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आर्थिक संकट की चुनौतियां?

इसमें अब किसी शक की गुंजाइश नहीं है कि केवल कृषि उत्पादन को छोड़ कर भारतीय अर्थव्यवस्था के शेष सभी पहिये जाम हो चुके हैं जिसकी वजह से चालू वित्त वर्ष में वृद्धि होने की जगह उनकी कमी हो सकती है।

इसमें अब किसी शक की गुंजाइश नहीं है कि केवल कृषि उत्पादन को छोड़ कर भारतीय अर्थव्यवस्था के शेष सभी पहिये जाम हो चुके हैं जिसकी वजह से चालू वित्त वर्ष में वृद्धि होने की जगह उनकी कमी हो सकती है। अर्थव्यवस्था में वृद्धि दर नकारात्मक जाने का आकलन रिजर्व बैंक का ही है, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि लाॅकडाऊन ने हमें कहां तक ‘डाऊन’ कर डाला है।
अखिल भारतीय उत्पादक संघ (एआईएमओ)  के सर्वेक्षण के आंकड़ों को यदि स्वीकार करें तो देश में हर तीन में से एक छोटी उत्पादन इकाई बन्द होने के कगार पर इस तरह आ​कर खड़ी हो गई है कि उसके पुनरुद्धार की उम्मीद नियोजक छोड़ चुके हैं। हद यह है कि ये नियोजक अब कोई और आगे ऋण लेकर अपनी फैक्टरी का पहिया घुमाने के बजाय इसे बन्द करना ज्यादा फायदेमन्द मान रहे हैं।
लघु व मध्यम दर्जे और स्वरोजगार की इकाइयों की हालत लाॅकडाऊन ने जिस तरह खराब की है उससे यही तथ्य उजागर होता है कि अभी तक आर्थिक मदद की जो भी घोषणाएं सरकार ने की हैं उनका जमीनी हकीकत के साथ तालमेल नहीं है। उपलब्धि केवल यह है कि भारत के किसानों ने रबी की फसल का रिकार्ड तोड़ उत्पादन करने में जरूर सफलता प्राप्त की है और यह उनकी अपनी कड़ी मेहनत की निजी उपलब्धि है, परन्तु इसके विपरीत यदि उत्तर प्रदेश के बुन्देल खंड इलाके में लोग भूख से तड़पते हुए कटोरा लेकर सरकारी दफ्तरों और राशन की दुकानों के चक्कर काट रहे हैं तो सरकारी गोदामों में भरे अनाज की क्या कीमत हो सकती है (खबर यह भी है कि इस  इलाके के बांदा जिले में एक व्यक्ति भूख की वजह से ही दम तोड़ चुका है) यह स्थिति अपनी हालत खुद बयां कर रही है और बता रही है कि लाॅकडाऊन से उल्टे गांवों की तरफ हुए पलायन से भारत में गरीबों की संख्या में भारी इजाफा होने को तैयार खड़ा हुआ है।
यही समय है जब गरीबों के लिए सरकार के कोई मायने होते हैं और सरकार के लोकतान्त्रिक तरीके से आम जनता के वोट से चुने जाने का कोई मतलब होता है।  सरकारी खजाने जनता से वसूले गये धन से ही भरे जाते हैं और जनता में अमीरों की अमीरी गरीबों की मेहनत की वजह से ही बढ़ती है। इसमें राष्ट्रीय प्राकृतिक स्रोतों का भी बड़ा योगदान होता है जिन पर पूरे देश की जनता का समानाधिकार होता है।
