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जोशीमठ की जल–प्रलय का अर्थ

जोशीमठ के ऊपर बर्फीले पहाड़ के गिर जाने से जून 2013 में केदारनाथ धाम के ऊपर बादलों के फट जाने से हुए भंयकर विनाश की याद ताजा हो गई है।

जोशीमठ के ऊपर बर्फीले पहाड़ के गिर जाने से जून 2013 में केदारनाथ धाम के ऊपर बादलों के फट जाने से हुए भंयकर विनाश की याद ताजा हो गई है। प्रकृति की उस विनाशलीला का सीधा सम्बन्ध मनुष्य के भौतिक विकास की असीमित लालसा में अपने भोग-विलास की गतिविधियों के लिए प्राकृतिक शक्तियों को प्रत्यक्ष चुनौती देना था। उत्तराखंड की मनोरम शान्त घाटियों में भौतिक विकास के नाम पर जिस तरह प्राकृतिक स्रोतों के दोहन का दौर पिछले दो दशकों से चल रहा है उसे किसी भी स्तर पर पर्यावरण सन्तुलन के दायरे में नहीं रखा जा सकता है। जोशीमठ जन प्रलय के पीछे मुख्य कारण पहली नजर में यही दिखाई पड़ रहा है क्योंकि मशीनों की कर्कश आवाज के बीच प्रकृति की सुरीली ध्वनि को समाप्त करने का प्रयास मनुष्य ने ही अपने भौतिक सुख-साधन जुटाने के लिए किया है। इस भौतिक भागमभाग में जोशीमठ जल प्रलय में डेढ सौ से अधिक मनुष्यों की जान जाने की हकीकत यह बताती है कि विज्ञान को प्रकृति के समक्ष किसी विरोधी के रूप में रखा जा रहा है। जबकि विज्ञान व प्रकृति के बीच सामजस्य स्थापित करके ही हम सम्यक विकास कर सकते हैं।
 पूरे उत्तराखंड में छोटी-बड़ी पनबिजली परियोजनाओं का जाल इस तरह फैला हुआ है कि हिमालय पर्वत की मुख्य शृंखला कराहती नजर आती है। पृथक उत्तराखंड राज्य गठित होने के बाद यह उम्मीद बंधी थी कि इस पहाड़ी राज्य का विकास प्राकृतिक स्रोतों के सन्तुलित दोहन की ही इजाजत देगा। मगर क्या सितम हुआ कि हर सरकार के कार्यकाल में ये प्राकृतिक स्रोत ही ‘कमाई’ के सरल साधन बनते गये और पहाड़ अपनी किस्मत पर रोते गये। यदि तपोवन जैसे निर्जन इलाके (जो कि गाैमुख अर्थात गंगोत्री के बहुत निकट है ) में भी हम पनबिजली परियोजना लगाने की हिमाकत करेंगे तो प्रकृति निश्चित रूप से अपनी शक्ति का एहसास कराने से पीछे नहीं हटेगी। राज्य में 25 मेगावाट से कम की पनबिजली परियोजनाओं के लिए कोई पर्यावरण नीति ऐसी नहीं है जिससे परियोजना का प्रकृति व समाज पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का आंकलन सही तरीके से किया जाये।  इसके साथ ही निजी क्षेत्र को बिजली उत्पादन में इजाजत मिलने के बाद पर्वतीय क्षेत्रों में नदियों के किनारे खुदाई का मलबा डालने से निचले क्षेत्रों में जल-तबाही को दावत देने का काम बेधड़क तरीके से हो रहा है और इस तरह हो रहा है कि कभी-कभी नदी अपना रास्ता इस मलबे के ऊपर होकर बदल तक देती है। इससे पहाड़ों का न केवल मिजाज बदल रहा है बल्कि समूचे वातावरण को खतरा पैदा हो रहा है। साथ ही किसी भी परियोजना को लगाने के लिए पहाड़ों पर पेड़ों की कटाई की जाती है और उनकी एवज में नये पेड़ लगाये जाते हैं। जो नये पेड़ लगते हैं वे वाणिज्यिक दृष्टि से लाभ कमाने के लिए साल (टीक)  व पाइन जैसे होते हैं जबकि पहाड़ों पर यदि ओक के वृक्ष लगाये जायें तो वे जमीन के भीतर तक जाकर फैलते हैं और पहाड़ों काे पकड़े रहते हैं तथा ज्यादा छायादार भी होते हैं।  