लाॅकडाउन का चौथा चरण शुरू हो चुका है और इसकी वजह से देश की लकवाग्रस्त अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए वित्त मन्त्री निर्मला सीतारमन 20 लाख करोड़ रुपए के मदद पैकेज का विवरण भी दे चुकी हैं।
सरकार का मानना है कि इस पैकेज से भारत का आर्थिक माहौल सुधरेगा और लोग अपने काम-धन्धों में लगेंगे क्योंकि उसने अर्थव्यवस्था में 20 लाख करोड़ रुपये की मदद की है मगर सरकार के इन दावों को विभिन्न आर्थिक विशेषज्ञ गफलत में डालने वाला बता रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि इससे बाजार और उद्योग के स्वास्थ्य पर कोई विशेष असर नहीं पड़ेगा और उद्यमियों से लेकर मजदूरों तक को बुरे दिनों से गुजरना होगा क्योंकि विकास कार्यों से लेकर सभी प्रकार की उत्पादन व वाणिज्यिक गतिविधियां लाॅकडाउन की वजह से ठप्प हो चुकी हैं।
भारत का लोकतन्त्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र इसीलिए कहलाया जाता है कि इसमें मत विविधता और मत विभिन्नता को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। यह औऱ कुछ नहीं केवल प्राचीन भारतीय संस्कृति की वह महान परंपरा है जिसमें कटु वचन बोलने वाले ज्ञानी ‘दुर्वासा’ को भी ‘ऋषि’ का दर्जा दिया गया। कटु वचनों में छिपे सत्य के अंश के भाष्यकार ‘ऋषि दुर्वासा’ को विद्वान ज्ञानियों की प्रथम पंक्ति में इसीलिए रखा गया क्योंकि वह यथार्थ से साक्षात्कार कराने में हिचक नहीं दिखाते थे।
भारत की मौजूदा अर्थव्यवस्था इसीलिए बाजारमूलक अर्थव्यवस्था है क्योंकि इसमें बाजार की शक्तियां ही आर्थिक मानकों का निर्धारण करती हैं। लाॅकडाउन से लकवा मारे बाजार को पैरों पर तभी खड़ा किया जा सकता है जबकि नकद रोकड़ा से सूखे इसके गले को मुद्रा से तर किया जाये। यह नकद रोकड़ा जब तक आम जनता के हाथ में नहीं होगा तब तक बाजार में नकद धनराशि की कमी नहीं होगी।
सरकार का कहना है कि उसने 20 लाख करोड़ के मदद पैकेज की मार्फत विभिन्न उदयमियां और यहां तक रेहड़ी व खोमचा लगाने वालों तक को बैंक से ऋण लेकर धंधा पुनः शुरू करने का प्रावधान किया है, परन्तु पूर्व वित्तमन्त्री श्री पी. चिदम्बरम का तर्क है कि सरकार ने चालू वित्त वर्ष के बजट में 30 लाख करोड़ के खर्च का प्रावधान किया है।
सरकार यह धनराशि राजस्व प्राप्तियों व बाजार से 7.8 लाख करोड़ रु. का कर्ज लेकर जुटाती परन्तु लाॅकडाउन की वजह से व सुस्त अर्थव्यवस्था के कारण सरकार को 4.2 लाख करोड़ रुपए की राजस्व हानि का अनुमान है जिसकी वजह से विगत 8 मई को उसने इतनी ही धनराशि का बाजार से और कर्जा लेने का फैसला किया मगर अपने खर्चे के बजट को 30 लाख करोड़ रु. से नहीं बढ़ाया तो बाजार में अतिरिक्त नकद रोकड़ा का प्रवाह किस तरह होगा? इस देश के औद्योगिक उत्पादन से लेकर विकास व निर्माण कार्यों को गति देने में मजदूरों और कामगरों की ही प्रमुख भूमिका है।
अतः उनका ऋण चुकाने से देश को पीछे नहीं हटना चाहिए और इन वर्गों के हाथ में नकद रोकड़ा की उपलब्धता करा कर बाजार की अर्थव्यवस्था को मजबूत करना चाहिए। 20 लाख करोड़ रु. में से यदि सरकारी खजाने से केवल एक लाख 86 हजार करोड़ ही विभिन्न स्कीमों की मार्फत लोगों में तकसीम होकर बाजार में आते हैं तो इस देश की 200 लाख करोड़ रु. की अर्थव्यवस्था में यह एक प्रतिशत से भी कम है और 20 लाख करोड़ रु. में से इसका हिस्सा दस प्रतिशत से भी कम यानी रुपये में दस पैसे से भी कम बैठता है।
दूसरा मुद्दा यह है कि बाजार को सुधारने और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोई भी वह कीमत भारत को चुकाने को तैयार रहना होगा जिससे इसके मूल आर्थिक मानक मजबूत बनें। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लगातार 50 वर्ष तक भारी घाटे की अर्थव्यवस्था या बजट के बावजूद भारत ने चहुंमुखी विकास किया और आत्मनिर्भरता की तरफ चरण बढ़ाया। मौजूदा वित्त वर्ष में सरकार का वित्तीय घाटा 5.3 प्रतिशत तो होना तय है मगर चहुं ओर गिरावट की आशंका की शर्त के साथ। यदि यह घाटा और बाजार ऋण लेने से बढ़ जाता है मगर अर्थव्यवस्था तेज गति से विकास करती है तो सौदा लाभ का माना जायेगा।
श्री चिदम्बरम के अनुसार लॉकडाउन से निपटने के लिए सरकार को कम से कम 40 लाख करोड़ रुपए का वित्तीय खर्च बजट तैयार करना चाहिए और दस लाख करोड़ रुपया नकद रोकड़ा के रूप में विभिन्न स्कीमों के तहत जरूरतमन्द लोगों व लघु और मंझोले उद्योगों व अन्य आवश्यक आर्थिक क्षेत्रों को देकर रौनकों को वापस लाना चाहिए और यदि सरकार की कर्जा लेने की क्षमता चूक जाये तो मुद्रीकरण करके इस खाई को पाटना चाहिए। इसकी वजह यह है कि यदि एक बार भारत की अर्थव्यवस्था मन्दी के चक्र में फंस गई तो उससे उबरने में वर्षों लग जायेंगे।
अतः जरूरी है कि केवल नौकरशाहों पर निर्भर न करते हुए देश के जाने-माने आर्थिक विशेषज्ञों व अर्थशास्त्रियों से विचार-विमर्श उसी तरह किया जाये जिस तरह वित्त मन्त्री नये साल का बजट बनाने से पहले विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से करती हैं। विचार विनिमय लोकतन्त्र का आधार होता है लॉकडाउन से लकवा खाई अर्थव्यवस्था को स्फूर्तवान बनाने में देश के राजनैतिक दलों के बीच किसी प्रकार का विवाद नहीं है तो इसके उपाय खोजने में सबकी सलाह ही क्यों न ले ली जाये।
भारत का विकास भी तो सभी दलों की सरकारें समय- समय पर करती रही हैं और आज के भारत में एक भी प्रमुख राजनैतिक दल एेसा नहीं है जो कभी न कभी सत्ता में न रहा हो। यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी के नेता स्व. इद्रजीत गुप्त भी देवगौड़ा और गुजराल सरकार में गृहमन्त्री रहे थे।