सत्तर साल पहले भारत के आजाद होने के छह महीने बाद ही एक धोती में लिपटे रहने वाले और एक लाठी का सहारा लेकर चलने वाले महात्मा गांधी की जब नाथू राम गोडसे ने 30 जनवरी 1948 को दिल्ली में ही हत्या की तो पूरी दुनिया ने माना कि सदी के एेसे ‘महामानव’ को एक साधारण व्यक्ति ने हिंसा का शिकार बनाकर अंग्रेजी सल्तनत की उस शर्मिन्दगी का बदला लिया जो उसे भारत के लोगों की आवाज बने महात्मा गांधी की बात मानकर उठानी पड़ी थी मगर उस समय वे यह भूल गए थे कि महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ का दर्जा अंग्रेजों के खिलाफ अपनी ‘आजाद हिन्द फौज’ बनाने वाले नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने ही ही दिया था। अपनी आजाद हिन्द सरकार के रेडियो से भारतवासियों को सम्बोधित करते हुए नेताजी ने पहली बार जब महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता के नाम से पुकारा तो पूरे हिन्दोस्तान ने उन्हें यह नाम दे दिया। यह प्रमाण था कि महात्मा के अहिंसक रास्ते से अपना अलग रास्ता तय करने वाले नेताजी ने बापू की लाठी को अपना संरक्षक समझा था। 70 वर्ष बाद जब बापू के बलिदान दिवस को भारत के लोग शहीद दिवस के रूप में मनाते हैं तो उनके सामने अहिंसा का रास्ता भारत की संस्कृति का ध्वज वाहक होता है।
हम हिन्दू हो सकते हैं, हम मुसलमान हो सकते हैं मगर अहिंसक होना हमारी पहचान है। यदि 70 वर्ष बाद भी हम इस हकीकत को पहचानने में गलती करते हैं तो किस प्रकार महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देने के हकदार हो सकते हैं? हम भूल जाते हैं कि महात्मा गांधी वह शख्सियत थे जिन्होंने अकेले ही 1947 में भारत का बंटवारा होने के समय बंगाल पहुंच कर वहां साम्प्रदायिक दंगों को रोक दिया था और एक-दूसरे की जान के प्यासे बने हिन्दू–मुसलमानों के बीच शान्ति व सौहार्द कायम करने में सफलता प्राप्त की थी। यह सफलता तब मामूली सफलता नहीं थी क्योंिक उन्होंने बंगाल में दोनों ही समुदायों के नेताओं को ही अपने सत्याग्रह में शामिल करके एक-दूसरे की हिफाजत करने का हलफ उठवाया था। तब भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माऊंटबेटन को भी कहना पड़ा था कि उन्हें पूर्वी ( बंगाल) सीमा की चिन्ता नहीं है क्योंिक वहां एक व्यक्ति की सेना ( सिंगल मैन आर्मी ) की इतनी बड़ी ताकत है कि वहां कत्लो-गारत का बाजार गर्म नहीं हो सकता। उन्हें चिन्ता है तो पश्चिमी सीमा (पंजाब) की जहां सेना की कई ब्रिगेड तैनात हैं और वहां साम्प्रदायिक हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है मगर तब दिक्कत यह थी कि बापू अकेले होने की वजह से केवल एक ही मोर्चे पर जा सकते थे और उन्होंने तब भारत में चल रहे जश्ने आजादी के दौर के वक्त बंगाल को चुना था।
