मध्य प्रदेश भारत का ऐसा राज्य रहा है जिसमें राजनीतिक उथल-पुथल की वजह सत्तारूढ़ पार्टी की आन्तरिक कलह प्रमुख रही है, परन्तु आजकल जिस तरह यहां की कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को अस्थिर करने की तरकीबें भिड़ाई जा रही हैं, उसके पीछे विपक्ष में बैठी भाजपा की निराशा भी काम कर रही है। पिछले दो दशकों में दल-बदल कानून का तोड़ निकालने के लिए सियासत में जो कसरत हुई है उसमें धन की थैलियों का प्रयोग इस तरह हुआ है कि चुने हुए विधायकों को जनतन्त्र के ‘शाही सुल्तान’ का रुतबा लोगों द्वारा दिये गये वोटों की कीमत अदा करके बख्श दिया जाता है।
यह नया फार्मूला विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने का निकला है जिससे सदन की सदस्य शक्ति इस प्रकार घट जाती है कि विरोधी पक्ष काे बहुमत बनने में सुविधा हो जाती है। चुने हुए सदनों की यह स्थिति स्वयं में सनद छोड़ जाती है कि राजनीति को किस तरह ‘पूंजी बाजार’ बनाने की तकनीक विकसित हो चुकी है। हमने यही नजारा कर्नाटक में देखा था जहां सत्ताधारी पक्ष के डेढ़ दर्जन के लगभग विधायकों का इस्तीफा करा कर सरकार उलट दी गई थी। जन प्रतिनिधियों के व्यापारी बनने का यह चलन भारत के लोकतन्त्र की जड़ों को किस कदर खोखला बना सकता है इसका अन्दाजा अभी हमें नहीं हो रहा है मगर इतना तो आभास हो रहा है कि राजनीतिक दलों का चरित्र भी तिजारतियों के संघ की तरह होता जा रहा है।
चुनाव में जीत हासिल करने के लिए पार्टी के और सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा के स्थान पर अन्य निजी स्वार्थों को वरीयता दी जाने लगी है। ऐसा नहीं है कि मध्य प्रदेश कांग्रेस में गुटबाजी नहीं है और इसमें अन्तर्कलह के लक्षण नहीं पाये जाते हैं। पूर्व ग्वालियर राजघराने के वंश के उत्तराधिकारी ज्योतिरादित्य सिन्धिया को कमलनाथ उसी दिन से खटक रहे हैं जिस दिन से वह मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री की गद्दी पर बैठे हैं। सिन्धिया राजवंश वैसे मध्य भारत के दौर से ही स्वतन्त्र भारत में जनसंघ को जमाने वालों में रहा है मगर इमरजेंसी काल में स्व. माधवराव सिन्धिया ने अपनी माताश्री विजयाराजे सिन्धिया के विरुद्ध कांग्रेस में जाने का फैसला किया था, परन्तु राजमाता के नाम से प्रसिद्ध विजयाराजे अन्तिम समय तक भाजपा के साथ रहीं और इस पार्टी के सिद्धांतों के प्रति एकनिष्ठ भाव से काम करती रहीं किन्तु कांग्रेस के बदलते राजनीतिक परिवेश और वरीयताओं में ज्योतिरादित्य सिन्धिया को पार्टी में पीढ़ीगत नेतृत्व परिवर्तन के दौर में जो महत्ता दी गई उससे मध्य प्रदेश कांग्रेस में सामन्ती मानसिकता और परंपराओं को पैर पसारने का अवसर मिल गया जिसका श्री कमलनाथ ने 2018 में राज्य कांग्रेस का अध्यक्ष बनते ही इस प्रकार काम किया कि साधारण कांग्रेसी कार्यकर्ता को उसकी निष्ठा और योग्यता के बूते पर पार्टी में सम्मान मिले।
