भारत वर्तमान में 2.61 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है, परन्तु भारत अपनी कुल जीडीपी का मात्र 1.4 फीसदी हिस्सा ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है। स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च का वैश्विक स्तर 6 फीसदी माना गया है। भारत में निजी और सरकारी क्षेत्रों का स्वास्थ्य खर्च कुल डीजीपी का 3.9 फीसदी बनता है। इसमें से सरकारी खर्च का हिस्सा 30 फीसदी है। यह विश्व की अन्य विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं से काफी कम है। चीन, अमेरिका, ब्रिटेन स्वास्थ्य सेवाओं पर काफी अधिक खर्च करते हैं। इन देशों में प्रति व्यक्ति आय दर भी भारत के मुकाबले कहीं ज्यादा है। यहां के लोग निजी स्वास्थ्य खर्चे का भी वहन आसानी से कर सकते हैं। इसके उलट भारत में एक बहुत बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है और सरकारी सेवाओं पर निर्भर करती है। भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था डाक्टरों की बड़ी कमी से जूझ रही है। भारत में एक हजार लोगों पर मात्र 0.07 डाक्टर उपलब्ध हैं। आसान शब्दों में कहें तो हर दस हजार की जनसंख्या पर देश में 7 डाक्टर ही मौजूद हैं।
राज्यों में स्तिथि काफी भयावह है। झारखंड में 8,180 की जनसंख्या पर एक डाक्टर, हरियाणा में 6037 की जनसंख्या पर एक डाक्टर, उत्तर प्रदेश और बिहार में भी स्थिति ऐसी ही है। सरकारी स्वास्थ्य क्षेत्र इतनी बड़ी जनसंख्या को कवर नहीं कर सकते, निजी क्षेत्रों में इलाज बहुत महंगा है। कोरोना महामारी के दौरान प्राइवेट अस्पतालों ने काफी लूट मचाई और कोरोना उपचार के लिए लोगों को तीन लाख से दस-दस लाख तक के बिल थमा दिए। प्राइवेट लेबोरेट्रीज ने भी कोरोना की जांच में फर्जी रिपोर्टें तैयार कीं और निजी अस्पतालों से सांठगांठ कर लाखों के वारे-न्यारे किए। ऐसी स्तिथि में लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा कौन करेगा?
एक कल्याणकारी राज्य में यह सुनिश्चित करना राज्य का ही दायित्व है कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए परिस्थितियों का निर्माण किया जाए और उसकी निरंतरता को सुनिश्चित किया जाए। यह भी सच है कि जीवन का अधिकार, जो सबसे कीमती मानव अधिकार है और अन्य सभी अधिकारों की सम्भावना को जन्म देता है, की व्याख्या एक व्यापक और विस्तृत प्रकार से की जानी चाहिए और सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने तमाम निर्णयों में ऐसा किया भी गया है। यदि हम अपने संविधान की बात करें तो यह सच है कि इसके अन्तर्गत कहीं विशेष रूप से स्वास्थ्य के अधिकार को एक मौलिक अधिकार के रूप में चिन्हित नहीं किया गया, परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की उदार व्याख्या करते हुए इसके अन्तर्गत स्वास्थ्य के अधिकार को एक मौलिक अधिकार माना है। संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। भारतीय संविधान के तहत विभिन्न प्रावधान ऐसे हैं जो यदि बड़े पैमाने पर देखा जाए तो जनस्वास्थ्य से सम्बन्धित हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर बहुत ही अहम टिप्पणी करते हुए स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बताया और कहा कि सरकार सस्ते इलाज की व्यवस्था करे। इसके अलावा कोर्ट ने कहा है कि कोरोना गाइड लाइन्स ऐसओपी का सही से पालन नहीं होने की वजह से महामारी जंगल में आग की तरह फैल रही है। कोरोना अस्पतालों में आग लगते ही घटनाओं में मरीजों की मौत का संज्ञान लेते हुए अस्पतालों से फायर सेफ्टी को भी सुनिश्चित करने को कहा है।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अशोक भूषण की अगुवाई वाली बैंच ने अपने आदेश में कहा है कि कोरोना के कारण विश्व भर में लोग पीड़ित हैं। यह एक तरह से महामारी के खिलाफ विश्व युद्ध है। स्वास्थ्य जीवन का मौलिक अधिकार है तो ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी है कि वह आम लोगों के लिए सस्ते इलाज की व्यवस्था करे। राज्यों की भी यह जिम्मेदारी है कि सरकार और स्थानीय प्रशासन की तरफ से चलाए जा रहे अस्पतालों की संख्या ज्यादा से ज्यादा बढ़ाई जाए और इसकी व्यवस्था की जाए। इसमें कोई संदेह नहीं कि इलाज अब काफी महंगा हो चुका है और यह आम आदमी की जेब से बाहर जा चुका है। अगर कोई कोरोना के इलाज से बच भी रहा है तो वह आर्थिक तौर पर खत्म होता जा रहा है। सरकार और प्रशासन को चाहिए कि वह प्राइवेट अस्पतालों के इलाज के एवज में लिए जाने वाले चार्ज पर रोक लगाए। इसके लिए अथारिटी डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत प्रावधान का इस्तेमाल किया जा सकता है। शीर्ष अदालत ने लोगों द्वारा कोरोना गाइड लाइंस का पालन नहीं करने का भी संज्ञान लेते हुए कहा कि पुलिस गाइड लाइन्स का पालन सुनिश्चित कराए क्योंकि कुछ लोग न सिर्फ अपनी बल्कि दूसरों की जिन्दगी से भी खेल रहे हैं।
भारत स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच और गुणवत्ता की वैश्विक रैंकिंग में 159 देशों की कतार में 120वें नम्बर पर आता है। कोरोना महामारी ने सबक दिया है कि भविष्य में हमें अच्छे और बड़े अस्पतालों का निर्माण करना होगा।