हमारी पंजाब केसरी और जे.आर. की नेट टीम हर समय लेटेस्ट टॉपिक को लेकर मुद्दे उठाती है और वीडियो बनाकर सारी दुनिया में मैसेज लेकर छा जाती है। पिछले दिनों से गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के महासचिव सरदार मनिंदर सिंह सिरसा व और भी बहुत से लोगों द्वारा यह बात सामने आ रही थी कि बाल दिवस चार साहिबजादों की याद में मनाया जाना चाहिए। मनिंदर सिरसा मुझे बहन से बढ़कर दर्जा और मान-सम्मान देते हैं और हर समय व्हाट्सअप पर कोई न कोई मैसेज, मुद्दा भेजते रहते हैं। जब उन्होंने यह मुद्दा भेजा तो मैं भी इस बारे में बहुत सतर्क हुई और दिलचस्पी ली। साथ ही हमारी पंजाब केसरी नेट टीवी टीम ने पूरी जानकारी के साथ चार साहिबजादों के बारे में एक संक्षिप्त और पूरी जानकारी के साथ (punjabkesari.com) और आम, खास लोगों के साथ वीडियो बना दी जिसे देश-विदेशों में कई मिलियन लोगों ने सराहा। जब मैंने भी देखी तो मैं भी उससे पूरी तरह से सहमत हुई। यह ठीक है कि हम इतने सालों से देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जी का जन्मदिन बाल दिवस के रूप में मनाते आए हैं क्योंकि उनका देश की आजादी में बहुत बड़ा योगदान था, पहले प्रधानमंत्री थे और बच्चों को बहुत प्यार करते थे और बच्चे उन्हें चाचा नेहरू कहते थे।
मैं यह सब मानते हुए यह कहती हूं कि उनका जन्मदिन हर साल हमेशा की तरह धूमधाम से ही मनाया जाना चाहिए क्योंकि वह मार्गदर्शक भी थे, स्टेट्समैन भी थे और उनकी यह विशेषता थी कि वह बच्चों को प्यार करते थे परन्तु अगर सब इसके लिए आगे आएं तो बाल दिवस 20 नवम्बर को साहिबजादों के नाम पर ही मनाना चाहिए क्योंकि इतिहास साक्षी है कि ऐसा बलिदान न कभी किसी पिता ने अपने बच्चों का दिया होगा और न ही इतने छोटे बच्चों ने अपने धर्म के लिए दिया होगा। आज भी हम किसी का भी धर्म बलपूर्वक परिवर्तन कराने को बुरा मानते हैं और नवम गुरु तेग बहादुर जी और उनके सुपुत्र दशम गुरु गोबिन्द सिंह जी और उनके चारों साहिबजादों ने तो हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए मुगलों से लोहा भी लिया और बलिदान भी दिया। सो, इसके लिए सारे संसार के हिन्दुओं, सिखों और दूसरे धर्मों के लोगों को आगे आना चाहिए।
खासतौर पर सिख धर्म की स्थापना ही हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए हुई। सिख-हिन्दू एक-दूसरे के अभिन्न अंग हैं। मेरे ख्याल से तो इनमें कोई फर्क ही नहीं है और हिन्दू हमेशा सिखों के ऋणी रहेंगे। सो, मैं व हमारा परिवार सिरसा और मनजीत जी.के. सिख संगत की इस बात से सहमत हैं और हम 20 नवम्बर को साहिबजादों के नाम पर बाल दिवस मनाएंगे। मनजीत सिंह जीके व सिरसा जी समय-समय पर बहुत से मुद्दे उठाते हैं। जैसे हुक्का बार बन्द और 84 के पीडि़त लोगों के हक के लिए और सादी शादियों के विषय में हम काफी हद तक उनके विषयों का समर्थन करते हैं। उनके लिए काम करने की कोशिश भी करते हैं। मैं मनिंदर सिरसा जी के साथ 84 के पीडि़तों की बस्ती में गई।
दिल कांप जाता है और आंखें नम हो जाती हैं परन्तु मैं उन्हें यह भी प्रार्थना करूंगी कि 84 दंगों के पीडि़त सिखों (जिनके साथ हम भी खड़े हैं) के लिए न्याय के साथ-साथ हम कश्मीरी पंडितों और पंजाब में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार और शहीदों के लिए भी हक मांगें क्योंकि सिख वो कौम है जो देश में जहां भी आपदा आती है, आगे बढ़-चढ़कर सहायता करते हैं। वे सिर्फ सिखों के नहीं, सबके हैं। हमारे परिवार ने दोनों दु:खों और दर्द को सहा है हिन्दुओं और दिल्ली में सिखों के साथ। पंजाब में हिन्दुओं को बसों से उतार कर मारना, बहुत से लोगों की