भारत में लाल आतंक यानी नक्सलवाद ने काफी खून बहाया है। नेपाल की राजधानी काठमांडाै स्थित पशुुपतिनाथ से दक्षिण भारत के तिरुपति तक नक्सलवाद ने रेड कॉरिडोर (लाल गलियारा) स्थापित कर लिया था। यह लाल गलियारा देश के मध्यपूर्वी और दक्षिण भारत को ज्यादा प्रभावित कर रहा था लेकिन केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के अभियान के चलते लाल गलियारा छिन्न-भिन्न हो चुका है। नक्सली हिंसा की वारदातें भी काफी कम हुई हैं। आंकड़ों के मुताबिक 2010 से लेकर अब तक 77 फीसदी नक्सली हिंसा की वारदातों में कमी आई है। नक्सलवाद प्रभावित राज्यों में कई जिले नक्सलवाद से मुक्त हो चुके हैं। नक्सलवाद अब समाप्त होने की कगार पर है लेकिन बचे-खुचे नक्सली एक बार फिर इकट्ठे होकर सुरक्षा बलों पर हमला कर अपनी मौजूदगी का अहसास कराने से पीछे नहीं हट रहे। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों के एक हमले में डीआरजी बल के वाहन को आईईडी विस्फोट से उड़ा दिया जिससे बल के दस जवान और एक ड्राइवर शहीद हो गए। यह जवान नक्सलियों के खिलाफ अभियान में हिस्सा लेने के बाद लौट रहे थे। नक्सलियों की रणनीति हमेशा यही रही कि जब भी सुरक्षा बलों के अभियान के चलते वह कमजाेर पड़ते हैं तो वह इधर-उधर छितर जाते हैं और फिर धीरे-धीरे अपनी शक्ति संग्रिह कर सुरक्षा बलों पर हमला कर उन्हें नुक्सान पहुंचाने से नहीं चूकते।
छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार ने राज्य के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जबरदस्त अभियान चलाया, जिसके चलते काफी हद तक नक्सलवाद पर अंकुश लगाया जा सका है और स्थानीय जनता विकास की नई इबारत लिख रही है। बीजापुर, सुकमा, दंतेवाड़ा और बस्तर कभी नक्सलियों का गढ़ था। आज काफी हद तक नक्सलवाद का प्रभाव खत्म होता दिखाई दे रहा है लेकिन दंतेवाड़ा में हुआ ताजा हमला दुर्भाग्यपूर्ण है। इसमें कोई संदेह नहीं कि गृहमंत्री अमित शाह ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में नई नीतियां अपना कर हिंसा कम करने में सफलता पाई है। साथ ही केन्द्रीय सुरक्षा बलों, अर्द्ध सैनिक बलों और राज्य के बलों ने आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त ऑपरेशन चलाकर वामपंथी उग्रवाद की रीढ़ तोड़ने में सफलता पाई है। छत्तीसगढ़ के साथ-साथ बिहार, झारखंड और अन्य राज्यों में कई क्षेत्रों को नक्सल मुक्त कराया जा चुका है। पिछले 9 सालों में नक्सल प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों ने विशेष अभियान चलाया है, जिसका नतीजा यह हुआ है कि नक्सलियों को भारी नुक्सान पहुंचा है और जो इलाके कभी उनका गढ़ हुआ करते थे वो आज विकास की राह देख रहे हैं। इन इलाकों तक सड़क बन रही है जो कभी आईडी लैंडमाइन से भरे होते थे। बच्चों के हाथों में बस्ते, किताब और पेन हैं जबकि पहले हथियार या बारूद हुआ करते थे। युवा उम्मीद कर रहे हैं कि जल्द ही उनको रोजगार मिलेगा और उनका जीवन यापन होगा। अस्पताल उनके घरों के पास पहुंच गया है। पिछले 9 सालों में नक्सल प्रभावित अन्दरूनी इलाकों में 175 से भी ज्यादा ऐसे सुरक्षा बलों के कैम्प बने हैं। उनके आसपास स्थानीय लोगों के लिए विशेष सुविधाएं विकसित हुई हैं।
अब सवाल यह है कि आखिर नक्सलियों के हमले में हमारे जवान कब तक शहीद होते रहेंगे। पुरानी वारदातों से अभी तक हमने कोई सबक नहीं सीखा। जहां बारूदी सुरंग बिछाई गई थी वह कोई सुनसान सड़क नहीं थी। जाहिर है कि तय किए गए सुरक्षा संबंधी मानकों के पालन में कहीं न कहीं चूक हुई है। दरअसल नक्सलवाद की जड़ें मार्क्सवाद में हैं। जिस माओ को उनके देश चीन में सत्ता से बेदखल कर चुकी है। जिस मार्क्स को जर्मनी में कोई नहीं पूछता उसके नाम पर भारत में अभी भी षड्यंत्र चल रहे हैं। भारत में नक्सलवाद की शुरूआत 1967 में पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग जिले के नक्सलवाड़ी नामक गांव से हुई थी। तब यह आंदोलन जमीदारों द्वारा छोटे किसानों के उत्पीड़न पर अंकुश लगाने के लिए, मजदूरों को शोषण से बचाने के लिए शुरू किया गया था। आंदोलनकारियों का मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आदिवासी क्षेत्रों में लोगों का जल, जंगल और जमीन सब कुछ छीना गया। उनके जीवन के प्राकृतिक संसाधन छीन लिए गए जिससे आक्रोश पनपता गया और सशस्त्र आंदोलन फैलता गया।
नक्सलवाद के मूल में गम्भीर सामाजिक और आर्थिक कारण भी रहे। नक्सली बंदूकों के बल पर सत्ता परिवर्तन का प्रयास करते रहे और एक के बाद एक बड़े नरसंहार करते रहे। बचे-खुचे नक्सली आतंरिक सुरक्षा को बार-बार चुनौती दे रहे हैं। ऐसी रिपोर्टें आ रही हैं कि दंतेवाड़ा में हमला तेलंगाना के नक्सली समूह ने किया है। ऐसे ही कई समूह अन्य जगह भी हमले कर सकते हैं। यह सब जानते हैं कि नक्सली आंदोलन पूरी तरह से भटक गया है और अब वे लूट, हत्या और उगाही का धंधा करने वाले गिरोह ही रह गए हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर एक बार फिर नक्सलवाद के पूर्ण सफाये के लिए अभियान चलाकर निर्णायक प्रहार करना चाहिए ताकि नक्सली फिर ऐसा दुस्साहस न कर सकें। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कह चुके हैं कि नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई अंतिम चरण में है और इस लड़ाई को उन्हें जीतना ही होगा।