आज 31 अक्तूबर भारत के प्रथम उपप्रधानमन्त्री व गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म दिवस है। पूरा भारत स्वतन्त्र भारत के इस लौह पुरुष की जयन्ती उल्लास के साथ मना रहा है और स्वतन्त्रता संग्राम के महानायकों में से एक महान योद्धा का स्मरण कर रहा है। उनकी जयन्ती के दिन राष्ट्रीय दौड़ का आयोजन विभिन्न शहरों में किया जा रहा है मगर सबसे अहम सवाल यह है कि सरदार पटेल की उस ‘विरासत’ के प्रति यह देश और इसके राजनीतिज्ञ कितने सजग हैं जो उन्होंने आजाद भारत की नई पीढि़यों के लिए छोड़ी। उनकी इस महान विरासत का न तो राजनीतिज्ञ जिक्र करना चाहते हैं और न ही सामान्य जनता को उसके प्रति जागरूक करना चाहते हैं। सरदार पटेल की सबसे बड़ी विरासत यदि कोई है तो वह यह है कि उन्होंने राजनीतिज्ञाें की अाने वाली पीढि़यों को सन्देश दिया कि सत्ता को अर्थ या धन कमाने का उपाय बनाने से बचा जाना चाहिए और ऊंचे से ऊंचे पद पर आसीन व्यक्ति को भी अपनी प्रकट आय स्रोतों के भीतर ही गुजारा करना चाहिए। धन संचय करना राजनीतिज्ञों का धर्म नहीं है। अतः जब सरदार पटेल की मृत्यु हुई तो उनकी कुल जमा सम्पत्ति केवल 259 रुपए थी। वह अपने परिवार के लिए कोई मकान भी नहीं खरीद सके थे। उनकी पुत्रियां जीवन भर किराये के मकान में रहती रहीं जिनमें से एक मणिबेन पटेल कांग्रेस व स्वतन्त्र पार्टी के टिकट पर सांसद भी रहीं।
सरदार की विरासत को उनकी पुत्रियाें ने जीवन भर निभाया और सिद्ध किया कि राजनीति का मतलब केवल जनता की सेवा ही होता है और इसके लिए धन की जरूरत उन्हें पड़ती है जिनका लक्ष्य सत्ता से लाभ पाना होता है। मणिबेन ने अपने पिता सरदार पटेल के जीवन पर लिखी पुस्तक ‘दि इनसाइड स्टोरी आफ सरदार पटेल’ में एकाधिक बार स्पष्ट किया है कि पं. जवाहर लाल नेहरू और उनके पिता के बीच किसी प्रकार के सैद्धांतिक मतभेद नहीं थे और दोनों का लक्ष्य गांधीवादी रास्ते से अंग्रेजी शासन का पूर्ण खात्मा तथा स्वराज की स्थापना था। यह भी भ्रांित है कि स्वतन्त्रता मिलने पर सरदार पटेल की लोकप्रियता पं. नेहरू से ज्यादा थी।
वस्तुतः पं. नेहरू जननायक थे और सरदार पटेल नीति निर्माता थे। इसके साथ ही यह भी जानना बहुत जरूरी है कि सरदार पटेल का नजरिया भारत के विभाजन के दौर में किसी विशेष सम्प्रदाय के पक्ष या खिलाफ नहीं था बल्कि हकीकत यह है कि पाकिस्तान निर्माता मुहम्मद अली जिन्ना की जिद को देखते हुए उन्होंने भारत के हिन्दू-मुसलमानों की उस सांझी विरासत का हवाला कई बार दिया जो अंग्रेजों से युद्ध करते समय पिछली सदी से रही थी मगर सरदार और पं. नेहरू के अपने पूरे राजनीतिक जीवन में वह क्षण सबसे बड़ी हार का क्षण था जब इन दोनों नेताओं ने महात्मा गांधी की इच्छा के विरुद्ध भारत के बंटवारे को सहमति दी थी परन्तु सरदार यह भलीभांति जानते थे कि नेहरू के व्यक्तित्व में वह ओज और आकर्षण था कि बंटा हुआ भारत फिर से एकजुट होकर नए देश का निर्माण करने में समर्थ हो जाएगा। यह बेवजह नहीं था कि पं. नेहरू ने उन्हें अंग्रेजों की उस चाल को काटने का सबसे बड़ा नायक निरुपित किया जो अंग्रेजों ने भारत को आजादी देते वक्त बहुत होशियारी के साथ चल दी थी और सभी देशी राजे-रजवाड़ाें की रियासतों को खुली छूट दे दी थी कि वे चाहें तो भारत या पाकिस्तान में से किसी एक देश में विलय करें या फिर स्वतन्त्र रहें। