राष्ट्रपति भवन के विशाल प्रांगण में स्थित मुगल गार्डन का नाम बदल कर अब ‘अमृत उद्यान’ रख दिया गया है। 74वां गणतन्त्र दिवस मनाने के बाद आजादी के अमृतकाल वर्ष में यह पुनर्नामकरण किया गया है। इस कार्य को सराहने वाले जितने हैं उतने ही आलोचना करने वाले भी हैं । परन्तु अन्तिम सत्य यही है कि भारत इसकी धरती पर रहने वाले हर भाषा-भाषी व हर पंथ या मजहब अथवा क्षेत्र के लोगों का है। अतः पूरे मामले को हमें इस नजरिये से देखते हुए भारत की ‘एकात्म शक्ति’ के दायरे में परखना चाहिए। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि 1526 से 1857 तक के मध्ययुगीन भारत पर मुगलों का शासन था और इस दौरान जहां कुछ बादशाहों के शासनकाल में विध्वंस हुआ वहीं निर्माण भी हुआ। बेशक इससे पहले के 1198 से लेकर 1526 तक के मुस्लिम सुल्तानी शासन के दौरान विध्वंस ही अधिक हुआ मगर मुगलकाल में इस क्रम को बदला गया और औरंगजेब को छोड़ कर अन्य किसी मुगल बादशाह ने भारत की आत्मा में बसी इसकी सनातन संस्कृति पर आघात नहीं किया। यह भी सच है कि कुछ इतिहासकारों ने मुगलों का महिमा मंडन करने में भी कसर नहीं छोड़ी मगर यह भी सच है कि मुगलकाल के दौरान भारत की विश्व व्यापी प्रतिष्ठा में आर्थिक मंच पर मजबूती आयी और यह दुनिया की नम्बर एक आर्थिक शक्ति बना रहा और इसके साथ ही इसकी सारी व्यापारिक व वाणिज्यिक गतिविधियां भी हिन्दुओं के हाथ में ही रहीं।
यह भी तथ्य है कि पांच सौ वर्षों तक मुस्लिम शासन में रहने के बावजूद 1947 में भारत में मुसलमानों की कुल आबादी केवल 25 प्रतिशत ही थी। इसके बावजूद मुगलकाल में शासन के प्रमुख अंगों पर मुस्लिम मनसबदारों का ही दबदबा बना रहा। खासकर इस समुदाय के ‘अशराफिया’ कहे जाने वाले लोगों का जिनका मूल अरब, तुर्की, ईरान व अफगान था। भारतीय मूल के मुसलमानों के लिए इसमें कोई जगह नहीं थी। यहां तक कि इस अशराफिया समाज के मनसबदारों ने मुगल साम्राज्य को खोखला करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यदि मुगलों का इतिहास हम ध्यान से पढें तो उनके खिलाफ मुस्लिम जागीरदारों या मनसबदारों की बगावत भी कम नहीं है। मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय को तो रुहल्ला सरदार नजीबुद्दौला ने ही अंधा बना दिया था और उसी ने अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के समय अपना पूरा समर्थन दिया था। अंधे शाह आलम द्वितीय को पुनः दिल्ली के सिंहासन पर ग्वालियर नरेश महादजी सिन्धिया ने ही बैठाया था। अन्तिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर की राष्ट्रभक्ति पर कोई सवालिया निशान कैसे लगा सकता है जब 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान स्वयं हिन्दू राजाओं ने ही उन्हें अपना बादशाह बनाया था। इस बारे में वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम’ में खुल कर लिखा है।
सवाल यह है कि हम इतिहास को हम किस करवट से देखते हैं। किसी भी इतिहास के दोनों पक्ष होते हैं। एक इतिहास यह भी है कि मुगल बादशाह अकबर की महाराणा प्रताप से हुई जंग में उसके सेनापति जयपुर के राजा मानसिंह थे और महाराणा प्रताप के सेनापति एक मुस्लिम योद्धा हाकिम खां सूर थे। अतः मुगल गार्डन का नाम बदल कर इसे अमृत उद्यान रख दिये दाने का मसला हिन्दू-मुसलमान का बिल्कुल नहीं बल्कि भारत की एकात्मता का है। बेशक मुगल बादशाहों को बागों व उद्यानों का शौक था और वे जो भी महल या किले बनवाते थे उनमें उद्यान व पानी जरूर होता था।
कश्मीर में जहांगीर और शाहजहां ने जो उद्यान बनवाये थे उन्हीं की तर्ज पर नई दिल्ली के वाॅइसराय हाऊस में 1917 के बाद उद्यान की रचना की गई थी और उसका नाम मुगल गार्डन रख दिया गया था। आजादी के बाद भी हमने इसे जारी रखा मगर इसी आजादी के अमृतकाल वर्ष में यदि इसका नाम अमृत उद्यान रख दिया गया है तो कोई आसमान टूटने वाली स्थिति नहीं है। मगर यह भी सच है कि नाम बदल कर हम भारत का इतिहास नहीं बदल सकते हैं क्योंकि भारत पर मुगलों व अंग्रेजों का शासन रहना एक वास्तविकता है। हम यह हकीकत कैसे मिटा सकते हैं कि जब 1756 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के लार्ड क्लाइव ने बंगाल के नवाब सिरोजुद्दौला को छल-बल से हराया था तो विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 25 प्रतिशत के लगभग था। यह दौर था जब मुगल सल्तनत ढह रही थी और भारत के विभिन्न इलाकों के नवाब व राजा स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर रहे थे। मगर यह भी तथ्य है कि बिहार के नालन्दा विश्वविद्यालय के विश्व के सबसे बड़े पुस्तकालय को जला देने वाले बख्तियार खिलजी के नाम पर अभी तक इस इलाके के रेलवे स्टेशन का नाम बख्तियारपुर ही है। कल तक मुगल गार्डन कहे जाने वाले और आज से अमृत उद्यान बने राष्ट्रपति भवन के दिलकश बाग में फूल अपनी खुश्बुएं नहीं बदल लेंगे और न ही अपनी खूबसूरती को बदल लेंगे। इस उद्यान में गुलाब की ही न जाने कितने किस्में है और उनके नाम भी अलग-अलग विश्व हस्तियों के नाम पर हैं। इसलिए अमृत उद्यान को हम भारत की आजादी के अमृतकाल का एक तोहफा ही समझें।