यह सोचना मूर्खता होगी कि चुनावों के दौर में राजनैतिक दलों की कलाबाजियों से भारत के प्रबुद्ध मतदाता अंजाने बने रह सकते हैं। गांधी बाबा इन्हें अक्ल देकर चले गये हैं कि लोकतन्त्र में सत्ता पाने की खातिर चुनावों को प्रभावित करने के लिए सियासी पार्टियां क्या-क्या नाटक कर सकती हैं और उनके वोट पाने के लिये किस तरह के हथकंडे अपना सकती हैं। यह अजूबा नहीं है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया के चलते अभी तक चुनाव आयोग की भ्रष्टाचार निरोधी टीम ने कुल 118 करोड़ रु. की नकद धनराशि जब्त की है जो मतदाताओं में वितरित करने की गरज से ही विभिन्न तरीकों से ले जायी जा रही थी। आखिर किस तरह इतना बेहिसाब धन चुनावों को प्रभावित करने के लिए प्रकट हो गया और ये नये नोट कहां से आये ? मगर यह केवल एक बानगी है कि किस तरह मौजूदा राजनैतिक तन्त्र पूरी लोकतान्त्रिक प्रणाली को गन्दला बनाने की तजवीजें निकाले बैठा है किन्तु अचानक ही अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकाप्टर कांड की गूंज भी इस चुनावी माहौल में सुनाई देने लगी। आम जनता के जमीन से जुड़े मुद्दे गौण हो गये।
जाहिर तौर पर गन्ना किसानों का पिछले वर्ष तक का बकाया अभी तक अदा न करने का जुल्म हेलीकाप्टर खरीद में होने वाले कथित भ्रष्टाचार से नहीं मिटाया जा सकता। यदि एेसा है तो मतदाता सवाल पूछ सकते हैं कि अभी तक पनामा पेपर्स में आये राजनैतिक दलों के नेताओं के बारे मंे क्या हुआ जबकि पूरी दुनिया के कई देशों में इन कागजात में वहां के राजनीतिज्ञों का नाम आने के बाद से उनकी राजनीति ही बदल गई। सवाल न कांग्रेस का है और न भाजपा का बल्कि हमारे राजनैतिक तन्त्र में अपना सुरक्षित स्थान बनाये बैठे धनतन्त्र का है। इस सन्दर्भ में शासन में रहने पर दोनों ही पार्टियां एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप विभिन्न सौदों में लगाती रहती हैं परन्तु लोकतन्त्र में सबसे अधिक महत्व जन अवधारणा का होता है। यह जन अवधारणा ही राजनैतिक दलों को चुनावों में हार या जीत दिलाती है।
हमने देखा कि किस प्रकार बोफोर्स तोप कांड का मसला पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय तक छाया रहा मगर इसका अन्तिम नतीजा यह निकला कि उच्च न्यायालय ने उन स्व. राजीव गांधी को पूरी तरह निष्कलंक व बेदाग पाया जिनकी सरकार के ऊपर इस तोप सौदे में 68 करोड़ रु. की रिश्वत खाने का आरोप लगा था और इसी की वजह से उनकी सरकार भी चली गई थी। इसी प्रकार सबसे ताजा मामला 2-जी स्पैक्ट्रम आवंटन घोटाले का रहा जिसमें 186 लाख करोड़ रु. का घपला तक होने की आशंका व्यक्त की गई थी मगर इसका क्या हश्र हुआ? सीबीआई कोर्ट ने ही कहा कि तत्कालीन सूचना प्रोद्योगिकी मन्त्री ए. राजा पर कोई आरोप सिद्ध नहीं होता है मगर आम जनता में अवधारणा व्याप्त हो गई थी कि मनमोहन सरकार वित्तीय घोटालों का भंडार बन गई है। इसलिए जनता ने उसे करारी सजा भी सुना दी मगर ध्यान रखा जाना चाहिए कि अवधारणा इकतरफा नहीं होती, यह दूसरी तरफ भी बन सकती है और इसका दूसरा पहलू यह होता है कि राजनैतिक बदले की भावना से आरोप गढ़-गढ़ कर विरोधियों को फंसाया जा रहा है परन्तु एेसे आरोप लोकतन्त्र में प्रायः विपक्ष में रहने वाले दल सत्तारूढ़ दल पर लगाते रहते हैं मगर असली देखने वाली बात यह होती है कि आम जनता उसे किस रूप में देखती है? जनता मनमोहन सरकार के दौरान हुये घोटालों को भी भूली नहीं है।
भारत के मतदाताओं को गांधी बाबा यह बात घुट्टी में पिला कर चले गये हैं कि सत्ता में आये किसी भी दल के जायज और नाजायज कामों का जायजा इस पैमाने पर कस कर लो कि साधन और साध्य की पवित्रता का पालन किस स्तर पर और किस तरह किया गया है? चाहे बोफोर्स हो या 2-जी स्पैक्ट्रम, दोनों ही मामलों मंे सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी लोकतन्त्र के पहरे में अपनी साफगोई का प्रमाण आम जनता को देने में असमर्थ रही थी। इसी वजह से जनता में अवधारणा उसके खिलाफ बनी थी मगर इसके साथ ही यह भी उदाहरण है कि जब 1977 मंे स्व. इंदिरा गांधी की पराजय हुई और इमरजेंसी में ज्यादतियों की जांच करने के लिये सत्तारूढ़ जनता पार्टी सरकार ने शाह आयोग का गठन किया और उसमें आरोपों की झड़ी लगा दी गई तो इस देश की जनता ने उसे पूरी तरह ठुकरा दिया और शाह आयोग को कूड़ेदान में फेंक दिया। अतः इस गफलत में रहने की जरूरत नहीं है कि आम मतदाता साधन और साध्य की पवित्रता के गूढ़ अर्थ को नहीं समझ पाता। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि सूरज को छूने की चाह में प्यास की कोई सीमा नहीं रहती जबकि सूर्य अपनी ऊष्मा से पूरे जगत को रोशनी देने से कभी नहीं थकता। भारत के लोकतन्त्र को सतत सजीव और ऊर्जावान रखने वाले सूरज को तो जलते ही रहना है।