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि आजादी मिलने के एक वर्ष पहले जब अंग्रेजी वायसराय लार्ड वेवेल की अध्यक्षता में भारत की हुकूमत चलाने के लिए कैबिनेट मिशन के तहत विशेष समिति बनी थी तो सरदार पटेल इसमें पं. नेहरू के मातहत काम करते हुए गृह विभाग के प्रभारी थे।
सरदार अंग्रेजों की नीयत से वाकिफ हो चुके थे और इसके विरुद्ध उन्होंने रणनीति बनानी शुरू कर दी थी क्योंकि इस विशेष समिति के कार्यकारी प्रमुख पं. नेहरू ही थे और इसमें मुहम्मद अली जिन्ना ने आखिरी दम तक शिरकत नहीं की थी। स्वतन्त्रता मिलने पर सरदार पटेल ने बिना किसी बाधा और रोकटोक के अपना संयुक्त भारत मिशन पूरा किया और निजाम हैदराबाद जैसी रियासत को दिन में तारे दिखाते हुए भारत में इसका विलय कराया। इतना ही नहीं कर्नाटक की विशाल मैसूर रियासत का विलय 14 अगस्त 1947 को ही भारतीय संघ में हुआ था। उनकी यह रणनीति यहीं तक नहीं थी बल्कि उन्होंने स्वतन्त्र भारत की प्रशासनिक व्यवस्था को भी इस प्रकार एक सूत्र में पिरोया कि केन्द्र और राज्य दोनों के बीच सन्तुलन इस प्रकार बना रहे कि पूरा भारत एक ही धागे से बन्धा रहे। सरदार गृहमन्त्री होने के साथ ही भारत के पहले सूचना व प्रसारण मन्त्री भी थे क्योंकि यह विभाग तब गृह मन्त्रालय के अंतर्गत ही आता था।
उन्होंने आकाशवाणी को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने की पुख्ता बुनियाद भी रखी मगर भारत की आंतरिक सुरक्षा के मामले में वह इतने दूरदर्शी थे कि उन्होंने 1949 में चीन के स्वतंत्र होते ही तिब्बत में उसके कारनामों से पं. नेहरू को एक पत्र लिखकर सजग किया था और उसकी नीयत को उजागर किया था। उसी का परिणाम यह निकला कि पं. नेहरू ने तब तिब्बत से लगे नेफा क्षेत्र (अब अरुणाचल प्रदेश) में भारतीय प्रशासन को बहुत चुस्त–दुरुस्त कर दिया मगर यह भी सत्य है कि उन्होंने नेहरू के नेतृत्व को कभी चुनौती नहीं दी। यह संयोग नहीं था कि आजादी मिलने पर जब कांग्रेस में प्रधानमन्त्री पद के लिए चुनाव हुआ तो कथित गरम दल के प्रत्याशी के रूप में सरदार पटेल ने अपने प्रतिद्वन्दी आचार्य कृपलानी को बुरी तरह हरा दिया था मगर इसमें महात्मा गांधी ने पं. नेहरू को प्रत्याशी नहीं बनाया था और बाद में उन्होंने पं. नेहरू को प्रधानमन्त्री पद के लिए सर्वसम्मत उम्मीदवार के रूप में यह कहकर पेश किया कि सरदार को प्रधानमन्त्री बनाने का मतलब यह होगा कि एक गुजराती ने दूसरे गुजराती के साथ पक्षपात किया है। सरदार जैसे व्यक्तित्व के लिए इसके पीछे गांधी की दिव्य दृष्टि को समझना मुश्किल काम नहीं था। अतः राजनीति के दांवपेंचों को राष्ट्रहित में किस तरह खेला जाता है यह उनकी रग–रग में बसा हुआ था। इसीलिए उन पर लिखी एक कविता में उनका बखान इन शब्दों में किया गया था-
रहा खेलता सदा समझ कर इस जीवन को खेल
राजनीति का कुशल खिलाड़ी वह सरदार पटेल