भारत की आजादी का तब तक काेई मतलब नहीं हो सकता जब तक कि जन्म के आधार पर ऊंच और नीच को तय करने के पैमाने को एक सिरे से खारिज करते हुए सामाजिक बराबरी का वह सिद्धान्त लागू न किया जाये जिसे संविधान में लक्षित किया गया है। भारत का संविधान दुनिया का एेसा अनूठा जीता-जागता दस्तावेज है जो समय-काल परीस्थिति के अनुसार अपनी चाल बदलने में सक्षम है। समय की आवश्यकता है कि हम भारतीय समाज को आधुनिक-वैज्ञानिक सांचे में ढालने के लिए जन्म के आधार पर सुनिश्चित पुश्तैनी पेशों को शिक्षा के प्रसार के साथ इस प्रकार बदलें कि हिन्दू धर्म की चतुर्वर्णीय जाति व्यवस्था बेदम होकर जीभ बाहर निकालने को मजबूर हो जाये और गुरु नानक देव जी की वह वाणी साकार होकर भारत की धरती में बोलने लगे कि ‘मानस की जात सबै एको पहचानबो।’ दरअसल यही वह संस्कृति है जिसे हम भारत की पहचान कह सकते हैं।
गुरु नानक देव जी ने स्वयं को न हिन्दू बताया था न मुसलमान बताया था, बल्कि केवल इंसान बताया था। अतः यदि जाति के आधार पर समाज का एक समुदाय किसी दूसरे समुदाय को निशाना बनाता है तो यह एेसे अन्याय की श्रेणी में आता है जिसे हम जंगली संस्कृति का अंग ही कहेंगे। जाति के आधार पर यदि किसी समुदाय के लोगों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार किया जाता है तो उसे हम सभ्यता के किस दायरे में रखेंगे? अप्रैल 2010 में हरियाणा के हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में वाल्मीकि समाज के लोगों के साथ सम्पन्न व ऊंचा समझने जाने वाले दूसरे समुदाय के लोगों ने जिस तरह का बर्बर व्यवहार किया उसने उस हकीकत को सामने लाकर चौराहे पर पटक दिया जिसे हम सांस्कारिक लांछन कहते हैं। हजारों साल से हिन्दू समाज जिस जातिगत लांछन से ग्रस्त है उसे समाप्त करने में हम पूरी तरह असफल रहे हैं, यह असफलता हमारी सफलताओं पर इस प्रकार भारी पड़ रही है कि हम शरीर से बलिष्ठ होने के बावजूद मस्तिष्क से बीमार साबित हो रहे हैं। यह मानसिक बीमारी हमारे हर आगे उठाये गये कदम को पुनः शून्य पर लाकर पटक देती है और हम जहां से चले थे वहीं खड़े नजर आने लगते हैं।
इसलिए यह बेवजह नहीं है कि मिर्चपुर कांड के उन बीस दोषी व्यक्तियों को माननीय उच्च न्यायालय ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई है जिन्हें निचली अदालत ने 2011 में दोषमुक्त करार दिया था। इसके साथ ही अन्य 13 व्यक्तियों की सजा को उसने बहाल रखा है। आजादी के सात दशक गुजर जाने के बाद हमारी मानसिकता में परिवर्तन आने को तैयार नहीं है और हम उन्हीं सड़े-गले संस्कारों की वकालत में तलवारंे तानने से बाज नहीं आते जिन्होंने हमें पूरी दुनिया के सामने कभी असभ्य तक साबित करने से परहेज नहीं किया था। अंग्रेजों ने हम पर हुकूमत का रौब गालिब करते हुए यही तर्क दिया था। मिर्चपुर कांड में सबसे हैरानी की बात यह थी कि वाल्मीकि समुदाय के एक कुत्ते के भौंकने पर दूसरी जाति के लोगों को अपने अपमान का आभास हुआ। इसके पीछे की नीयत को जानकर रूह कांप जाती है कि किस प्रकार वाल्मीकि समाज के लोगों के पास रहने वाले कुत्ते ने भी दूसरे कथित ऊंची जाति के व्यक्ति पर भौंकने की जुर्रत की ? इसका भुगतान वाल्मीकियों को अपने घरों को जलते हुए देखकर करना पड़ा और एक वृद्ध व उसकी अपंग बेटी को अपनी जान तक से हाथ धोना पड़ा। यह इसी बात का प्रमाण है कि हमारी मानवीयता की चेतना भी जाति चेतना की गुलाम बनी हुई है किन्तु इसके लिए जातियों के खांचों में बंटे हिन्दू समाज को पूरी तरह दोष देना इसलिए उचित नहीं है कि आजाद भारत में मानव चेतना जागृत करने का मूल कर्त्तव्य राजनैतिक दलों का ही होता है और पिछले तीन दशक से भारत की राजनीति स्वयं जाति चेतना से ग्रस्त हो चुकी है।
अभी तक संसद में एक बार भी इस मुद्दे पर बहस करने की जरूरत नहीं समझी गई। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब लोकसभा मंे मनमोहन सिंह सरकार के दौरान जातिगत गणना कराने के लिए हंगामा बरप रहा था तो जनता दल के नेता श्री शरद यादव ने ताल ठोक कर मांग की थी कि ‘हम लोग यह मांग इसलिए कर रहे हैं कि जाति भारत का एक सत्य है और इसके आधार पर लोगों का पिछड़ापन तय होता है। या तो हम पूरा जातिविहीन समाज तैयार करें और जातियों को समाप्त करने के उपाय करें जिससे यह समस्या सदा के लिए समाप्त हो जाये मगर इस तरफ कोई बात करने को तैयार ही नहीं होता।
अध्यक्ष महोदय मैं मांग करता हूं कि संसद का एक दो दिवसीय विशेष अधिवेशन बुला कर केवल इसी मुद्दे पर बहस की जाये और इसका पुख्ता हल निकाला जाये।’’ लेकिन उसके बाद से संसद के कई अधिवेशन आये और गये मगर जाति के मुद्दे पर कोई भी राजनैतिक दल चर्चा करने की बात नहीं सोच पाया बल्कि हम तो इससे भी और आगे बढ़ते चले गये तथा देश के अलग-अलग राज्यों में दलितों को अपना निशाना बनाने में लगे रहे। यहां तक कि दलित दूल्हे को कभी हमने अपने विवाह में घोड़ी पर चढ़ कर बैंड-बाजा लेकर कथित ऊंची जाति वालों के मुहल्ले से गुजरने पर तलवारें खींचीं तो कभी उसके घुड़सवार बनने पर ही उसका सिर कलम कर डाला। यह कौन सी सभ्यता है जो हमें जाति अहंकार के समक्ष अपनी मानवीयता को गिरवी रखने को उकसाती है? कभी तो इसका इलाज करना ही होगा मगर हम तो और भी आगे इस पर पर्दा डाल कर हिन्दू-मुसलमान का कलमा पढ़ते हुए भारत की तहरीर लिखना चाहते हैं मगर भूल जाते हैं कि हिन्दोस्तान की तस्वीर जो गुरु नानक देव जी से लेकर कबीर, रहीम, रैदास, रसखान व अमीर खुसरो ने बनाई थी, वही हमारी असली पहचान है।