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दक्षिण भारत से ‘अलग’ स्वर

केरल के उन संस्कृति व मत्स्य पालन मन्त्री श्री साजी चेरियन ने राज्य की वामपंथी मोर्चा नीत पिन्नारी विजयन सरकार से इस्तीफा दे दिया है

केरल के उन संस्कृति व मत्स्य पालन मन्त्री श्री साजी चेरियन ने राज्य की वामपंथी मोर्चा नीत पिन्नारी विजयन सरकार से इस्तीफा दे दिया है, जिन्होंने हाल ही में कहा था कि 72 साल पहले भारत द्वारा अपनाये गये संविधान में सामान्य नागरिक के शोषण और लूट की छूट है। पिछले 72 सालों से संविधान के नाम पर यह लूट जारी है और सामान्य नागरिक का शोषण जारी है। श्री चेरियन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं और उनके ऐसे  विचारों से पता लगता है कि कम्युनिस्टों के दिल में भारत के संविधान के प्रति क्या भाव हैं। हालांकि श्री चेरियन ने इस्तीफे का ऐलान करते हुए कहा कि मीडिया ने उनके वक्तव्य को तोड़-मरोड़ करके पेश किया मगर असलियत तो उनकी जुबान पर आ ही गई। संविधान के प्रति कम्युनिस्टों का यह नजरिया नया नहीं माना जा सकता क्योंकि आजादी के बाद उन्होंने संविधान को स्वीकार करने से मना कर दिया था जिसकी वजह से भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू को कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा था। भारत के स्वतन्त्रता आदोलन के दौरान भी कम्युनिस्टों की भूमिका भारतनिष्ठ न होकर अपनी अन्तर्राष्ट्रीय  कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति वफादारी की ही रही और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सोवियत संघ के अंग्रेजों या ब्रिटेन के साथ आ जाने पर इन्होंने अंग्रेजों का साथ देना उचित समझा जबकि महात्मा गांधी की कांग्रेस उस समय ब्रिटिश सरकार का विरोध कर रही थी। 15 अगस्त, 1947 को मिली भारत की आजादी को इन्होंने उस समय ‘सत्ता का हस्तांतरण’ कहा। मगर भारत के कम्युनिस्टों का सबसे बड़ा अपराध आजादी मिलने के बाद यह रहा कि भारत को मजहब के आधार पर बांटने वाले मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना को इन्होंने धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करने की कोशिश की। जबकि हकीकत यह है कि आजादी के समय कम्युनिस्टों की तरफ से अंग्रेजों को जो योजना दी गई थी उसमें केवल पाकिस्तान का ही निर्माण नहीं बल्कि भारत की भिन्न-भिन्न क्षेत्रीय संस्कृति के अनुसार इसे कई देशों में बांटने की तजवीज रखी गई थी। और सितम देखिये कि मजहब के आधार पर ही संयुक्त पंजाब को बांटने की भी वकालत की गई थी जबकि कम्युनिस्ट मजहब के नाम पर लोगों के आपस में बंटने के सख्त विरोध में रहे हैं। नेहरू जी ने कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबन्ध इसीलिए लगाया था क्योंकि इसका सिद्धान्त सत्ता परिवर्तन के लिए  हिंसक तरीके इस्तेमाल करने का था। परन्तु बाद में जब कम्युनिस्टों ने भारत के संविधान के सभी प्रावधानों को मानने का अहद उठाते हुए संसदीय प्रणाली के माध्यम से ही सत्ता परिवर्तन करने का सिद्धान्त स्वीकारा तो उनसे  प्रतिबन्ध समाप्त किया गया। परन्तु श्री चेरियन का संविधान के बारे में 72 साल बाद यह विचार व्यक्त करना कि इसमें सामान्य व्यक्ति के लूट की व्यवस्था है और लोकतन्त्र व धर्मनिरपेक्षता के शब्द केवल लोगों को बहलाने की गरज से डाले गये हैं, पूरी तरह तथ्यों के विपरीत हैं।तथ्य यह है कि भारत के लोग पूरी तरह अहिंसक तरीके से संसदीय लोकतन्त्र का झंडा ऊंचा रखते हुए अपनी मन मर्जी की बहुमत की सरकारें बनाते आ रहे हैं। लोकतन्त्र की यह सफलता संभवतः कम्युनिस्टों को पच नहीं पा रही है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर वे अब राजनीति में पूरी तरह हाशिये पर खिसक चुके हैं। लेकिन दक्षिण के ही दूसरे राज्य तमिलनाडु से भी कुछ अलग तरह की आवाज हाल ही में सुनने को मिल रही है। पिछले दिनों यूपीए सरकार में सूचना-टैक्नोलोजी मन्त्री रहे द्रमुक पार्टी के ए. राजा ने एक समारोह में विचार व्यक्त किया कि तमिलनाडु राज्य को पूर्ण स्वायत्तता (आटोनोमस स्टेटस) दी जाये और केन्द्र के साथ उसके सम्बन्ध व्यावहारिक काम चलाने के सहयोग (कोरोबोरोटिव) के ही रहें। इसका मतलब यही होता है कि केन्द्र राष्ट्रीय सुरक्षा व विदेश तक के मामलों में राज्य सरकार की सलाह लेकर काम करे। दुखद यह है कि इस समारोह में राज्य के मुख्यमन्त्री श्री एम के स्टालिन भी मौजूद थे। 
तमिलनाडु के राजनीतिक इतिहास से परिचित सभी लोग जानते हैं कि द्रमुक की उत्पत्ति मूल पार्टी द्रविड़ कषगम पार्टी से ही हुई है जो कि स्व. रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’ की थी। यह पार्टी पृथक ‘तमिल देश’ की तरफदार थी। आजादी मिलने के बाद भी इसका जब यही सिद्धांत रहा तो पं. नेहरू ने ही संविधान संशोधन करके यह प्रावधान किया कि जो भी राजनीतिक दल भारतीय संघ को तोड़ने या इससे अलग होने की वकालत करेगा वह चुनावों में हिस्सा नहीं ले सकता है। तब पेरियार के ही ​शिष्य स्व. सी.एम. अन्नादुरै ने द्रविड़ कषगम से अलग होकर द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम पार्टी की स्थापना की और भारतीय संविधान के अनुसार तमिलनाडु को भारतीय संघ का अटूट हिस्सा मानते हुए चुनावों में भाग लेना शुरू किया जिसमें उसे पहली बार 1967 में अभूतपूर्व सफलता मिली और इसके बाद से राज्य में तमिल पार्टियों का ही शासन चला आ रहा है (अन्नाद्रमुक भी द्रमुक से टूट कर 1972 में निकली थी)। अतः श्री राजा का मन्तव्य अलगाववाद का ही पोषण करता है। याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि 2001 के करीब जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने भी स्वायत्तता  का प्रस्ताव पारित किया था। उस समय केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और राज्य में नेशनल कान्फ्रैंस के डा. फारूक अब्दुल्ला की। जबकि वाजपेयी सरकार में भी नेशनल कान्फ्रैंस शामिल थी। तब केन्द्र सरकार ने इस प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में डाल दिया था।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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