अहिंसा की बेजोड़ ताकत का महात्मा गांधी ने 1947 में बंगाल में जो मुजाहिरा किया था उससे दुनिया की ताकतवर से ताकतवर फौज की ताकत भी अपने कम होने के एहसास से कमजोर पड़ गई थी। यह अंग्रेजों के लिए ऐसा अजूबा था जिसका असर भारत को बांटने के बावजूद उन्होंने देखा। जो लोग भारत के बंटवारे के मुद्दे पर अंग्रेजों को किसी तरह की मोहलत देना चाहते हैं वे भूल जाते हैं कि पाकिस्तान का ख्वाब इंग्लैंड में ही जन्मा था जहां मुस्लिम लीग का बाकायदा दफ्तर था। बेशक भारत के आजाद होने के बाद इस देश के विभिन्न राज्याें में सैंकड़ों बार साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं जिनमें बेगुनाह हिन्दू व मुसलमानों का खून बहा है मगर उत्तर प्रदेश के कासगंज कस्बे में 26 जनवरी के दिन जिस प्रकार का हादसा हुआ है उससे हमें बहुत बड़ा सबक लेने की जरूरत है। इस मामले में हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि अंग्रेजों ने मजहब के आधार पर जिस पाकिस्तान का निर्माण कराया था उसे हम अपने ही मुसलमान नागरिकों का नाम लेकर किस तरह पाकीजगी बख्श सकते हैं? यह मुल्क हर लिहाज से आज भी ‘नाजायज’ मुल्क है जिसे भारत की ही जमीन काट कर तामीर किया गया है। इसकी फौज एेसी ‘नामुराद’ फौज है जो आज भी मजहब का नाम लेकर जंग के मैदान में जाती है और जिसका ईमान हिन्दोस्तान से दुश्मनी लगातार बनाये रखने का है।
भारत के मुसलमान न तो एेसे मुल्क और न ही एेसी फौज पर कोई इनायत बख्श सकते हैं जो उनकी जान की प्यासी हो। आजाद हिन्दोस्तान मंे मजहब अलग होने का मतलब मुल्क की पाकीजा हैसियत पर किस तरह हो सकता है। कासगंज तो एेसा कस्बा है जहां शहीद हवलदार अब्दुल हमीद के नाम पर एक प्रमुख चौक का नाम है। वीर अब्दुल हमीद ने 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान ही पाकिस्तानी फौज के छक्के छुड़ाए थे और उसके अमेरिकी ‘पेटन टैंकों’ को पटाखों की तरह उड़ा डाला था। हमें इस बात का अफसोस नहीं होना चाहिए कि आज हमारे बीच में कोई दूसरा गांधी नहीं है बल्कि इस बात पर अफसोस होना चाहिए कि आज भी हम अंग्रेजों को अपने एक मजबूत मुल्क बने रहने का सबूत दे रहे हैं। हमारा हिन्दुत्व किसी धर्म से नहीं बंधा है बल्कि वह भारत से बंधा है और इस बात की छूट देता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने रास्ते से जिस प्रकार ईश्वर को पाने की चेष्टा करता है वैसे ही भारत को मजबूत बनाने की चेष्टा भी करे। इसमें विरोधाभास कहां है क्योंकि इसी उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में ‘चुन्ना मियां’ का बनवाया हुआ भगवान लक्ष्मी-विष्णु का मन्दिर भी है।
यही वह राज्य है जिसमें नजीबाबाद कस्बे के निकट जोगीरमपुरी में बने ‘कर्बला-ए- इमाम हुसैन’ को आसपास के हिन्दू नागरिकों ने बरसों तक पाक बनाये रखने में अपना खून-पसीना बहाया। ये सब नियामतें हिन्दोस्तान में ही हैं। इसलिए सियातदानों को बहुत सोच-समझ कर जुबान खोलनी चाहिए और हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि यह मुल्क उस गांधी का मुल्क है जिसे भारत की हर पार्टी की सरकार ने राष्ट्रपिता के रुतबे से ही नवाजा है। हम कैसे भूल सकते हैं कि जब भारत में 1977 में पहली बार मोरारजी भाई के नेतृत्व में किसी गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ था तो पूरी सरकार ने बापू की समाधि राजघाट जाकर कसम खाई थी कि वह अपना कामकाज गांधी के बताए मार्ग पर चलते हुए करेगी। इस सरकार में कम्युनिस्टों को छोड़कर उस समय के सभी गैर-कांग्रेसी दल थे जिसे जनता पार्टी का नाम दिया गया था। 30 जनवरी हमें हर साल यही याद तो दिलाती है कि गांधी इस देश की सियासत की आत्मा में बसे हैं।