भारत में धर्मनिरपेक्षता के कुछ ‘खुदाई खिदमतगारों’ ने अलख जगा दी है कि कोरोना के नाम पर मुस्लिम समुदाय के लोगों को तंग किया जा रहा है और उनके साथ अन्याय हो रहा है। इन खुदाई खिदमतगारों की नेता बनने की ख्वाहिश में अरुन्धती राय ने सारी हदों को तोड़ डाला है। इन लोगों को गुस्सा इस बात पर है कि दिल्ली में तबलीगी जमात के हुए ‘इज्तेमा’ अर्थात ‘समागम’ में शामिल लोगों के ‘कोरोना कैरियर’ बन जाने की हकीकत को क्यों उजागर किया जा रहा है। इंसानी हकूकों की अलम्बरदार बन कर अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय देशों में भारत को बदनाम करने में महारथ हासिल करने वाले अरुन्धती राय जैसे लोग जानते हैं कि अगर तबलीगी जमात में शामिल देशी-विदेशी लोग पूरे भारत के मुस्लिम समाज और उनके धार्मिक स्थलों में न घूमे होते तो 15 अप्रैल से लाॅकडाऊन का दूसरा चरण शुरू न करना पड़ता। यह क्या कोई मजाक है कि पूरे भारत में जिन 14 हजार के लगभग लोगों को कोरोना ग्रस्त पाया गया है उनमें से तीस प्रतिशत यानि चार हजार से ज्यादा लोग वे हैं जो जमातियों के सम्पर्क में आये हैं।
पाठकों को याद होगा कि जमातियों में शामिल इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस व सऊदी अरब आदि विदेशी नागरिकों के कोरोना ग्रस्त होने की खबर के बाहर आते ही यह अपील की गई थी कि इज्तेमा में शामिल सभी भारतीय नागरिकों को स्वयं ही अपनी पहचान सरकार को जाहिर कर देनी चाहिए जिससे उनका चिकित्सा परीक्षण करके उन्हीं के घर वालों समेत समाज के अन्य लोगों की सुरक्षा की जा सके। चूूूंकि इज्तेमा मजहबी मामलात से ताल्लुक रखता था। अतः कोरोना के मुस्लिम समाज में ही फैलने की ज्यादा गुंजाइश बन गई थी। जमातियों ने कोरोना के सामुदायिक स्तर पर फैलने का बहुत बड़ा खतरा खड़ा कर दिया था जो किसी हद तक सच ही साबित हुआ लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि जब सरकार द्वारा जमातियों की निशानदेही करके उनके सम्पर्क में आये लोगों की जांच का काम शुरू हुआ तो सरकारी अमलों पर ही हमला शुरू हो गया और पुलिस तक को इसका शिकार बनाया गया। जब जमाती पकड़ में आये और उनका इलाज अस्पतालों में कराया गया तो उन्होंने डाक्टरों के मुंह पर थूकने से लेकर पूरे अस्पताल में ही गन्दगी फैलाने का काम शुरू किया मगर तब ये खुदाई खिदमतगार न जाने किस दीवार के सामने मुंह करके खड़े हो गये और इनकी जुबान से एक लफ्ज तक नहीं निकला लेकिन जब पुलिस और चिकित्सा कर्मचारियों पर हमला करने वाले लोगों के साथ कानून के हिसाब से कार्रवाई शुरू की गई तो इन्हें धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ती दिखाई देने लगी और इन्होंने मोदी सरकार को कोसना शुरू कर दिया और उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ को हिन्दूवादी कहना शुरू कर दिया।
