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असम में पहचान का संकट (4)

असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को अपडेट करने का काम जारी है। इसे 30 जून तक प्रकाशित किया जाना था लेकिन बाढ़ के चलते असम सरकार

असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को अपडेट करने का काम जारी है। इसे 30 जून तक प्रकाशित किया जाना था लेकिन बाढ़ के चलते असम सरकार ने इसके प्रकाशन की अवधि सुप्रीम कोर्ट से बढ़वा ली है। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर बंगाली मुस्लिम भी डरे हुए हैं वहीं जांच-पड़ताल प्रक्रिया से गुजर रहे बंगाली हिन्दू भी काफी आतंकित हैं। सरकार के सामने चुनौतियां कई हैं। जिन लोगों को अंतिम एनआरसी से बाहर रखा जाएगा, उनके बारे में कोई रूपरेखा अभी सामने नहीं आई है जिन्हें विदेशी माना जाएगा और उनके नागरिकता अधिकारों को रद्द किया जा सकता है। क्या उन्हें बंगलादेश भेजा जा सकता है? या फिर उन्हें ट्रिब्यूनल में अपनी नागरिकता सिद्ध करने का मौका दिया जाएगा? ऐसा माहौल सृजित करने का प्रयास किया जा रहा है कि अपडेट के काम में बंगाली मुसलमान और बंगाली हिन्दुओं में भेदभाव किया जा रहा है। अवैध बंगलादेशियों को बंगलादेश वापस भेजना आसान नहीं होगा।

अब तक असम में सत्ता सम्भालने वाली सरकारें अपने राजनीतिक फायदे के हिसाब से एनआरसी की शर्तें तय करती रही हैं। उदाहरण के तौर पर पहचान के दस्तावेज के तौर पर ग्राम पंचायत के प्रमाणपत्र को स्वीकार करने से मना कर दिया गया। फिर मूल निवासी का बखेड़ा कर दिया गया जिसे लेकर अदालत ने भी सरकार को फटकार लगाई थी। असम के दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए पंचायत प्रमाणपत्र ही पहचान का वास्तविक दस्तावेज हो सकता है। इस तरह मूल निवासी की जो कसौटी रखी गई है, उसके आधार पर तो आहोम साम्राज्य की नींव रखने वाले शासक भी विदेशी माने जा सकते हैं। राज्य सरकारों की तरफ से सूची में नाम शामिल कराने को लेकर शर्तों में बदलाव किया जाता रहा है। एक तरफ नागरिक रजिस्टर तैयार किया जा रहा है तो दूसरी तरफ सरकार नागरिकता संशोधन बिल 2016 संसद में पेश करने की तैयारी में है। इस विधेयक को लेकर असम में प्रदर्शन भी हुए हैं। विरोध करने वालों का कहना है कि यह विधेयक 1985 में हुए असम समझौते का उल्लंघन है। समझौते में यह प्रावधान किया गया था कि बंगलादेश से आए सभी धर्मों के अवैध नागरिकों को निर्वासित किया जाएगा। भाजपा ने 2014 के चुनाव में वादा किया था कि सताए गए हिन्दुओं के लिए भारत एक प्राकृतिक निवास बनेगा और यहां शरण मांगने वालों का स्वागत किया जाएगा।

नागरिकता संशोधन विधेयक में अफगानिस्तान, बंगलादेश आैर पाकिस्तान के हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पादरियों आैर ईसाइयों काे बिना वैध दस्तावेज के भारतीय नागरिकता देने का प्रस्ताव है लेकिन यह विधेयक धर्म के आधार पर भेदभावपूर्ण है जो संविधान की धारा 14 का उल्लंघन है क्योंकि इसमें मुस्लिम या इसके विभिन्न सम्प्रदायों आैर समुदायों को शामिल नहीं किया गया। राज्य में भाजपा की सहयोगी ऑल असम छात्र संघ और इसके राजनीतिक मोर्चा असम गण परिषद ने इसका जोरदार विरोध किया है। दूसरी तरफ नागरिक रजिस्टर को लेकर मुस्लिम संगठन भी साम्प्रदायिक राजनीति करने लगे हैं। उनका कहना है कि अगर बंगलादेशियों को निर्वासित किया गया तो असम जल उठेगा। यदि उन्हें विदेशी मानकर जेल भेजा जाएगा या उन्हें अलग क्षेत्र में रखा जाएगा तो भारत के सामने म्यांमार के एक राज्य रखाइन में रह रहे रोहिंग्या मुस्लिमों जैसी स्थिति पैदा हो जाएगी।

​यदि लाखों लोगों को राज्यविहीन करार दिया जाता है तो इसमें एक नए तरह का उग्रवाद पैदा हो जाने का खतरा है। बंगलादेशी मूल के लोगों के हथियार उठा लेने की आशंका भी बन रही है। जो लोग इन्हें बाहर करने की मांग कर रहे हैं वह भी उग्र हो सकते हैं। यदि केन्द्र बंगलादेश सरकार से अवैध बंगलादेशियों को वापस लेने का मुद्दा उठाती है तो उसके मानने के आसार न के बराबर हैं। दबाव बनाने पर भारत एक अच्छे पड़ोसी को खो सकता है। असम की भाजपा सरकार के लिए अवैध बंगलादेशियों से निपटना एक बड़ी चुनौती है। समस्या बड़ी इसलिए हुई कि बाहर के लोगों के बसने से यहां के मूल निवासी अल्पसंख्यक हो गए हैं। समस्या का समाधान तो नागरिकों की पहचान से ही हो सकता है। केन्द्र और राज्य सरकार को स्थिति से बड़ी सतर्कता से निपटना होगा। (समाप्त)

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