शहादत, लालाजी, रोमेश जी की शहादत को भी न्याय दिलाएं। मैं उस समय पढ़ रही थी। नई-नई शादी हुई थी। मुझे राजनीति और इन बातों का मालूम नहीं था परन्तु दो मौतें घर में देखीं जिनका मुझे कारण समझ नहीं आया था क्योंकि शुरू से लेकर अब तक हिन्दू-सिख में फर्क नहीं देखा था। मेरे पिताजी की जमीन जालन्धर में चुगांवा गांव में थी। जिनकी हमारे साथ में जमीन थी सोहन सिंह अटवाल, उनके बच्चे नहीं थे। उन्होंने हमें बच्चों की तरह प्यार दिया। लाला जी की शहीदी के तुरन्त बाद मैं गर्भवती हुई। उस समय मैं इतनी सहम गई थी (क्योंकि मैं एक साधारण परिवार से हूं, मुझे इन बातों का ज्ञान नहीं था)। सारा दिन मोटर साइकिल की आवाज से डरती थी। मैं और मेरी ननद नीता हमेशा डर के मारे एक-दूसरे से चिपटे रहते थे या अपनी सासु मां के साथ रोमेश जी और अश्विनी जी से डांट पड़ती थी कि तुम बहादुर परिवार की बहू हो, ऐसे नहीं डरना। फिर आदित्य पैदा हुआ। मैं और अश्विनी जी अखबार के विकास के लिए 1982 में दिल्ली आ गए। जिस तरह से हम किराये के मकान में रहे। आसपास के लोग तो सिक्योरिटी देखकर डरते थे परन्तु मकान मालिक माता जी और भाजी, उनके बेटे-बहू ने बहुत साथ निभाया और जब बेटा आदित्य ढाई साल का हुआ तो उसे नर्सरी स्कूल में दाखिला देने से ङ्क्षप्रसिपल ने इन्कार किया कि अगर इस बच्चे को खतरा है तो दूसरों को भी हो जाएगा।
मैं बहुत रोई थी। जब 84 के दंगे हुए तो ज्यादातर लोगों को मैंने और अश्विनी जी ने बचाया। हमारा ड्राइंग रूम सब सिख परिवारों से भरा हुआ था। मैं और अश्विनी जी अलग-अलग अपनी-अपनी कारों में जाकर लोगों को अपने घर लाए। अब सोच आती है वो एक भीड़ का पागलपन था, कुछ भी हो सकता था। उसमें से अभी तक बहुत परिवारों से पारिवारिक संबंध हैं और कई मेरे बच्चों को राखी भी बांधते हैं। सो कहने का भाव है हम सब पढ़े-लिखे हैं। किसी भी इन्सान से ज्यादती हो तो हमें बुरा लगता है। पहले इन्सानियत है। हम सबको मिल कर जिन पर यह अत्याचार हो, चाहे वो किसी भी जाति-धर्म का हो, न्याय मांगना चाहिए। उसके बाद हमें और प्रियंका गांधी को सिक्योरिटी की वजह से साथ-साथ कोठी मिली। हम 12 साल इकठ्ठा रहे तो अडवानी जी ने कोठी (क्योंकि अश्विनी जी की लेखनी उन्हें पसंद नहीं आ रही थी) खाली करने के आदेश दिए तब अश्विनी जी ने उन्हें कहा कि हम दोनों परिवारों को कोठी साथ-साथ मिली है और आप हमें खाली करने को कह रहे हैं।
हमारा खून खून नहीं और पानी है जबकि गांधी परिवार का खून खून और पानी नहीं है?तब उन्होंने कहा कोर्ट में जाओ तो हमने कोर्ट से स्टे लिया क्योंकि वीआईपी एरिया होने के कारण सुरक्षा थी। अश्विनी जी की लेखनी लाला जी व रोमेश जी की तरह निष्पक्ष, निर्भीक है, किसी से समझौता नहीं करती, उन्होंने कांग्रेस के बारे में लेख लिखे तो उस समय के कांग्रेस के गृहमंत्री पी. चिदम्बरम उन्होंने ऐसा चक्कर डाला कि रातोंरात हमारी सिक्योरिटी वापिस ले ली और कोठी खाली करने के आदेश आ गए और यह कहा गया कि पी. चिदम्बरम से मीटिंग करो। अश्विनी जी ने इन्कार कर दिया। सो कहने का अर्थ है कि देश की एकता-अखंडता के लिए बलिदान देना आसान नहीं। कहना-सुनना आसान है, जो भुगतते हैं उन्हें दर्द पूछ कर देखो चाहे वो 84 के या पंजाब या कश्मीर के लोग हैं। जिस तन लागे वो तन जाने। साहिबजादों के बलिदान की तो मिसाल न कोई है, न होगी। जब तक चांद-सितारे रहेंगे उनके बलिदान को याद किया जाएगा तो बाल दिवस उनके नाम पर ही मनाना चाहिए। देश के बहादुर बच्चों को उस दिन इनाम देने चाहिएं और देशभक्ति व अपने धर्म (इन्सानियत का धर्म) के प्रति श्रद्धा सिखानी चाहिए। सो, हम तो शुरूआत करेंगे, बाकी अपनी समझ के मुताबिक मनाएं।