संशोधित नागरिकता कानून ( सीएए) को लेकर देश भर में जो माहौल सड़कों से लेकर न्यायालयों तक बना हुआ है उसमें सबसे बड़ी तस्दीक भारत के महान लोकतन्त्र की हो रही है और यह इस तरह हो रही है कि इसके दायरे में राष्ट्र की संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाएं तक अपने अधिकारों और सामर्थ्य को चित्रित करती दिखाई पड़ रही हैं।
कुल मिला कर इस परिस्थिति को भारत के जीवन्त लोकतन्त्र की तस्वीर कहा जा सकता है जिसमें अन्तिम विजय उस संविधान की होनी निश्चित है जिससे शक्ति लेकर सभी लोकसत्ता संस्थान गठित होते हैं। हाल में सम्पन्न हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में राजधानी के शाहीन बाग में चल रहा सीएए विरोधी आन्दोलन एक मुद्दा तक बन गया था, जो केवल यही दिखाता था कि भारत में मौलिक नागरिक अधिकार केवल किताबों में बन्द कानून नहीं हैं।
दरअसल यह इस देश के उस ‘बोलते लोकतन्त्र’ की सबसे बड़ी पहचान है जिसके आधार पर आम जनता को इस देश का संविधान किसी भी चुनी हुई सरकार का मालिक और निर्माता बनाता है, मगर दूसरी तरफ यह अधिकार किसी दूसरे नागरिक के मौलिक अधिकारों का ही इस तरह भक्षण नहीं कर सकता कि इसके असर से सामूहिक रूप से विभिन्न सुविधाओं को भोगता समाज अपने उन संवैधानिक अधिकारों से ही वंचित हो जाये जिनकी उपयोगिता उसके जीवन को सरल और सुगम बनाती है।
शाहीन बाग में एक सार्वजनिक सड़क पर पिछले दो महीने से जारी आन्दोलन के पीछे यही तर्क माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कुछ याचिकाओं की मार्फत रखे गये थे जिन पर आज उसने यह निर्णय किया कि आन्दोलनकारियों से बातचीत करने के लिए दो मध्यस्थ नियत किये जायें जो यह प्रयास करेंगे कि आन्दोलन स्थल को इस तरह कहीं और स्थानान्तरित करने की पहल हो जिससे यह जन असुविधा की वजह न बन सके।
सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशांे ने स्पष्ट किया कि लोकतन्त्र में विचारों की अभिव्यक्ति की पूरी स्वतन्त्रता है परन्तु इसके लिए भी कुछ नियम आैर कायदे हैं और उनकी तरफ भी ध्यान दिया जाना जरूरी होता है। अतः न्यायालय ने प्रख्यात वकील श्री संजय हेगड़े और श्रीमती साधना राम चन्द्रन को मध्यस्थ नियुक्त करते हुए कहा कि वे प्रयास करें कि आन्दोलनकारी किसी ऐसे स्थल पर अपना प्रदर्शन करें जिससे कोई सार्वजनिक स्थान अवरुद्ध न हो और किसी को असुविधा भी न हो।
यह फैसला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि नोएडा और दिल्ली को जोड़ने वाले कालिन्दी कुंज मार्ग पर सीएए के विरोध में पिछले दो महीनों से आन्दोलन जारी है जिसमें अधिसंख्य शिरकत महिलाओं की ही है। जाहिर है कि किसी भी जनोपयोगी स्थान या सड़क का इस्तेमाल स्थायी रूप से प्रदर्शन केन्द्र के रूप में नहीं किया जा सकता, अस्थायी रूप से किसी सार्वजनिक स्थल पर प्रदर्शन करके अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की आजादी का जश्न तो मनाया जा सकता है, मगर इसे मुस्तकिल मंजिल में तब्दील नहीं किया जा सकता।
किसी भी कानून का विरोध करने का हक आम नागरिकों को होता है, मगर यह देखना सरकार का काम होता है कि सार्वजनिक व्यवस्था कायम रहे और इसके चलते कानून के खिलाफ वर्जी का माहौल भी न बने। शाहीन बाग आन्दोलन में किसी कानून के खिलाफ वर्जी तो संभव नहीं है मगर आम शहरियों को मुश्किल जरूर पेश आ रही है जिसका हल निकालना सरकार का ही काम होता है।
लोकतन्त्र में राजनैतिक विरोध का समाधान भी राजनीति से ही निकलता है जिसे सुलह-सफाई की कोशिशें कहा जाता है, हम ऐसा देखते भी रहते हैं। किसी मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठे आन्दोलनकारियों को अन्ततः समझौते के बिन्दु के करीब लाकर अनशन तुड़वा दिया जाता है, इससे न तो अनशनकारी की मांग पूरी होती है और न ही किये गये फैसले के लफ्ज बदलते हैं मगर इसके बावजूद दोनों पक्ष अपनी–अपनी जगह से दो कदम आगे हिलते हुए नजर आते हैं, अधिक मामलों में यह कार्य कोई मध्यस्थ ही करता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यही प्रयास किया है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। लोकतन्त्र में विरोधी स्वरों का संज्ञान सत्ता संभालने वाला राजनैतिक संगठन इस प्रकार लेता है कि उसका विचार अधिकाधिक जनता को सही और उचित लगे। असल राजनीति भी यही है मगर कानून व्यवस्था और सार्वजनिक हितों का ध्यान भी प्रशासनिक अमले को रखना पड़ता है और इसके लिए वे सभी कारगर कदम उठाने का हक भी इस अमले को रहता है जिससे सार्वजनिक व्यवस्था भी बनी रहे और आंदोलनकारी कानून तोड़ने की हद तक भी न जा सकें, यह काम सिर्फ मध्यस्थता से ही हो सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि सीएए की संवैधानिकता अथवा वैधता या अवैधता का मसला आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय में ही तय होगा, क्योंकि यह पूरी तरह कानूनी मसला है।
संसद के दोनों सदनों में यह कानून बहुमत की बुनियाद पर भाजपा सरकार ने बनाया है, मगर संसद द्वारा बनाये गये कानून की तस्दीक करने का हक हमारी न्यायपालिका को है और सर्वोच्च न्यायालय इस बात की गारंटी देता है कि कोई भी कानून संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ केवल बहुमत के जोश में संसद न बना पाये, यही हमारे लोकतन्त्र की सबसे बड़ी खूबसूरती है जिसे हमारे पुरखे हमें सौंप कर गये हैं, अतः सीएए कानून के विरोध में उठ रही आवाजों का संज्ञान भी आम जनता ले रही है और इसके समर्थन में उठ रही आवाजों को भी सुन रही है, मगर फैसला तो सर्वोच्च न्यायालय को ही करना है जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि संसद में बहुमत से बनाया गया यह कानून संभवतः आजाद भारत का ऐसा सबसे ज्यादा विवादास्पद कानून है जिसे लेकर नागरिकों के बीच धर्म का सवाल खड़ा हो रहा है और यह नागरिकता की पहचान की वजह बन रहा है, इसी मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय को विचार करना है।
अतः बेहतर होगा कि शाहीन बाग आन्दोलन को अब समाप्त किया जाये और न्यायालय के फैसले का इन्तजार किया जाये। लोकहित में यह भी आवश्यक है कि सर्वोच्च न्यायालय इस मुकद्दमें को अपनी वरीयता पर ले।