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हिजाब नहीं संविधान सर्वोपरि

कर्नाटक में मुस्लिम स्कूली छात्राओं के हिजाब को लेकर जो विवाद पैदा हुआ है उसकी असलियत संक्षिप्त में यह कह कर स्पष्ट की जा सकती है कि यह केवल भारतीय मुसलमानों की पहचान को प्रारम्भिक स्तर से ही धार्मिक चोला पहनाने की साजिश है

कर्नाटक में मुस्लिम स्कूली छात्राओं के हिजाब को लेकर जो विवाद पैदा हुआ है उसकी असलियत संक्षिप्त में यह कह कर स्पष्ट की जा सकती है कि यह केवल भारतीय मुसलमानों की पहचान को प्रारम्भिक स्तर से ही धार्मिक चोला पहनाने की साजिश है जिससे मुस्लिम महिलाओं को यह ताकीद की जा सके कि उनकी दुनिया पर मजहब के कथित पहरेदारों की हमेशा चौकसी रहेगी। दरअसल हिजाब मुस्लिम महिलाओं के स्वतन्त्र अस्तित्व और उनकी अपनी भारतीय नागरिक के रूप में शख्सियत पर ऐसा हमला है जिसे 1945 में ही डा. भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ में बहुत ही बेबाकी के साथ साफ कर दिया था। इस पुस्तक में डा. अम्बेडकर ने मुस्लिम महिलाओं में बुर्का या पर्दा प्रथा को उनके विकास में सबसे बड़ा बाधक माना था और कहा था कि इस परंपरा को धार्मिक जामा पहना कर मुस्लिम उलेमाओं ने अपनी महिलाओं को मानसिक व शारीरिक रूप से विभिन्न कुंठाओं का शिकार बना दिया है और मुस्लिम युवक भी इसकी वजह से यौन व्याधियों का शिकार होते हैं तथा स्त्री व पुरुष के बीच आत्मीय सम्बन्ध बनने से भी इसकी वजह से बाधा आती है। परन्तु 1947 में भारत का विभाजन सिर्फ मजहब की बुनियाद पर ही होने के बाद पिछले 74 सालों में भारतीय मुसलमानों की सामाजिक सोच में अन्तर आया है जिसकी वजह से मुस्लिम महिलाओं ने घर की चारदीवारी से बाहर आकर विभिन्न क्षेत्रों में काम करना शुरू किया है और युवा पीढ़ी ने बुर्का छोड़ कर वैकल्पिक पोशाकों को अपनाना शुरू किया है। इसका स्वागत होना चाहिए क्योंकि इससे  मुस्लिम युवा वर्ग की वक्त के साथ कदम ताल करने की आकांक्षा प्रकट होती है।
 विशेषकर युवा मुस्लिम महिलाओं की यह उड़ान मजहबी मुल्ला-मौलवियों को खटक रही है और वे इस बदलाव को धर्म का खौफ दिखा कर रोकना चाहते हैं जिसकी वजह से कर्नाटक में हिजाब का विवाद पैदा हुआ है। मुस्लिम कट्टरपंथियों की इस कोशिश को जिस तरह नामुराद पाकिस्तान व अफगानिस्तान के तालिबानियों का समर्थन मिला है उससे ही साफ हो जाना चाहिए कि भारत में चन्द इस्लामी तंजीमें  किस तरह की मानसिकता फैलाना चाहते हैं। मगर पाकिस्तान जैसे ‘बे-नंग-ओ-नाम’ मुल्क को यह सोचना चाहिए कि यह वह भारत है जिससे अलग होकर किराये की जमीन पर वह तामीर हुआ है और जिसकी हालत यह है कि इसमें ‘कादियानी’ मुसलमानों को ही गैर मुस्लिम करार दे दिया गया है और जहां शिया मुसलमानों का आये दिन कत्ल होता रहता है। भारत के मुसलमान अब बदलते वक्त के साथ हम-कदम होते हुए वैज्ञानिक सोच के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं जिसका प्रमाण यह है कि मुसलमान बच्चियों में शिक्षा का प्रसार लगातार बढ़ रहा है और युवा दम्पति परिवार नियोजन में विश्वास रखते हैं जिसकी वजह से हिन्दू व मुसलमानों दोनों की ही प्रजनन दर लगभग एक समान है। मगर कट्टरपंथी मुल्ला- मौलवियों से यह सहन नहीं हो रहा है और मुस्लिम युवतियों के रोशन ख्याल बनने की रफ्तार को बांध देना चाहते हैं। 
