दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा चुनाव आयोग की ओर से ‘आप’ के 20 विधायकों को अयोग्य करार देने के फैसले को रद्द करने से चुनाव आयोग पर सीधे अंगुलियां उठ रही हैं। यह पहला मौका है कि मुख्य चुनाव आयुक्त पद से सेवानिवृत्त हुए अचल कुमार ज्योति को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है और साथ ही चुनाव आयोग की कार्यशैली काे लेकर आलोचना हो रही है। हाईकोर्ट ने तो 20 विधायकों को अयोग्य करार देने वाली अधिसूचना को ‘BAD IN LAW’ करार देने के साथ चुनाव आयोग को विधायकों की याचिका पर नए सिरे से सुनवाई का आदेश दिया है। 23 जनवरी 2018 को रिटायर होने से केवल चार दिन पहले अचल कुमार ज्योति ने लाभ के पद मामले में 20 अाप विधायकों को अयोग्य करार देने की सिफारिश राष्ट्रपति को भेज दी। राष्ट्रपति ने भी दो दिन बाद इस सिफारिश पर मुहर लगा दी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि विधायकों को अयोग्य करार देने की सिफारिश करने के फैसले से प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ। अपने पद पर रहते हुए अचल कुमार ज्योति को शायद यह याद नहीं रहा होगा कि लाभ के पद का मामला कई राज्यों में भी चल रहा है। मापदंड तो सभी पर एक समान लागू होने चाहिएं। इसको लागू करने के लिए केवल राजधानी को ही क्यों चुना गया। ‘आप’ विधायक गुहार लगाते रहे कि उन्हें सुनवाई का समुचित मौका दिया जाए लेकिन उनकी सुनवाई किए बिना ही अचल कुमार ज्योति ने सिफारिश कर दी।
चुनाव आयोग एक ऐसी संस्था है जिस पर निष्पक्ष चुनावों के जरिये लोकतंत्र की मर्यादा को अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी होती है, अगर यह संस्था स्वयं मनमानी पर उतर आए तो केन्द्र पर संवैधानिक संस्था के दुरुपयोग करने के आरोप लगेंगे ही। सवाल भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस या अन्य दलों का नहीं है, अहम सवाल लोकतांत्रिक प्रतिष्ठान की ईमानदारी और निष्पक्षता का है।
अगर प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया होता तो हाईकोर्ट संभवतः चुनाव आयोग के पक्ष में फैसला देता परन्तु उसने तो मुख्य चुनाव आयुक्त से यहां तक कह डाला कि वह राष्ट्रपति को भेजी गई सिफारिश वापस ले लें। हाईकोर्ट के फैसले से आप पार्टी को पुनर्जीवन तो मिला ही, साथ ही उसे यह कहने का मौका मिल गया कि चुनाव आयोग का फैसला देश के संघीय ढांचे के लिए खतरनाक था आैर चुनाव आयोग ने एक निर्वाचित सरकार को गिराने की साजिश रची। सरकारें तो आती-जाती रहेंगी, लेकिन चुनाव आयोग जैसे संस्थानों की विश्वसनीयता खो गई तो उसे फिर से हासिल करने में दशकों का समय लग जाएगा। टी.एन. शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त के पद पर रहते 1990 के दशक में आयोग ने विश्वसनीयता का ट्रैक रिकार्ड हासिल किया था।
उनकी सख्ती की वजह से चुनाव प्रक्रिया में धांधलियां रोकने के लिए कई कदम उठाए गए और आयोग की छवि एक निष्पक्ष आैर ईमानदार संस्था के रूप में स्थापित की गई। टी.एन. शेषन के बाद चुनाव आयोग की निष्पक्षता कई बार संदेह के घेरे में आई। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस या एनडीए के शासन में चुनाव आयोग पर सत्ता के दबाव में काम करने के आरोप नहीं लगे, जितना चुनाव आयोग का निष्पक्ष होना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उसे सरकारी दबाव से मुक्त रखना। टी.एन. शेषन ने यही करके दिखाया था। उन्होंने चुनाव आयोग की सत्ता आैर शक्तियों को व्यावहारिक तौर पर इस्तेमाल किया। उन्होंने बड़े से बड़े पद पर बैठे लोगों के प्रति कोई नरमी नहीं दिखाई।
अचल कुमार ज्योति ने बड़े दम ठोक कर कहा था कि आयोग एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने को तैयार है लेकिन राज्यों के विधानसभा चुनाव कार्यक्रम का ऐलान करते समय अपने दावे को भूल गए। कुछ राज्यों के चुनाव में एक माह का अंतराल क्यों था, सवाल तो तब भी उठे थे और आज भी उठ रहे हैं। गुजरात और हिमाचल की भौगोलिक स्थिति और मौसम एक-दूसरे से अलग हैं लेकिन मणिपुर आैर गोवा के चुनाव एक साथ क्यों करवाए गए। ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी को लेकर भी चुनाव आयोग संदेह के घेरे में है और लोग आयोग के दावों से संतुष्ट नहीं हैं। लोगों को संतुष्ट करना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है।
भारतीय चुनाव आयोग की स्थापना 25 जनवरी 1950 को की गई थी, आयोग की स्वर्ण जयन्ती 2001 में मनाई गई थी लेकिन हमें विचार करना होगा कि चुनाव आयोग का अब तक का कार्यकाल कितना स्वर्णिम रहा है? उसमें भी सैकड़ों दाग हैं। किसी भी लोकतंत्र के लिए उसके स्वतंत्र प्रतिष्ठानों का मजबूत होना बहुत जरूरी है। प्रतिष्ठान कमजोर हुए तो लोकतंत्र कमजोर होगा ही। वर्तमान मुख्य चुनाव आयुक्त को आयोग को टी.एन. शेषन की कार्यशैली के अनुरूप बनाना होगा अन्यथा सवाल तो उठते रहेंगे।