई देशों को भी आमंत्रित किया था। इस वर्ष 29 फरवरी को अमेरिका-तालिबान के बीच दोहा में समझौता हुआ था मगर तब कतर में भारत के प्रतिनिधि पी. कुमारन अनौपचारिक तौर पर मौजूद रहे। दरअसल अफगानिस्तान दक्षिण एशिया में भारत का अहम साथी है। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध पारम्परिक रूप में मजबूत और दोस्ताना रहे हैं। 1980 के दशक में भारत- अफगानिस्तान संबंधों को एक नई पहचान मिली। 1990 के अफगान गृह युद्ध और वहां तालिबान के सत्ता में आ जाने के बाद दोनों देशों के संबंध कमजोर होते चले गए। कंधार विमान अपहरण कांड में तालिबान ने पाकिस्तानी अपहर्ताओं का साथ दिया था। भारत-अफगान संबंधों को मजबूती तब मिली, जब 2001 में तालिबान सत्ता से बाहर हो गया और इसके बाद अफगानिस्तान के लिए भारत मानवीय और पुननिर्माण सहायता का सबसे बड़ा क्षेत्रीय प्रदाता बन गया। अफगानिस्तान में भारत के पुननिर्माण के प्रयासों से विभिन्न निर्माण परियोजनाओं पर काम चल रहा है। भारत ने अब तक अफगानिस्तान को लगभग तीन अरब डालर की सहायता दी है, जिसके तहत वहां संसद भवन, सड़कों और बांध आदि का निर्माण हुआ है। वहां कई मानवीय व विकासशील परियोजनाओं पर भारत अभी भी काम कर रहा है। यही वजह है कि मौजूदा वक्त में अफगानिस्तान में सबसे अधिक लोकप्रिय देश भारत को माना जाता है।
जहां तक राजनीतिक और सुरक्षा का सवाल है तो भारत-अफगानिस्तान संचालित और अफगान स्वामित्व वाली शांति और समाधान प्रक्रिया के लिए अपने सहयोग को बराबर दोहराता रहा है। दोनों देश इस बात पर सहमत हैं कि अफगानिस्तान में शांति और स्थायित्व को प्रोत्साहित करने और हिंसक घटनाओं पर तत्काल लगाम लगाने के लिए ठोस और सार्थक कदम उठाए जाने चाहिएं।
अगर अफगानिस्तान-तालिबान वार्ता सफल होती है तो अमेरिका और नाटो सैनिकों की करीब 19 वर्ष के बाद अफगानिस्तान से वापसी का रास्ता साफ होगा। इस वार्ता में अमेरिका सक्रिय रूप से भागीदारी कर रहा है, क्योंकि वह राष्ट्रपति चुनाव से पहले अफगानिस्तान में फंसे अपने 20 हजार सैनिकों को वापस िनकालना चाहता है। अमेरिकी चुनाव में अफगानिस्तान में सैनिकों की वापसी भी एक बड़ा मुद्दा है। यद्यपि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने दो टूक लहजे में कहा है कि अफगानिस्तान में शांति का मतलब सत्ता साझा करने का राजनीतिक सौदा नहीं है। हर कोई देश में हिंसा को समाप्त होते देखना चाहता है। दुश्मन चाहे देश को कितना ही नुक्सान क्यों न पहुंचाने की कोशिश कर ले, अफगानिस्तान वापस उठ खड़ा होगा। जहां तक भारत के वार्ता में तालिबान के साथ शामिल होने का सवाल है, भारत काफी सतर्कता से आगे बढ़ रहा है। भारत की चिंता यह है कि अगर अफगानिस्तान में तालिबान मजबूत होता है तो यह भारत के लिए नुक्सानदेह हो सकता है, क्योंकि तालिबान पारम्परिक रूप से पाकिस्तानी खुफिया एजैंसी आईएसआई का करीबी है। भारत अब भी 116 सामुदायिक विकास परियोजनाओं पर काम कर रहा है।
भारत ईरान की चाबहार परियोजना के जरिये अफगानिस्तान, मध्य एशिया और यूरोप में व्यापार को बढ़ाने की तैयारी कर रहा है। इसके लिए भारत कई सड़कों का निर्माण कर रहा है जिससे अफगानिस्तान से होते हुए भारत के माल ढुलाई नेटवर्क को बढ़ाया जा सके। अगर तालिबान ज्यादा मजबूत होता है तो वह पाकिस्तान के इशारे पर भारत को परेशान कर सकता है। इससे चाबहार से भारत जितना फायदा उठाने की कोशिश में जुटा है उसे नुक्सान पहुंच सकता है। शांति समझौते से तालिबान पर लगे सामाजिक और आर्थिक प्रतिबंध भी खत्म होंगे, इससे न केवल तालिबान मजबूत होगा बल्कि वहां की लोकतांत्रिक सरकार को खतरा पैदा हो सकता है। तालिबान का जन्म 90 के दशक में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ। इस समय अफगानिस्तान से तत्कालीन सोवियत संघ (रूस) की सेना हारकर अपने देश वापस जा रही थी। पश्तूनों का नेतृत्व उभरा, तालिबान 1994 में पहली बार अफगानिस्तान में सामने आया, 80 के दशक के अंत में सोवियत संघ के अफगानिस्तान से जाने के बाद कई गुटों में आपसी संघर्ष हुआ था, जिसके बाद तालिबान का जन्म हुआ था। यह भी सच है कि रूसी सेनाओं को हराने के लिए अमेरिका ने भी तालिबान को हथियार और धन दिया था। वहीं तालिबान अमेरिका का दुश्मन नम्बर एक हो गया। अमेरिका ने भी लादेन की खोज में तोराबोरा की पहाड़ियों में काफी खाक छानी लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। अंततः अमेरिका के कमांडो ने पाकिस्तान के एबटाबाद में छिपे बैठे लादेन को मार गिराया था। बदलती परिस्थितियों में भारत को अपना स्टैंड बदल कर तालिबान से वार्ता में शािमल होना पड़ा है। विदेश मंत्री जयशंकर ने दो टूक शब्दों में कहा है कि अफगानिस्तान की धरती से भारत विरोधी गतिविधियों का इस्तेमाल नहीं हो। महिलाओं और अल्पसंख्यकों के हितों का ध्यान रखा जाना चाहिए। अगर भारत शांति वार्ता में भाग नहीं लेता तो इसका अर्थ पाकिस्तान को खुला हाथ देना होगा। किसी भी सरकार को परिस्थितियों के अनुरूप फैसला लेना पड़ता है। भारत तो हमेशा ही शांति का समर्थक रहा है। अफगानिस्तान में शांति पर ही उसका भविष्य छिपा हुआ है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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