जब गौहत्या पर पूरे भारत देश में प्रतिबन्ध लगाने के लिए आज के उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ मनमोहन सरकार के प्रथमकाल के दौरान लोकसभा के सदस्य के रूप में निजी विधेयक लाए थे तो उस पर बहस का एेसा वातावरण बन गया था कि उस समय के गृहमन्त्री श्री शिवराज पाटिल ने स्वयं इस पर चली बहस का जबाव दिया था। तब श्री शिवराज पाटिल ने कहा कि गौ समेत दुधारू पशुओं के संरक्षण को भारतीय संविधान के निदेशक सिद्धांतों में रखा गया है मगर यह विषय राज्य सूची का है क्योंिक कृषि क्षेत्र के अन्तर्गत पशुधन संरक्षण व संवर्धन का विषय आता है, अतः गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगाने का अधिकार विभिन्न राज्य सरकारों को है और इस सम्बन्ध में विभिन्न राज्य सरकारों ने कानून बनाए भी हैं।
गौहत्या पर प्रतिबन्ध का मुद्दा अक्सर चुनावी मौसम में भारतीय जनसंघ पार्टी जोर-शोर से उठाया करती थी। सबसे ज्यादा तूफानी आन्दोलन 1967 के आम चुनावों से पहले हुआ था और इस आन्दोलन की बागडोर स्व. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के हाथ में थी। मार्च –अप्रैल 1967 से पहले नवम्बर –दिसम्बर 1966 में गौहत्या निषेध आन्दोलन पूरे उत्तर भारत में बहुत तीव्र गति से चला और इसी के तहत साधु-सन्तों ने संसद का घोराव भी किया। संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान जब साधु–सन्तों और गौरक्षकों ने राजधानी में संसद का घेराव किया तो इसने उग्र रूप धारण कर लिया और आन्दोलनकारियों को नियन्त्रित करने के लिए पुलिस को बल प्रयोग के साथ ही गोली चलानी पड़ी जिसमें कुछ लोगों की मृत्यु हो गई।
इससे उपजे रोष का असर इस कदर हुआ कि तत्कालीन गृहमन्त्री श्री गुलजारी लाल नन्दा को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद प्रधानमन्त्री पद पर विराजमान स्व. इंरा गांधी ने गौहत्या निषेध पर वृहद विचार करने के लिए समिति का गठन किया और उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघ चालक स्व. गुरु गोलवलकर को भी रखा। उस समय पुरी के शंकराचार्य बैंकुठवासी स्वामी निरंजन देव तीर्थ भी बहुत सक्रिय भूमिका में थे और गौहत्या निषेध के आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी बनाने में लगे हुए थे। उन्होंने कई बार इन्दरा सरकार को आमरण अनशन तक की धमकी भी दी परन्तु केन्द्र इस मामले में किसी भी प्रकार का कानून बनाने में सक्षम नहीं था क्योंकि संविधान उसे इसकी इजाजत नहीं देता था परन्तु भारतीय जनसंघ के हर चुनावी घोषणापत्र में 1975 तक गौहत्या का जिक्र जरूर होता था लेकिन इस मुद्दे का सर्वाधिक लाभ जनसंघ को 1967 के आम चुनावों में जम कर हुआ था।
लोकसभा में तब उसकी सीटें 32 के लगभग आई थीं और उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश विधानसभाओं में वह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी। वस्तुतः नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों के गठन ने विपक्ष को पहली बार सत्ता में आने का अवसर प्रदान किया था। हालांकि एक राज्य पंजाब (अकाली–जनसंघ गठजोड़) के अलावा हर गैर-कांग्रेसी सरकार का मुख्यमन्त्री कांग्रेस छोड़ कर ही विपक्षी गठबंधन में शामिल हुआ नेता था। ये सरकारें अधमरी साबित हुईं और समय पूर्व ही बिखर गईं। मगर गौहत्या का मुद्दा विद्यमान रहा और जनसंघ पार्टी इसे अपने मंचों पर उठाती रही। संभवतः तब तक स्पष्ट हो चुका था कि इस मसले का हल राज्य स्तर पर ही होना है। वर्तमान में जिस तरह अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण को लेकर वातावरण में गर्मी भरी जा रही है उसका सम्बन्ध भी भारत के महान संविधान से है। यह संविधान जब लिखा गया तब तक भारत से पाकिस्तान का विभाजन हो चुका था हालांकि संविधान सभा का गठन आजादी मिलने से पहले ही हो गया था परन्तु इसका अधिसंख्य भाग पाकिस्तान निर्माण के बाद ही लिखा गया और यह कार्य बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की छत्रछाया में हुआ।
बाबा साहेब ने इस देश को धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया और पहली वरीयता सदियों से दबे-कुचले हरिजन समाज को न्याय दिलाने की दी और हिन्दू समाज से जाति प्रथा के नाम पर जारी पाखंडवाद को समाप्त करने को दी। जातिविहीन समाज की कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने करके धर्म या मजहब को राजनीति से परे रखने की व्यवस्था की और सरकार का काम सामाजिक समानता को बढ़ावा देना तय किया और पिछड़े समाज के उत्थान के लिए कारगर नीतियां बनाने की वकालत की। मन्दिर या मस्जिद के पचड़े से दूर रहते हुए सरकार का काम सभी धर्मों का सम्मान करना इस प्रकार तय गया कि किसी भी व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने या उस पर आचरण करने में कोई दिक्कत न आए। भारत की इस विविधता को संविधान में पूरा सम्मान दिया गया और ताईद की गई कि आम नागरिक में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए वह निरन्तर प्रयास करेगी जिससे भारत लगातार विकास करता हुआ दुनिया के अन्य देशों के समकक्ष तेजी के साथ खड़ा हो सके।
अतः स्पष्ट है कि अयोध्या में राम मन्दिर का निर्माण सरकार के अधिकार क्षेत्र से इस तरह बाहर है कि वह केवल कानून का पालन होते हुए देखे और इस मामले में कानून वही होगा जो सर्वोच्च न्यायालय फैसला देगा। अतः यदि कोई सांसद मन्दिर निर्माण के सन्दर्भ में निजी विधेयक लाने का संकल्प भी करता है तो सबसे पहले उसे यह विचार करना होगा कि क्या संविधान के दायरे में उसका संकल्प उस प्रक्रियागत तन्त्र में भेज सकता है जिसमें सरकार की जिम्मेदारी नियत की जा सके। सर्वोच्च न्यायालय की सबसे बही जवाबदेही संविधान के प्रति ही होती है। राजनीतिक दलों का काम न तो मन्दिर निर्माण करना होता है और न मस्जिद या गुरुद्वारा अथवा गिरजाघर। यह काम समाज के धार्मिक संस्थानों का होता है। अदालत का काम सिर्फ यह देखना होता है कि कोई भी निर्माण अवैध तरीके से न किया गया हो इसीलिए महत्वपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय अयोध्या विवाद पर क्या फैसला देता है? राम मंगल करने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम माने जाते हैं। भारत का मंगल उनके मन्दिर के केन्द्र में रहना पहली शर्त है।