कोई बताये कि जब इन्दौर से लेकर मुरादाबाद, बरेली व ओिड़शा तक में कोरोना जांच का विरोध केवल मुस्लिम समाज के कुछ गुमराह लोग ही कर रहे हैं तो सजा किस तरह दूसरे लोगों को दी जा सकती है। इसमें धर्मनिरपेक्षता कहां से आ गई? प्रशासन ने उनके खिलाफ कार्रवाई उनका धर्म देख कर नहीं बल्कि कानून की मुखालफत देखते हुए की है। भारत के किसी भी नागरिक को कानून के खिलाफ जाने का अधिकार नहीं है चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। यदि जमाती मुसलमान हैं तो यह एक सच है और इसे किस तरह छिपाया जा सकता है। इन खुदाई खिदमतगारों ने एक बार भी मुस्लिम समाज के इन लोगों से अपील नहीं की कि वे डाक्टरों व पुलिस के साथ बदसलूकी करने से बचें और अपने समाज के ही लोगों की जान बचाने के नेक काम में डाक्टरों का कहा मानें क्योंकि वे खुद अपनी जान जोखिम में डाल कर उन्हें बचाने की मुहिम में लगे हुए हैं। भारत जैसे विशाल व घनी आबादी वाले देश में कोरोना पर काबू पाने के जो इंतजाम किये गये उनके चलते 14 हजार में से चार हजार से अधिक जमाती कोरोना ग्रस्त मामले तरह-तरह की आशंकाएं पैदा करते हैं। सबसे बड़ी साजिश यह है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में तीन सौ से अधिक विदेशी जमाती इस राज्य की विभिन्न मस्जिदों का दौरा करने निकल पड़े। इज्तेमा में 1300 से ज्यादा विदेशी नागरिक शामिल हुए, इन लोगों ने स्थानीय मुस्लिम समाज के लोगों से सम्पर्क किया और कोरोना जम कर बांटा जिसके परिणाम स्वरूप इस राज्य में अब तक एक हजार के आसपास कोरोना संक्रमित लोग हो गये हैं। इनमें से अधिसंख्य यदि मुस्लिम समाज के ही लोग हैं तो उसे जाहिर करना साम्प्रदायिक कैसे कहा जा सकता है क्योंकि इसी समुदाय के लोगों को बचाने की जिम्मेदारी सरकार की हो जाती है और उनके सम्पर्क में आये लोगों को सुरक्षा कवच में रखने के दायित्व से भी वह बंध जाती है। मुसलमान भी भारत के बराबर अधिकार रखने वाले सम्मानित नागरिक हैं और उनकी भी सत्ता में समान हिस्सेदारी उतनी ही है जितनी कि किसी अन्य धर्म को मानने वाले नागरिक की। संविधान उन्हें भी वही हक देता है जो किसी हिन्दू नागरिक को। कोरोना ने उनके लिए भी वही समस्याएं पैदा की हैं जो अन्य लोगों के लिए। अतः देश के हित को सर्वोपरि मानना सभी नागरिकों का पहला कर्त्तव्य बनता है और भारत के मुसलमान राष्ट्रहित में अपना सर्वस्व बलिदान करने में कभी किसी से पीछे नहीं रहे हैं परन्तु भारत में ही एक वर्ग ऐसा पनप चुका है जो अल्पसंख्यक हितों के नाम पर राष्ट्रहितों के कुर्बान करने की वाणी बोल कर अमेरिका व पश्चिमी यूरोपीय देशों में इस देश की प्रगति पर ग्रहण लगाने का काम करता है।
लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सम्मान सर्वोच्च स्थान रखता है और मतभेद या मतभिन्नता का अर्थ कभी भी राष्ट्रविरोध नहीं होता है परन्तु समाज के एक समुदाय को प्रताड़ित दिखाते हुए देश को नीचा दिखाने का मन्तव्य निश्चित रूप से ही राष्ट्रविरोध की श्रेणी में आता है और इस वर्ग के ‘खुदाई खिदमतगार’ बने घूम रहे लोग ऐसा ही काम कर रहे हैं। इन्हीं में से एक एजाज खान को हाल ही में कानून के हवाले किया गया है। अतः सभी हिन्दू-मुसलमानों का यह कर्त्तव्य बनता है कि वे ऐसे धर्मनिरपेक्षतावादी चेहरों से नकाब उतार कर फैंक दें।