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कर्नाटक में प्रचार ‘शबाब’ पर

चुनाव लोकतंत्र का महोत्सव अवश्य होता है मगर ऐसा त्यौहार होता है जो आम लोगों द्वारा खुद अपने लिए बनाई जाने वाली सरकारों की आचार संहिता तय कर देता है।

चुनाव लोकतंत्र का महोत्सव अवश्य होता है मगर ऐसा त्यौहार होता है जो आम लोगों द्वारा खुद अपने लिए बनाई जाने वाली सरकारों की आचार संहिता तय कर देता है। फिलहाल कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं जिनमें मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ भाजपा व विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बीच माना जा रहा है और केन्द्रीय विमर्श भ्रष्टाचार बना लगता है। अब चुनावों का अन्तिम दिन करीब आता जा रहा है जिसकी वजह से दोनों प्रमुख पार्टियों की ओर से चुनाव प्रचार जमकर किया जा रहा है। चुनाव प्रचार शबाब पर पहुंचने के साथ ही मैदान में सभी  ऐसे मुद्दों की बैछार लग गई है जिनसे प्रभावित होकर मतदाता इन पार्टियों के प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान कर सकें। भारत में यह भी कहा जाता है कि चुनाव ‘अवधारणा’ के आधार पर जीते जाते हैं अतः जनता के बीच जो पार्टी जैसी जन प्रिय अवधारणा बना देती है अन्त में विजय उसी की हो जाती है। मगर कर्नाटक के चुनाव बहुत महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं क्योंकि राजनैतिक पंडित यह मान रहे हैं कि इनके परिणामों का असर अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनावों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। उनका तर्क सही भी हो सकता है क्योंकि देश की राजनीति में जो बदलाव आ रहा है उसे देखते हुए राज्यों से लेकर राष्ट्रीय चुनावों के बीच के मुद्दों का अन्तर कहीं न कहीं घटता भी जा रहा है। विशेषकर उस स्थिति में जब किसी पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व बहुत मजबूत होता है। मगर चुनाव केवल इसी भरोसे कोई राजनैतिक दल लगातार जीतता रहे इसकी गारंटी भी भारत के मतदाता नहीं देते हैं।
प्रादेशिक चुनावों में क्षेत्रीय मसलों की अपनी अहम भूमिका तो होती है मगर कहीं न कहीं कद्दावर क्षेत्रीय नेतृत्व की भूमिका भी रहती आयी है। इसके पक्ष व विपक्ष में कई तर्क व उदाहरण दिये जा सकते हैं। इसकी मूल वजह यह है कि राज्यों के चुनाव क्षेत्रीय स्तर पर जनता की समस्याओं का हल ढूंढने के लिए ही होते हैं जिसकी वजह से राजनैतिक दल एक-दूसरे के बारे में क्षेत्रीय स्तर की अवधारणाएं ही गढ़ते हैं। कर्नाटक चुनावों की महत्ता भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए जहां जीवन-मरण का प्रश्न बना लगता है वहीं इस राज्य के पूर्व प्रधानमन्त्री श्री एच.डी. देवेगौड़ा की जनता दल (स) क्षेत्रीय पार्टी के लिए भी यह अस्तित्व का सवाल है लेकिन पर्यवेक्षकों का मानना है कि इस बार चुनावों में जिस प्रकार के मुद्दे मैदान में तैर रहे हैं उनकी वजह से यह द्विपक्षीय लड़ाई ज्यादा लग रही है। कांग्रेस ने जहां अपनी पूरी ताकत झौंक दी है वहीं भाजपा ने अपनी ताकत लगा दी है। अन्तिम प्रचार के समय तो एेसी हालत हो गई है कि पूरे चुनाव प्रचार की कमान स्वयं प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने संभाल ली है और पिछले चार दिनों से केवल उनके प्रचार की गूंज ही हो रही है जिसमें कांग्रेस के घोषणा पत्र में पीएफआई के साथ बजरंग दल पर भी प्रतिबन्ध लगाये जाने का मुद्दा आ गया है और वह बजरंगबली से जाकर जुड़ गया है। इसके साथ ही ‘केरल फाइल्स’ फिल्म भी चुनावी विमर्श में आ गई है। इस फिल्म में केरल की महिलाओं के धर्मान्तरण से लेकर उनके इस्लामी जेहादी संगठनों से जुड़ने की गाथा फिल्मी अन्दाज में पेश की गई है। इससे यह आभास जरूर लगता है कि राजनीति में अब सभी प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल चुनावी विमर्श खड़ा करने के लिए हो सकता है। अतः जैसे हम सूचना टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में तरक्की कर रहे हैं वैसे-वैसे ही चुनावी प्रचार के तरीकों में भी नये-नये प्रयोग हो रहे हैं।
कर्नाटक में कांग्रेस की ओर से जहां इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे पूरी ताकत लगा रहे हैं वहीं इस पार्टी के अन्य शीर्षस्थ नेता श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी व प्रियंका गांधी भी जनता के बीच में हैं। हालांकि श्रीमती सोनिया गांधी केवल एक बार ही चुनाव प्रचार में उतरी हैं मगर उनका कर्नाटक से गहरा नाता रहा है क्योंकि एक बार वह इस राज्य की बेल्लारी लोकसभा सीट से भी चुनाव जीती थीं। श्री राहुल गांधी अपनी भारत-जोड़ो यात्रा के दौरान इस राज्य में लगभग तीन सप्ताह तक घूमे थे। श्रीमती प्रियंका गांधी को देखने व सुनने के लिए कर्नाटक की जनता में विशेष उत्साह भी नजर आया है। मगर इन सबसे ऊपर कांग्रेस के प्रादेशिक नेता श्री सिद्धारमैया का रुतबा एक लोकप्रिय जननेता का बरकरार है जिसे राज्य में कांग्रेस की एक बड़ी ताकत के रूप में देखा जा रहा है और साथ ही श्री खड़गे भी कर्नाटक के हैं।
भाजपा इन सारी ताकतों का मुकाबला श्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता के बूते पर करती नजर आ रही है जिससे चुनाव बहुत दिलचस्प हो गये हैं और शायद यही वजह है कि राजनैतिक पंडित इन चुनावों का असर राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ता देख रहे हैं। यह भी गौर करने वाली बात है कि 1985 के बाद से केवल दो बार ही इस राज्य में कांग्रेस के पूर्ण बहुमत में क्रमशः एस.एम. कृष्णा व सिद्धारमैया के नेतृत्व में सरकारें बनी हैं। भाजपा को इस राज्य में अधिकतम 111 सीटें मिलने का रिकार्ड श्री येदियुरप्पा के नेतृत्व में मिलने का रहा है। इस हिसाब से देखा जाये तो कर्नाटक बहुत उलझी हुई पहेली है। मगर इस पहेली का हल भी हमें उस चुनावी विमर्श या जन अवधारणा में मिलेगा जो फिलहाल कर्नाटक के मतदाताओं के दिल में जगह बना चुका है। क्योंकि आज 8 मई को चुनाव प्रचार खत्म हो जायेगा और 10 मई को मतदान होगा व 13 मई को नतीजे आ जायेंगे।

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