भ्रष्टाचार को लेकर स्वतन्त्र भारत में लम्बी बहस चली है और यह नहीं कहा जा सकता कि यह चर्चा सार्थक नहीं थी। इसके बावजूद पिछले वर्षों का इतिहास गवाह है कि भ्रष्टाचार न केवल बढ़ा बल्कि यह संस्थागत स्वरूप इस प्रकार लेता गया कि भारतीयों के दैनिक जीवन में समाहित हो गया। चाहे भारत के विभिन्न राजनैतिक दलों की समय-समय पर काबिज सरकारों ने समूचे देश का च्समावेशी विकासज् करने में असफलता प्राप्त की हो मगर यह सबूतों के साथ सिद्ध किया जा सकता है कि भ्रष्टाचार का विकास च्समावेशीज् रूप से करने में इन्होंने कोई गलती नहीं की। यही वजह है कि आज पूरे देश के सरकारी अमलों में कार्यरत कर्मचारियों में ईमानदारी बरतने वाले लोगों का गुजारा मुश्किल होता जा रहा है। इसकी असली वजह राजनीतिज्ञ ही हैं और उनकी सत्ता लिप्सा ही है।
जब 1963 में पं. जवाहर लाल नेहरू ने सीबीआई की स्थापना की थी तो इसका मूल उद्देश्य बड़े पदों पर बैठे लोगों का भ्रष्टाचार पकड़ना था। पं नेहरू ने यह समझ लिया था कि विभिन्न राज्यों में जिस प्रकार सत्ता में शामिल लोगों पर भ्रष्टाचार करने के आरोप लग रहे हैं उसे समाप्त करने के लिए कोई न कोई प्रभावी कदम उठाना होगा और राजनीति को स्वच्छ रखना होगा। यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं था कि इसी वर्ष के अंत में उन्होंने च्कामराज प्लानज् लागू करके पूरी कांग्रेस की छवि सुधारने की कोशिश की थी लेकिन यह उस दौर के राजनीतिज्ञों की नैतिकता थी कि उन्होंने अपने दामन पर पड़े हुए छींटों को पोंछने के लिए कभी भी कुतर्कों का सहारा नहीं लिया। इसकी एक खास वजह यह भी थी कि तब तक कांग्रेस के अलावा किसी भी अन्य विरोधी दल को ( कुछ अपवादों को छोड़कर) कहीं भी सत्ता में रहने का सौभाग्य नहीं मिला था, अतः उनका धर्म केवल सत्ता पर काबिज लोगों की कमियां निकालना और उस पर राजनीति करना था तथा आम जनता में जनमत तैयार करना था। उस दौर के नेताओं की उच्च नैतिकता का सबसे बड़ा उदाहरण संयुक्त पंजाब के तत्कालीन मुख्यमन्त्री सरदार प्रताप सिंह कैरों थे जिन पर आरोप लगा था कि उन्होंने जिला अस्पतालों में घटिया किस्म के चिकित्सा उपकरण खरीदे थे। इसकी जांच के लिए एक आयोग का गठन पं नेहरू के जीवन काल में ही कर दिया गया था।
मगर उनकी मृत्यु के बाद जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमन्त्री बने तो इस आयोग की रिपोर्ट 1965 के शुरू में आयी। मगर जिस दिन यह रिपोर्ट संसद में रखी जाने वाली थी उससे एक दिन पहले ही कैरों साहब ने मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा केवल इसलिए दे दिया था कि उन्हें इस बात की भनक लग गई थी कि रिपोर्ट में उनके ऊपर च्शकज् की अंगुली उठाई गई है। इसी प्रकार चना कांड में मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री प. द्वारका प्रसाद मिश्र ने भी इस्तीफा दे दिया था। ये सब घटनाएं आज के दौर की राजनीति में किसी सपने जैसी देखने से कम नहीं लगती क्योंकि यह वह दौर है जिसमें सीना फुला कर भ्रष्टाचारी राजनीतिज्ञ आम जनता को अपने ईमानदार होने का प्रमाणपत्र देते फिर रहे हैं। इसके साथ ही भ्रष्टाचार के प्रति संवेदनहीनता लगातार बढ़ रही है क्योंकि जिस तरह मनमोहन सरकार के दौरान २- जी घोटाला व कोयला घोटाला में ये आरोप लगे कि इनमें सरकार को लाखों-करोड़ रुपये का नुकसान हुआ उससे मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ राज्यों में होने वाले व्यापमं घोटाला व चावल और मिड-डे मील घोटाला तो बहुत छोटे दिखाई देने लगे। उत्तर प्रदेश का जिक्र करने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि यहां पिछले 25 वर्षों से जिस तरह शासन चलाया जा रहा है उसके पीछे सत्ता पर काबिज होने वाले क्षेत्रीय दलों द्वारा भ्रष्टाचार की मार्फत एकत्र किया गया धन ही है। सबसे हैरत में डालने वाली बात यह है कि आम मतदाता को भी इस हकीकत का इल्म है कि सत्ता पर बैठने वाले सम्मानित चोरों से कम नहीं हैं, मगर इसके बावजूद मतदाता के सामने विकल्पों को बहुत ही चतुराई के साथ इन्ही राजनीतिज्ञों ने समाप्त करने में सारी तिकड़में भिड़ा डालीं। यह भारत की राजनीति की सच्चाई है कि दक्षिण भारत में भी लगभग एेसी ही स्थिति है। चाहे कर्नाटक हो या आन्ध्र प्रदेश अथवा तमिलनाडु सभी राज्यों में भ्रष्टाचार के कन्धे पर चढ़ कर बेधड़क राजनीति हो रही है।
ऐसे माहौल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की तरफ से यदि यह कहा जाता है कि भाजपा के अध्यक्ष के सुपुत्र जय शाह के खिलाफ यदि भ्रष्टाचार करने के आरोप लग रहे हैं तो प्रथम दृष्टया रूप से सबूत पाये जाने पर इसकी बाकायदा जांच की जानी चाहिए तो यह राजनीति में नैतिक शुचिता बनाये रखने की एक कोशिश जरूर कही जानी चाहिए। एक प्रकार से संघ ने स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार भाजपा अध्यक्ष के पुत्र के पक्ष में रेलमन्त्री पीयूष गोयल ने पैरवी की है वह अनुचित है क्योंकि मोदी सरकार का उनसे कोई लेना-देना नहीं है और कानून के सामने उनकी हैसियत अलग नहीं है। यह पूरी तरह नैतिक रुख है जिसका लोकतन्त्र में महत्व है क्योंकि कांग्रेस के ऊपर भी भाजपा इसी प्रकार के आरोप लगाती रही है.. लोकतन्त्र में यह जरूरी होता है कि अपनी च्कमीजज् दूसरे की च्कमीजज् से ज्यादा च्सफेदज् बताई जाये मगर यह तभी ज्यादा सफेद च्दिखाईज् जा सकती है जब उसमें कोई च्छेदज् न हो। इसके साथ ही हर दौर में महात्मा गांधी का यह वचन सत्यता पर खरा उतरता रहेगा कि राजनीतिज्ञ का अपना कोई परिवार नहीं होता और न ही उसका कोई च्निजी जीवनज् होता है। उसका परिवार सभी देशवासी होते हैं और उसका निजी जीवन किसी फटेहाल हिन्दोस्तानी के गम से जुदा नहीं हो सकता।