जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा देने की घोषणा की है। वह अपना उत्तराधिकारी चुने जाने तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे। 65 वर्षीय आबे को कई साल से अल्सरेटिव कोलाइटिस की समस्या थी लेकिन हाल ही में उनकी तबीयत ज्यादा बिगड़ गई थी। नैतिकता का तकाजा भी यही था कि वह अपनी बीमारी की वजह से कामकाज प्रभावित न होने दें। बीमारी के चलते उनकी निर्णय लेने की क्षमता भी कम हो रही थी। आबे जापान के सबसे लम्बे समय तक पीएम रहने का रिकार्ड तोड़ चुके हैं। कोरोना वायरस की महामारी के कारण जापान की अर्थव्यवस्था की हालत ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर पहुंच चुकी है। महामारी से निपटने को लेकर पीएम आबे की आलोचना भी हो रही थी। इसके अलावा उनकी पार्टी के सदस्यों पर लगे स्कैंडल के आरोपों के कारण भी वह घेरे में थे। जापान में कानून के तहत अगर आबे अपनी भूमिका निभाने में असमर्थ हैं तो एक अस्थायी प्रधानमंत्री नियुक्त किया जा सकता है जिनके पद पर बने रहने की कोई सीमा तय नहीं होती है। अस्थायी प्रधानमंत्री आकस्मिक चुनाव का ऐलान नहीं कर सकते, इसलिए जब तक नए पार्टी नेता और प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं होता तब तक वह संधियों और बजट जैसे मसलों पर फैसला कर सकते हैं। अब आबे की पार्टी एलडीपी में मतदान होगा जिसमें तय किया जाएगा कि अध्यक्ष के तौर पर उनकी जगह कौन लेगा।
शिंजो आबे को राष्ट्रवादी, संशोधनवादी या व्यावहारिक यथार्थवादी कहा जाए या फिर उनके व्यक्तित्व को कुछ अन्य शब्दों में किस तरह परिभाषित किया जाए, इसे लेकर आलोचकों की राय भी बंटी हुई नजर आती है। उनके कट्टर आलोचकों का कहना है कि आबे ने रूढ़िवादी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व किया जिनकी विदेश नीति काफी तेज-तर्रार रही। इसमें कोई संदेह नहीं कि आबे के कार्यकाल में जापान की वैश्विक स्थिति में काफी सुधार आया। आबे के शासनकाल में जापान दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना। एक तरफ आबे ने जापान की ऐतिहासिक परम्पराओं को आगे बढ़ाया, देश की सांस्कृतिक पहचान को बहाल किया तो दूसरी तरफ उन्होंने देश के नागरिक जीवन में सम्राट की स्थिति की पुष्टि की, पाठ्य पुस्तकों में आत्म आलोचनात्मक आख्यानों को दूर किया।
उन्होंने राष्ट्रवादी एजैंडे को ही पूरे देश में केन्द्रित रखा। वह विदेश नीति में काफी व्यावहारिक रहे और कामयाब भी। उन्होंने देश में राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद की स्थापना की। एक नए गोपनीयता कानून को पारित कराया जिसमें जापान के आत्मरक्षा बलों के सामूहिक सुरक्षा अभियान में भाग लेने की अनुमति देने का प्रावधान शामिल है। जापान सेना पर खर्च में 13 फीसदी की बढ़ौतरी की। उनकी सबसे बड़ी सफलता चीन का सफलतापूर्वक सामना करना रहा। चीन के खतरों के बावजूद आबे ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ जापान के व्यावहारिक सहयोग के रास्ते खुले रखे।
आबे के रहते ही जापान और भारत अच्छे मित्र बने हैं। भारत के विकास में जापान की बड़ी भूमिका है। जब दुनिया के साथ भारत के संबंधों की बात आती है तो जापान का स्थान काफी महत्वपूर्ण है। यह संबंध सदियों का है। एक-दूसरे की संस्कृति आैर सभ्यता के अपनेपन, सद्भाव और सम्मान की भावना है। दो दशक पहले अटल बिहारी वाजपेयी और तत्कालीन जापानी प्रधानमंत्री योशिरो मोरी ने साथ मिलकर दोनों देशों के संबंधों को वैश्विक भागीदारी का रूप दिया। 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद शिंजो आबे के साथ मैत्री काफी प्रगाढ़ हुए। कार से बुलेट ट्रेन तक भारत-जापान संबंधों ने एक लम्बा सफर तय किया है। मैट्रो रेल परियोजना भी जापान का ही भारत को उपहार है।
शिंजो आबे सबसे ज्यादा भारत दौरे पर आने वाले प्रधानमंत्री रहे। जब नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब भी आबे ने गुजरात का दौरा किया और कई समझौते किए थे। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जब भी भारत की सीमाओं पर चीन ने टकराव पैदा किया, जापान भारत के पक्ष में खड़ा दिखाई दिया। भारत और जापान में बुलेट ट्रेन समझौते तो हुए ही बल्कि सिविल न्यूक्लियर डील भी हुई। हाईस्पीड ट्रेन का समझौता भी हुआ। पाठकों को याद होगा कि 2015 में आबे ने भारत का दौरा किया था तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ वाराणसी के दशाश्वमेघ घाट पर गंगा आरती में शामिल हुए थे। यह आबे ही थे जिन्होंने 2007 में अमेरिका, भारत और आस्ट्रेलिया के बीच समुद्री युद्धाभ्यास के लिए क्वाड़ समझौते की शुरूआत की थी। 2014 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें गणतंत्र दिवस परेड में बतौर प्रमुख अतिथि आमंत्रित किया था। भारत को जापान पर काफी भरोसा है, उनसे हाथ भी मिले हैं और दिल भी। अब सवाल यह है कि शिंजो आबे के पद छोड़ देने के बाद क्या भारत-जापान संबंधों पर कोई असर पड़ेगा। कूटनीतिक क्षेत्रों का अनुमान है कि भारत-जापान संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। दोनों देशों में शिखर वार्ताएं पहले की तरह होंगी। यह वार्ता भारत के लिए भी अहम है और भारत जापान के लिए भी काफी अहम है।
भारत की तरह जापान भी हिन्द महासागर में चीन की बढ़ती आक्रामकता से चिंतित है। इस शिखर वार्ता से भारतीय सेना को जिबूनी में जापानी मिलिस्ट्री बेस पर पहुंच मिलेगी और जापान की नौसेना अंडेमान निकोबार द्वीप में प्रवेश कर सकेगी। भारत में जापान के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ाने और जापानी कम्पनियों के चीन से भारत आने जैसे मुद्दों पर चर्चा होगी। भारत-जापान मैत्री पूरी दुनिया के लिए एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यह संबंध आध्यात्मिक सोच में समानता तथा सांस्कृतिक एवं सभ्यतागत रिश्तों पर आधारित हैं। दोनों देशों के संबंधों में कोई नाटकीयता नहीं है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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