अतः बहुत स्पष्ट है कि ऐसे विपरीत और संकट के समय वंचित और गरीब लोगों की आर्थिक मदद करना सरकार का कर्त्तव्य बन जाता है।  वित्तमन्त्री श्रीमती निर्मला सीतारमन को यह विचार करना चाहिए कि भूमिहीन व दीनहीन बने मजदूरों व रोजाना कमाई करके घर चलाने वाले लोगों की मदद इस समय सरकार सीधे उनके हाथ में  रोकड़ा देकर नहीं करेगी तो कब करेगी? जब छोटी फैक्टरियों के मालिक हाथ खड़े कर रहे हैं और कह रहे हैं कि खुदाया और कर्ज से बचाओ तो वह खोमचे या रेहड़ी लगाने वाला किस बूते पर कर्ज की दरख्वास्त डाल सकता है जिसने लाॅकडाऊन के दौरान अपने घर के बर्तन बेच कर भी अपने बच्चों का पेट पाला हो? जब रोटी के लिए लोग तड़प रहे हों तो उनसे यह नहीं कहा जा सकता कि वे ब्रेड (डबलरोटी) क्यों नहीं खा लेते !
यदि आम आदमी की जेब में बाजार से गेहूं खरीदने के लायक ही पैसा नहीं होगा तो वह अपने बाल-बच्चों को पढ़ाने-लिखाने का खर्चा कैसा उठा सकता है? लाॅकडाऊन में स्कूल बेशक बन्द हों मगर आम आदमी को अपने बच्चों की स्कूल की फीस तो भरनी ही पड़ेगी।  बिना कमाई के कर्ज लेकर वह फीस नहीं भर सकता।
बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का मतलब यह कतई नहीं होता कि सरकार की जिम्मेदारियां बाजार की शक्तियों के हवाले कर दी जाती हैं। इस मामले में 2008-09 का विश्व आर्थिक मन्दी का एक ही उदाहरण काफी है जब अमेरिका समेत यूरोपीय देशों के बैंक कंगाल हो रहे थे तो उनकी आर्थिक मदद वहां की सरकारों ने ही करके उन्हें पैरों पर खड़ा किया था। भारत की 50 प्रतिशत आबादी आज भूखी-नंगी हो चुकी है और उसकी जेब में रोकड़ा नहीं बची है तो उसकी मदद करना सरकार का मूल दायित्व बन जाता है।
हम केवल पांच किलो गेहूं या चावल और एक किलो दाल देकर इससे मुक्ति नहीं पा सकते क्योंकि सरकारी खजाने में जमा धन में गरीब से गरीब आदमी का भी योगदान होता है। सरकारी खजाना केवल आयकर अदा करने वालों से ही नहीं भरता है बल्कि उसमें गरीब से गरीब आदमी का योगदान भी होता है। एक रुपये की माचिस खरीदने पर भी उसमें टैक्स शामिल होता है। सरकार परोक्ष तरीके से गरीब आदमी से भी टैक्स वसूल करती है।
अतः उसके भूखा हो जाने पर उसकी मदद कौन करेगा ? मदद का मतलब केवल भंडारा या लंगर लगवा कर एक दिन भरपेट भोजन कराने से नहीं होता है।  लोकतन्त्र में ऐसी मदद के कोई मायने नहीं होते। लोकतन्त्र अधिकार देता है, दया में भीख नहीं परोसता क्योंकि सत्ता को देने वाले आम लोग ही होते हैं। अतः उसमें उनकी सीधी भागीदारी होती है।
गांधी बाबा यही सिखा कर इस देशवासियों को गये हैं कि लोकतन्त्र में यह हिस्सेदारी संवैधानिक हक के रूप में मिलती है, दया के रूप में नहीं  लेकिन गौर से सोचा जाये तो अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाने के लिए यह शानदार निवेश ही होगा क्योंकि आगे चल कर इसका लाभ सरकार को ही मिलेगा और उसके खजाने फिर से भरेंगे। सरकार बड़े कार्पोरेट घरानों को शुल्क छूट इसी वजह से तो देती है जिससे भविष्य में वे फिर से उसके खजाने भरें। यह तो प्रत्यक्ष रोकड़ा मदद ही होती है। 

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