भारत की आर्थिक असमानता - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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भारत की आर्थिक असमानता

यदि  40 प्रतिशत सम्पत्ति पर 140 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत के केवल एक प्रतिशत लोगों का अधिकार है तो आसानी से समझा जा सकता है कि देश में फिलहाल सम्पन्नता वितरण में देश के गरीब कहे जाने वाले 81 करोड़ लोगों की हालत क्या होगी और उनका देश के आय स्रोतों में हिस्सा किस स्तर का होगा? ये 81 करोड़ के लगभग वे लोग हैं जिन्हें प्रतिमाह पांच किलो मुफ्त अनाज देने की स्कीम जारी है। आर्थिक असमानता का यह आंकड़ा बताता है कि भारत में 1991 में शुरू हुई बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के बाद गरीब कहे जाने वाले लोगों की आय में समयानुरूप वृद्धि नहीं हुई है जबकि पहले से ही आर्थिक ढांचे में ऊपर बैठे हुए एक प्रतिशत लोगों की आय बेइन्तेहा बढ़ी है। यह आर्थिक असमानता हमें सचेत करती है कि हम सम्पत्ति के बराबर के बंटवारे की दिशा में ऐसे क्रान्तिकारी कदम उठाएं जिससे गरीबी में जी रहे लोगों की  सम्पत्ति में वृद्धि हो सके। मगर सबसे हैरतंगेज तथ्य यह है कि समाज के आर्थिक रूप से विपन्न 50 प्रतिशत लोगों के पास सम्पत्ति का सिर्फ तीन प्रतिशत ही हिस्सा है। यह आर्थिक गैर बराबरी हमें चेतावनी दे रही है कि बाजार की शक्तियों के भरोसे छोड़ी हुई अर्थव्यवस्था निर्धन को निर्धन बनाये रखने के पुख्ता इंतजाम ही बांधती है। अतः हमें ऐसी आर्थिक प्रणाली अपनानी होगी जिससे राष्ट्रीय सम्पत्ति में निचले स्तर पर रहने वाले लोगों की हिस्सेदारी में इजाफा हो और पूंजी का वितरण इस प्रकार हो कि विपन्न लोग सम्पन्नता की ओर बढे़ं। स्विट्जरलैंड के दवोस शहर में चल रहे ‘विश्व आर्थिक मंच’ के सम्मेलन के प्रथम दिन अपनी आर्थिक असमानता रिपोर्ट में अधिकार समूह ‘आक्सफैम’ ने ये आंकड़े देकर बताया कि भारत की इस पैमाने पर क्या स्थिति है?
भारत एक जन कल्याणकारी राज की परिस्थापना का देश है। इसका संविधान आर्थिक गैर बराबरी दूर करने के लिए सत्ता को पर्याप्त सामाजिक व आर्थिक कदम उठाने के लिए प्राधिकृत करता है। अतः आजादी के बाद हमने जो आर्थिक नजरिया अपनाया वह मिश्रित अर्थव्यवस्था का था जिसके चलते हमारी विकास वृद्धि दर बेशक साढ़े तीन प्रतिशत वार्षिक रही मगर सम्पत्ति का बंटवारा इस प्रकार हुआ कि 1990 तक भारत की कुल आबादी का 30 प्रतिशत से अधिक हिस्सा मध्यम आय वर्ग में आ चुका था। यह लक्ष्य हमने कड़ी मशक्कत करने के बाद पाया और गरीबों को ‘क्रास सब्सिडी’ देकर उनकी क्रय क्षमता में इजाफा किया। नियन्त्रित अर्थव्यवस्था के दौर में उपभोक्ता संस्कृति के स्थान पर आवश्यकता संस्कृति को तरजीह देते हुए हमने सम्पन्न वर्ग की विलासिता के साधनों को शुल्क व कर लगा कर उनकी मांग को नियन्त्रित रखने का प्रयास किया और ग्रामीण व कृषि क्षेत्र को मजबूत करने के लिए इनमें सार्वजनिक निवेश को बढ़ावा दिया। यह नीति फलीभूत भी हुई जिसकी वजह से मध्यम वर्ग का विस्तार हुआ। मगर आज भारत की स्थिति यह है कि यदि देश के दस बड़े पूंजीपतियों या उद्योगपतियों पर पांच प्रतिशत कर लगा दिया जाये तो इससे जो धनराशि प्राप्त होगी उससे भारत के सभी बच्चों को स्कूल भेजने का खर्चा उठाया जा सकता है। जिसमें विद्यालयों के शिक्षकों का खर्चा भी शामिल है। 