इस तरफ महात्मा गांधी की शिष्या मीरा बेन स्वतन्त्रता के बाद से ही सरकारों का ध्यान खींचती रही थीं मगर किसी ने उनकी बात की परवाह नहीं की। अब स्थिति यह है कि उत्तराखंड निजी पनबिजली परियोजनाओं का अड्डा बना हुआ है। सवाल यह है कि प्रत्येक छोटी-बड़ी बिजली परियोजना के लिए नदी पर बांध बनाने की जरूरत होती है। बड़ी परियोजनाओं में सुंरग का निर्माण भी करना होता है जिनकी लम्बाई पांच से तीस किलोमीटर तक हो सकती है और चौड़ाई इतनी तक हो सकती है कि जिनके भीतर चौड़ी सड़क तक बन जाये। इसके साथ ही ऐसी परियोजनाओं के निकट बस्तियां बन जाती हैं और खनन का काम होता है जिससे प्राकृतिक आपदा आने का खतरा बढ़ जाता है।
  उत्तराखंड की नदियों के जलग्राह्य क्षेत्रों में जिस तरह पनबिजली परियोजनाएं बन चुकी हैं या बनाई जा रही हैं, वे सभी अपने साथ ऐसे खतरों को लेकर चल रही हैं जैसा जोशीमठ से ऊपर विष्णुप्रयाग परियोजना के निकट बर्फीला पहाड़  गिरने से बना है। सितम्बर 2012 में जब इस राज्य के उखीमठ में भयंकर भूस्खलन दुर्घटना हुई थी तो उत्तराखंड के आपदा प्रबन्धन केन्द्र में अक्तूबर महीने में ही दी गई रिपोर्ट में कहा था कि किसी भी विकास कार्य हेतु राज्य में कही भी विस्फोट करके पहाड़ों को नहीं तोड़ा जाना चाहिए। मगर इस सिफारिश की तरफ किसी भी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। जिस तरह पहाड़ों में सुरंग बिछाने का काम किया जाता है वही स्वयं में विनाशकारी घटनाओं को दावत देने वाला होता है।
 2013 की एक रिपोर्ट ही जब यह कहती है कि विष्णुप्रयाग, धौली गंगा, श्रीनगर, मनेरी भली, सिंगोली भटवारी और फाटा भुयंग पनबिजली परियोजनाएं जल प्रलय के खतरों को दावत दे सकती हैं तो सरकारों का यह कर्त्तव्य बनता था कि वे उत्तराखंड के प्राकृतिक स्रोतों के दोहन के लिए कड़े नियम बनातीं। मगर ‘यहां तो रामलाल चले नौ गज तो श्यामलाल नापें दस गज’ की रीत निभाई जा रही है। सवाल यह है कि उत्तराखंड जैसे देवभूमि के नाम से प्रसिद्ध राज्य के प्राकृतिक सौन्दर्य को बचाये रखने के लिए हमने कौन से नियम बनाये हैं। वैसे तो जोश में हम इसे भारत का दूसरा स्विट्जरलैंड तक कहने से नहीं चूकते मगर व्यवहार में इसे औद्योगिक नगर बनाने की तरफ दौड़ रहे हैं। दरअसल भौतिक दौड़ में भूल रहे हैं कि महात्मा गांधी के अनुसार प्रकृति प्रत्येक व्यक्ति की जीवन आवश्यकताएं पूरी करने की क्षमता रखती है मगर उसके लालच की आपूर्ति नहीं कर सकती।

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