राष्ट्रीय राजनीति में जिस तरह आचार-विचार और व्यावहारिक परिवर्तन हो रहे हैं उन्हें लोकतन्त्र में स्वस्थ परंपराओं की श्रेणी में नहीं डाला जा सकता। लोकतन्त्र में कटुता के लिए कोई स्थान नहीं है, केवल प्रतिस्पर्धा के लिए है। चुनावी प्रचार के दौरान जो कटुता भाव पैदा होता है वह परिणाम आने के बाद इसलिए समाप्त हो जाता है क्योंकि सत्ता और विपक्ष दोनों को ही मतदाता अपनी-अपनी सशक्त भूमिका निभाने की जिम्मेदारी संविधान के अनुसार काम करने की देते हैं।
यह संविधान भारत की ऐसी गतिशील जीती-जागती पुस्तक है जिसे किसी दैवीय शक्ति की बजाय इसी जमीन पर पैदा हुए बुद्धिमान समझे वाले लोगों ने लिखा है और संसद को कोई देवस्थान न बनाते हुए सामान्य चलते-फिरते जीवित भारतीय नागरिकों की सत्ता का केन्द्र बनाया है। इसी सदन से गरीब से गरीब और अमीर से अमीर भारतीय को शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त होती है। अतः लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली किसी अलौकिक शक्ति के अधीन न होकर उन लौकिक ताकतों के अधीन होती है जो किसी साधारण से साधारण मनुष्य के पास होती हैं। सत्ता और विपक्ष का खेल जब इस सदन में चलता है तो व्यक्ति की बुद्धि से लेकर उसके सामर्थ्य और ज्ञान के बूते पर ही चलता है।
संविधान केवल उसे अपने ही बनाये गये विधान के तहत शक्ति परीक्षण और प्रतियोगिता करने की प्रेरणा देता है जिसमें कटुता की कहीं कोई संभावना नहीं रहती लेकिन लोकसभा चुनावों के बाद जिस प्रकार का माहौल बन रहा है उसमें व्यावहारिक स्तर पर तलखी का आना बताता है कि हम प्रतिस्पर्धा को रंजिश का रंग दे रहे हैं जो पूरी तरह अमान्य है। चुनावों में श्री नरेन्द्र मोदी की विजय का स्वागत होना चाहिए और इस तरह होना चाहिए कि लोकतन्त्र की बगिया में फूल महकते हुए दिखाई दें परन्तु इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी भी विजयी पक्ष की ही होती है जिससे विपक्ष को यह अहसास हो कि उसने लोकतन्त्र के मैदान में ‘प्रतियोगिता’ हारी है, मैदान नहीं हारा है। मैदान पूरी तरह मतदाता के संरक्षण में सुरक्षित है। दूसरी तरफ विपक्ष का भी यह धर्म है कि वह प्रतियोगिता हारने पर विजयी दल के पारितोिषक समारोह का साक्षी बनकर आम जनता के विवेक को सराहे।
लोकतन्त्र के हर खुशी या गम के वातावरण में संविधान ही खड़ा होकर यथानुरूप दिग्दर्शन कराता है और चेताता है कि व्यावहारिक नियम कैसे होने चाहिएं। यह सही है कि तृणमूल कांग्रेस के विधायक और पार्षद भाजपा में शामिल हो रहे हैं। मध्य प्रदेश और कर्नाटक में कांग्रेस के विधायकों के भाजपा में शामिल होने के कयास लगाये जा रहे हैं। कांग्रेस में गुटबाजी नजर आ रही है। संसदीय लोकतन्त्र में ऐसे अवसर आते हैं जब राजनैतिक दल अपनी विजय के भार में दब जाते हैं। 1977 में जब केन्द्र में जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार आयी थी तो उसने विभिन्न राज्यों की कांग्रेसी सरकारों को भंग कर दिया था और जब 1980 में इदिरा गांधी की सरकार आयी थी तो उन्होंने विभिन्न राज्यों की जनता पार्टी सरकारों को भंग कर दिया था मगर यह कार्य खुलेआम डंके की चोट पर किया गया था।
कर्नाटक में जिस तरह कांग्रेस व जनता दल (एस) गठबन्धन की सरकार काम कर रही है उसके अन्तर्विरोध समय-समय पर सामने आते रहते हैं, इसमें विपक्ष में बैठी भाजपा को कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। भारत में संघीय व्यवस्था में राज्यों की जो स्थिति है वह स्पष्ट रूप से इन राज्यों की विधानसभाओं को तब तक सर्वोच्च बनाये रखती है जब तक कि संविधान की अवहेलना का संगीन मामला न हो। राजनैतिक हथकंडों से सरकारों को हिलने-डुलने से रोके रखने के लिए ही दलबदल विरोधी कानून बनाया गया था मगर कालान्तर में इसका तोड़ भी बहुत करीने से निकाल लिया गया। इस काम में कांग्रेस व भाजपा दोनों एक-दूसरे से बाजी मारने को तैयार रहती हैं मगर पलड़ा उसी का भारी रहता है जिसके हाथ में केन्द्र की सत्ता होती है लेकिन लोकतन्त्र हार जाता है जिसकी दुहाई सभी पार्टियां देती हैं लेकिन एक महत्वपूर्ण बदलाव भी इन चुनावों में भाजपा की विजय से दिखाई दिया है कि राष्ट्रीय चुनावों में वोट देते समय जनता के सामने लक्ष्य दूसरा होता है और राज्यों की सरकार चुनते समय अलग होता है।
उत्तर-पश्चिम भारत के छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, बिहार, झारखंड व गुजरात से कांग्रेस का जिस तरह सफाया हुआ है उसकी कल्पना पिछले साल इनमें से कुछ राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में कोई नहीं कर सकता था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सबका साथ-सबका विकास का नारा जो कि लोकतन्त्र का सिद्धांत है, काम कर चुका है।