सवाल किसी विशेष उद्योगपति या पूंजीपति का नहीं है बल्कि सकल अर्थ नीति का है जो 1991 से चल रही है। अन्दाजा लगाइये यदि दस पूंजीपतियों पर पांच प्रतिशत की दर से शुल्क लगता है तो इस मद में एक लाख 37 हजार करोड़ रुपए की धनराशि जुटेगी जो भारत सरकार के स्वास्थ्य मन्त्रालय के वार्षिक बजट 86 हजार दो सौ करोड़ रुपए से डेढ़ गुना है। सवाल यह है कि देश में आय के समानुपाती बंटवारे और निजी औद्योगिक व पूंजीगत विकास के बीच किस प्रकार का सन्तुलन बैठाया जाये जिससे देश के किनारे पर बैठे पचास प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति तीन प्रतिशत से बढ़कर 20 प्रतिशत से ऊपर हो जिससे वे गरीबी के मुंहाने पर बैठ कर लगातार छटपटाते न रहें। भारत के विकास में प्रत्येक नागरिक की हिस्सेदारी होती है। जो व्यक्ति जहां रहकर जो भी वैध काम करता है वह राष्ट्र के विकास का ही होता है और सरकार प्रत्येक नागरिक से कर भी वसूलती है। केवल आयकर ही नागरिकों से नहीं वसूला जाता बल्कि एक माचिस पर लगने वाले उत्पाद शुल्क में एक मजदूर की भी हिस्सेदारी होती है। निजी उद्योगों को बढ़ावा देना भी प्रत्येक सरकार की जिम्मेदारी होती है क्योंकि राष्ट्रीय विकास में पूंजीपतियों व व्यापारियों की भी बराबर की हिस्सेदारी होती है। परन्तु लोकतन्त्र में सरकारों को लगातार जनहित में ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं जिससे औद्योगिक सम्पन्नता में आर्थिक धरातल पर पड़े लोगों की भागीदारी भी बढे़। परन्तु बाजार मूलक अर्थव्यवस्था जिस प्रकार ‘श्रम’ को ठेकेदारी प्रथा के हवाले कर रही है उससे सम्पत्ति का बंटवारा निचले धरातल तक नहीं पहुंच पा रहा है और कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश ना के लगभग हो जाने से सभी कुछ बाजार पर निर्भर होता चला जा रहा है। 
बाजार पूंजी के नियम पर चलता है जिसकी वजह से पूंजी से पूंजी का निर्माण अपना प्रभाव जमाता है। यह प्रक्रिया सतत चलती है जिसके कारण धरातल पर रहने वाला व्यक्ति हाशिये पर ही खिसकता रहता है। गांधीवाद के अनुसार समाजवादी अर्थव्यवस्था कहती है कि सरकार को अमीरों से अधिक कर लेकर उसका वितरण गरीबों में किया जाना चाहिए और प्रत्येक अमीर व्यक्ति को अपनी अधिकतम आवश्यकता की सीमा निर्धारित करनी चाहिए जो कि बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में संभव नहीं है। यह आदर्शवादी विचार हो सकता है मगर आर्थिक मोर्चे पर व्यावहारिक नहीं है। इसका उपाय यही हो सकता है कि सरकारें राष्ट्रीय सम्पत्ति का दोहन करने पर निजी क्षेत्र को कड़े आर्थिक उपबन्धों में बांधे और प्राप्त आय में गरीब तबकों की भागीदारी सुनिश्चित करें। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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