नवम्बर 2018 में मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनावों में 15 वर्ष बाद कांग्रेस की विजय के पीछे उनकी यही नीति रंग लाई थी और मूर्छित अवस्था में पड़ी कांग्रेस उठ कर खड़ी हो गई थी लेकिन चुनावों में कांग्रेस बहुमत के किनारे पर ही रही और 230 के सदन में इसे 114 स्थान मिले जबकि भाजपा 109 पर रही। ज्योतिरादित्य सिन्धिया कमलनाथ के शपथ ग्रहण समारोह होने तक भी भोपाल में बने पांडाल में अपनी जय-जयकार के नारे लगवाते रहे, परन्तु अगले वर्ष लोकसभा चुनावों में अपनी करारी हार से ज्योतिरादित्य सिन्धिया की हिम्मत टूट गई और उनका राजनीतिक नैपथ्य में जाने का खतरा पैदा हो गया। अतः मध्य प्रदेश के वर्तमान संकट के कई आयाम हो सकते हैं, इस नजरिये को भी बर्खास्त नहीं किया जा सकता कि कमलनाथ सरकार एक सपा और दो बसपा विधायकों के साथ ही कुछ निर्दलीय विधायकों के समर्थन से पिछले लगभग डेढ़ साल से आराम से चल रही है। अब इस राज्य से तीन राज्यसभा सदस्यों के स्थान रिक्त हो रहे हैं। इन तीन में से दो पर कांग्रेस के प्रत्याशी व एक पर भाजपा प्रत्याशी आराम से प्रथम वरीयता मत में ही जीत जायेंगे। इससे पहले ही कमलनाथ सरकार को हिलाने-डुलाने की तरकीबें भिड़ाई जाने लगीं।
राजनीतिक दल प्रायः अपने उन कद्दावर नेताओं को राज्यसभा में भेजते रहे हैं जो किसी वजह से लोकसभा चुनाव हार जाते हैं, परन्तु ये कद्दावर नेता होते हैं। एेसे नेताओं में भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी और कांग्रेस के माननीय प्रणव मुखर्जी का नाम लिया जा सकता है। श्री मुखर्जी पहली बार 2004 का लोकसभा चुनाव जीते थे और दूसरी बार 2009 का, इससे पूर्व 1969 से 2004 तक वह राज्यसभा के सदस्य ही रहे थे और बीच में दो बार लोकसभा का चुनाव हारे भी थे। वाजपेयी 1984 में ग्वालियर से ही लोकसभा चुनाव हार गये थे। गफलत में ही सही ज्योतिरादित्य राज्यसभा में जाना चाहते हैं। यह तो कांग्रेस पार्टी की आन्तरिक कलह के समीकरण हैं। जहां तक भाजपा का सवाल है तो वह भी बहती गंगा में स्नान कर लेना चाहती है और इसी बहाने अपने दो सांसद राज्यसभा में भेज देना चाहती है और मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर भी सौदा कर लेना चाहती है मगर जो चार कांग्रेसी विधायक इस्तीफा देने के चक्कर में फंस गये थे अब पुनः कांग्रेस के खेमे में हैं। वैसे मध्य प्रदेश की राजनीतिक संस्कृति बिकाऊ कभी नहीं रही।
इस राज्य में भाजपा के वीरेन्द्र सकलेचा जैसे विद्रोही नेता जरूर हुए जिन्होंने अपनी अलग पार्टी तक बना ली थी और साध्वी उमा भारती भी हुईं। उन्होंने भी अपनी अलग पार्टी बना कर देख ली। सकलेचा और उमा भारती दोनों ही संयोग से राज्य के दो-दो साल मुख्यमन्त्री भी रहे। राज्य की एक और खूबी है कि यहां विरोधी दलों के नेता व्यक्तिगत जीवन में बहुत अच्छे मित्र भी होते हैं। निजी जीवन में मित्रता निभाने वाले कभी सौदेबाजी के स्तर पर नहीं उतरते हैं। उनके मतभेद सैद्धान्तिक होते हैं और इस पर वह किसी प्रकार का समझौता नहीं करते। मध्य प्रदेश का यह चरित्र समाप्त नहीं होना चाहिए। कमल जैसी इसकी राजनीति भाजपा का चुनाव चिन्ह होने के बावजूद कमलनाथ के साये में खिलती रहनी चाहिए।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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