मुसलमानों को सिर्फ एक धार्मिक गुट मान कर उन्हें मजहब की चारदीवारी में ही कैद रखते हुए उनके नागरिक अधिकारों की व्यापकता के नजरिये से सम्पूर्ण विकास में उनके योगदान की महत्ता को राजनीतिक फायदों के लिए सीमित कर देना बेशक भारत की राजनीति का एक कायदा रहा है मगर 21वीं सदी में यह संभव नहीं है क्योंकि मुस्लिम समुदाय के बीच ही गैर बराबरी को कायम रखना कट्टरपंथियों व मुस्लिम उलेमाओं का मुख्य लक्ष्य रहा है जिसकी वजह से उन्होंने हमेशा पसमान्दा मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा से दूर रखने में मजहबी उन्माद का इस्तेमाल किया और इनके इस काम में भारत पर काबिज हुक्मरानों का उन्हें समर्थन मिला। 
इसका साक्षी भारत का इतिहास है। जब 23 मार्च, 1940 को लाहौर में जिन्ना ने भारत के मुस्लिम बहुल इलाकों में अलग स्वतन्त्र मुस्लिम राज्यों (पाकिस्तान) की स्थापना का प्रस्ताव रखा तो उसके एक वर्ष  बाद ही दिल्ली में देश भर के पसमान्दा व गरीब तबके के मुसलमानों का सम्मेलन हुआ जिसमें लाखों की संख्या में मुस्लिम नागरिकों ने भाग लिया जिसका नेतृत्व सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे नेता कर रहे थे। इस सम्मेलन में प्रस्ताव पारित किया गया कि वे पाकिस्तान के निर्माण का विरोध करते हैं क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम आबादी के आधार पर भारत का बंटवारा संभव नहीं है। वे लोग अपने काम-धंधों व जमीन आदि को छोड़ कर पाकिस्तान में बसने नहीं जा सकते। इनमें मुस्लिम दस्तकार थे, जुलाहे थे, कारीगर थे और अन्य छोटे-मोटे पेशों में लगे लोग थे।  
पाकिस्तान का वजूद मुस्लिम लीग के इन्हीं लोगों की वजह से बाद में बना जिसका नेतृत्व अशराफिया और उलेमाओं ने मिल कर किया। आजादी के 74 साल बाद भी हिजाब के नाम पर इसी वर्ग के लोग मुसलमानों की रहनुमाई करने की सियासत में लगे हुए हैं और भारतीय मुसलमानों को मजहब के पिंजरे में हर तरफ से कैद करना चाहते हैं। यह बात किसी और को नहीं बल्कि खुद मुसलमानों को ही समझनी चाहिए और अपनी बेटियों को अधिक से अधिक शिक्षा देकर उन्हें अन्य भारतीय महिलाओं के बराबर लाना चाहिए। अतः बहुत जरूरी है कि कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार इस राज्य के स्कूल व कालेज खुलने पर कोई भी छात्रा न तो हिजाब लगा कर जाये और न ही कोई भी हिन्दू छात्र-छात्रा केसरिया पटका पहन कर जाये। हर कीमत पर संविधान का शासन चलना चाहिए और हर मजहब के युवक-युवती को गर्व से कहना चाहिए कि सबसे पहले वह भारतीय हैं बाद में हिन्दू-मुसलमान। 

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